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पालीः पलाश के रंगो से मनेगी इस बार हर्बल होली, आदिवासी महिलाओं को भी मिल रहा रोजगार

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Published : Mar 28, 2021, 2:13 PM IST

होली का पर्व अपने पूरे चरम पर है. रंगों और गुलाल से मौसम सराबोर है, लेकिन पिछले कुछ सालों से होली के यह रंग फीके पड़ने लगे हैं. केमिकल युक्त रंगों ने लोगों को होली खेलने से दूर कर दिया है. लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों से हर्बल गुलाल का चलन काफी तेज हो चुका है. लोग हर्बल गुलाल और रंगों से ही होली खेलना पसंद कर रहे हैं.

पलाश के फूलों से रंग, Color from palash flowers
पलाश के रंगो से मनेगी इस बार हर्बल होली

पाली. होली का पर्व अपने पूरे चरम पर है. रंगों और गुलाल से मौसम सराबोर है, लेकिन पिछले कुछ सालों से होली के यह रंग फीके पड़ने लगे हैं. केमिकल युक्त रंगों ने लोगों को होली खेलने से दूर कर दिया है. लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों से हर्बल गुलाल का चलन काफी तेज हो चुका है. लोग हर्बल गुलाल और रंगों से ही होली खेलना पसंद कर रहे हैं. ताकि उनकी सेहत भी बरकरार रहे और केमिकल रंगों से भी दूरी रह सके लेकिन सबसे बड़ी बात है कि हर्बल गुलाल आता कहां से है ? ईटीवी भारत आपको रूबरू कराने जा रहा है हर्बल गुलाल के उत्पादकों से.

पलाश के रंगो से मनेगी इस बार हर्बल होली

पढ़ेंः SPECIAL : पलाश के फूलों से बने हर्बल रंगों से रंगतेरस खेलते हैं आदिवासी....प्रतापगढ़ में बरसते हैं प्राकृतिक रंग

पाली जिला मुख्यालय से करीब 150 किलोमीटर दूर वाली उपखंड के गोरिया भीमाणा क्षेत्र में आबाद जंगलों में पलाश के पेड़ अपनी अलग ही पहचान बता रहे हैं. इस समय यह जंगल पूरी तरह से एक गुलाबी और लाल फूलों से ढका हुआ है. पेड़ों पर पत्ते की बजाय सिर्फ पलाश के फूल हैं. यह फूल वर्षों से आदिवासी लोग देख रहे हैं. लेकिन, क्षेत्र में आदिवासी महिलाओं ने इन फूलों के महत्व को समझ लिया और 3 साल पहले इन फूलों से इन्होंने हर्बल गुलाल बनाना सीख लिया. जिस जंगल में रहते हैं वहां यह फूल इनके लिए कुछ वर्षों पूर्व कचरा ही था. लेकिन, जब से इन फूलों के महत्व को इन महिलाओं ने पूरे देश को समझाया तो उसके बाद इस कचरे का महत्व सोने के बराबर हो गया.

पढ़ेंः SPECIAL : जयपुर का गुलाल गोटा : हाथी पर बैठकर गुलाल गोटे से राजा खेलते थे होली, अब खो रही पहचान

आज आदिवासी महिलाएं जंगलों में लकड़ी बीनने की जगह इन फूलों को बिनती और इससे अपना रोजगार भी चलाते हैं. करीब 200 से ज्यादा महिलाएं 10 गांव से इन पलाश के फूलों को इकट्ठा कर अलग-अलग प्रक्रियाओं से गुजार कर अलग-अलग रंगों में हर्बल गुलाल को तब्दील करती है. इस बार भी इन महिलाओं के लिए 5 टन हर्बल गुलाल का आर्डर आ चुका है. जिन्हें उन्होंने पूरा भी कर दिया है. इन्हें खुशी है कि घर बैठे इन्हें आर्डर मिल रहे हैं और सम्मानजनक पैसा भी मिल रहा है. कुछ वर्षों पूर्व तक जहां इन आदिवासी लोगों को सिर्फ मजदूरी के लिए पहचाना जाता था. उन्होंने अपने ही क्षेत्रों में होने वाली इन वनस्पति से अपना व्यापार खड़ा कर दिया और देश को एक नया उदाहरण दिया.

