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22 जिलों में 50 हजार किमी की दूरी तय कर नागौर पहुंची गो पर्यावरण चेतना यात्रा

करीब साढ़े छः साल पहले हल्दीघाटी स्थान से रवाना हुई गो पर्यावरण, आध्यात्मिक चेतना पैदल यात्रा सोमवार नागौर पहुंची. इस यात्रा का उद्देश्य भारत की गो संस्कृति के प्रति लोगों में जागृति पैदा कर पर्यावरण के गूढ़ विषयों की जानकारी देना है.

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Published : May 20, 2019, 6:05 PM IST

आध्यात्मिक चेतना यात्रा

नागौर. जिले के हल्दीघाटी स्थान से 4 दिसंबर 2012 को रवाना हुई गो पर्यावरण, आध्यात्मिक चेतना पैदल यात्रा सोमवार नागौर पहुंच गई. इस यात्रा का उद्देश्य भारत की गो संस्कृति के प्रति लोगों में जागृति पैदा कर पर्यावरण के गूढ़ विषयों की जानकारी देना है.

आध्यात्मिक चेतना यात्रा पहुंची नागौर

बता दें, हल्दीघाटी से 4 दिसंबर 2012 को 1008 कुंडीय गो-भैरव यज्ञ के बाद यह यात्रा शुरू हुई थी. जो अब तक राजस्थान के 22 जिलों में करीब 50 हजार किमी का सफर तय कर चुकी है. इस दौरान करीब 10 हजार गांव-कस्बों में गो कथा के माध्यम से यह यात्रा लोगों को गो संस्कृति के प्रति जागरूक कर रही है.

नागौर की राजकीय कांकरिया स्कूल में सात दिवसीय कथा चल रही है. कथा के साथ चल रहे एक सन्यासी ने बताया कि यह यात्रा 31 साल तक करीब ढाई लाख किमी का सफर तय करेगी. इस दौरान 51 हजार गांव-कस्बों में गो कथा करने का लक्ष्य है. खास बात यह है कि इस कथा के दौरान कोई चंदा भी नहीं लिया जाता है.

खास बात यह है कि गुरुदेव के नाम से पहचाने जाने वाले कथावाचक का कोई नाम नहीं है. वे कहते हैं सन्यासी को नाम और दान की आवश्यकता नहीं होती है. कथावाचक ने सोमवार को मीडिया से बातचीत में बताया कि जब तक हमारे देश में गो आधारित शिक्षा, गो आधारित खेती और गो आधारित परंपराएं थीं, हमारा देश समृद्ध था, सोने की चिड़िया कहलाता था. लेकिन, आज हम इन सबको