कई चीजों से तैयार किया जाता है गुलालः

इन आदिवासी महिलाओं की ओर से सिर्फ पलाश के फूलों से ही गुलाल तैयार नहीं किया जाता. इसके अलावा चुकंदर, पालक, गाजर से भी यह लोग अलग-अलग रंगों का गुलाल तैयार करते हैं. जिनकी खुशबू प्राकृतिक तौर पर महसूस भी की जाती है.

सृजन बदल रहा है आदिवासी क्षेत्र की कायाः

बाली उपखंड के इन 10 आदिवासी गांव में शिक्षा और रोजगार और स्वालंबन की जागृति लाने के लिए पिछले 5 वर्षों से एनजीओ सृजन यहां पर कार्यरत है. इस एनजीओ द्वारा यहां के लोगों को अपने ही उत्पादों से स्वावलंबी बनाने के प्रशिक्षण दिए जा रहे हैं. भारत में सबसे बड़ा सीताफल के पल्प बनाने का प्लांट भी इस एनजीओ की जागृति के बाद ही अनपढ़ आदिवासी महिलाओं ने भीमाणा में स्थापित कर रखा है.

पढ़ेंः SPECIAL : पलाश के फूलों से बने हर्बल रंगों से रंगतेरस खेलते हैं आदिवासी....प्रतापगढ़ में बरसते हैं प्राकृतिक रंग

यहां से प्रतिवर्ष कई टन सीताफल का पल्प देशभर के विभिन्न आइसक्रीम कंपनियों में पहुंचाया जाता है. इन महिलाओं द्वारा हर सीजन में अलग-अलग कार्य किया जाता है. जामुन के फल से यहां पर पल्प तैयार कर कई कंपनियों को भेजा जाता है. हर्बल गुलाल बनाकर भी देशभर में वितरित किया जाता है. इसके साथ ही यहां पर तेंदूपत्ता एवं कृषि के कार्यों को लेकर भी आदिवासी लोगों में लगातार जागरूकता फैलाई जा रही है.

प्रति महिला को 2 से 3 हजार का होता है फायदाः

पलाश के फूलों की सीजन 2 माह के लिए ही होती है. इस दौरान सभी महिलाएं जंगल में इन फूलों को बीनने में लगी रहती है. इस दो माह की सीजन में इन महिलाओं को करीब 2 से 3 हजार रुपए का फायदा हो जाता है. महिलाओं का कहना है कि अपने घर के काम खत्म होने के बाद 1 से 2 घंटे में वह जंगल से प्रतिदिन चार से पांच किलोग्राम पलाश के फूल इकट्ठा कर देती है. इन महिलाओं को 15 किलो के हिसाब से पैसे दिए जाते हैं.

पाली. होली का पर्व अपने पूरे चरम पर है. रंगों और गुलाल से मौसम सराबोर है, लेकिन पिछले कुछ सालों से होली के यह रंग फीके पड़ने लगे हैं. केमिकल युक्त रंगों ने लोगों को होली खेलने से दूर कर दिया है. लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों से हर्बल गुलाल का चलन काफी तेज हो चुका है. लोग हर्बल गुलाल और रंगों से ही होली खेलना पसंद कर रहे हैं. ताकि उनकी सेहत भी बरकरार रहे और केमिकल रंगों से भी दूरी रह सके लेकिन सबसे बड़ी बात है कि हर्बल गुलाल आता कहां से है ? ईटीवी भारत आपको रूबरू कराने जा रहा है हर्बल गुलाल के उत्पादकों से.

पलाश के रंगो से मनेगी इस बार हर्बल होली

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पाली जिला मुख्यालय से करीब 150 किलोमीटर दूर वाली उपखंड के गोरिया भीमाणा क्षेत्र में आबाद जंगलों में पलाश के पेड़ अपनी अलग ही पहचान बता रहे हैं. इस समय यह जंगल पूरी तरह से एक गुलाबी और लाल फूलों से ढका हुआ है. पेड़ों पर पत्ते की बजाय सिर्फ पलाश के फूल हैं. यह फूल वर्षों से आदिवासी लोग देख रहे हैं. लेकिन, क्षेत्र में आदिवासी महिलाओं ने इन फूलों के महत्व को समझ लिया और 3 साल पहले इन फूलों से इन्होंने हर्बल गुलाल बनाना सीख लिया. जिस जंगल में रहते हैं वहां यह फूल इनके लिए कुछ वर्षों पूर्व कचरा ही था. लेकिन, जब से इन फूलों के महत्व को इन महिलाओं ने पूरे देश को समझाया तो उसके बाद इस कचरे का महत्व सोने के बराबर हो गया.

पढ़ेंः SPECIAL : जयपुर का गुलाल गोटा : हाथी पर बैठकर गुलाल गोटे से राजा खेलते थे होली, अब खो रही पहचान

आज आदिवासी महिलाएं जंगलों में लकड़ी बीनने की जगह इन फूलों को बिनती और इससे अपना रोजगार भी चलाते हैं. करीब 200 से ज्यादा महिलाएं 10 गांव से इन पलाश के फूलों को इकट्ठा कर अलग-अलग प्रक्रियाओं से गुजार कर अलग-अलग रंगों में हर्बल गुलाल को तब्दील करती है. इस बार भी इन महिलाओं के लिए 5 टन हर्बल गुलाल का आर्डर आ चुका है. जिन्हें उन्होंने पूरा भी कर दिया है. इन्हें खुशी है कि घर बैठे इन्हें आर्डर मिल रहे हैं और सम्मानजनक पैसा भी मिल रहा है. कुछ वर्षों पूर्व तक जहां इन आदिवासी लोगों को सिर्फ मजदूरी के लिए पहचाना जाता था. उन्होंने अपने ही क्षेत्रों में होने वाली इन वनस्पति से अपना व्यापार खड़ा कर दिया और देश को एक नया उदाहरण दिया.

कई चीजों से तैयार किया जाता है गुलालः

इन आदिवासी महिलाओं की ओर से सिर्फ पलाश के फूलों से ही गुलाल तैयार नहीं किया जाता. इसके अलावा चुकंदर, पालक, गाजर से भी यह लोग अलग-अलग रंगों का गुलाल तैयार करते हैं. जिनकी खुशबू प्राकृतिक तौर पर महसूस भी की जाती है.

सृजन बदल रहा है आदिवासी क्षेत्र की कायाः

बाली उपखंड के इन 10 आदिवासी गांव में शिक्षा और रोजगार और स्वालंबन की जागृति लाने के लिए पिछले 5 वर्षों से एनजीओ सृजन यहां पर कार्यरत है. इस एनजीओ द्वारा यहां के लोगों को अपने ही उत्पादों से स्वावलंबी बनाने के प्रशिक्षण दिए जा रहे हैं. भारत में सबसे बड़ा सीताफल के पल्प बनाने का प्लांट भी इस एनजीओ की जागृति के बाद ही अनपढ़ आदिवासी महिलाओं ने भीमाणा में स्थापित कर रखा है.

पढ़ेंः SPECIAL : पलाश के फूलों से बने हर्बल रंगों से रंगतेरस खेलते हैं आदिवासी....प्रतापगढ़ में बरसते हैं प्राकृतिक रंग

यहां से प्रतिवर्ष कई टन सीताफल का पल्प देशभर के विभिन्न आइसक्रीम कंपनियों में पहुंचाया जाता है. इन महिलाओं द्वारा हर सीजन में अलग-अलग कार्य किया जाता है. जामुन के फल से यहां पर पल्प तैयार कर कई कंपनियों को भेजा जाता है. हर्बल गुलाल बनाकर भी देशभर में वितरित किया जाता है. इसके साथ ही यहां पर तेंदूपत्ता एवं कृषि के कार्यों को लेकर भी आदिवासी लोगों में लगातार जागरूकता फैलाई जा रही है.

प्रति महिला को 2 से 3 हजार का होता है फायदाः

पलाश के फूलों की सीजन 2 माह के लिए ही होती है. इस दौरान सभी महिलाएं जंगल में इन फूलों को बीनने में लगी रहती है. इस दो माह की सीजन में इन महिलाओं को करीब 2 से 3 हजार रुपए का फायदा हो जाता है. महिलाओं का कहना है कि अपने घर के काम खत्म होने के बाद 1 से 2 घंटे में वह जंगल से प्रतिदिन चार से पांच किलोग्राम पलाश के फूल इकट्ठा कर देती है. इन महिलाओं को 15 किलो के हिसाब से पैसे दिए जाते हैं.

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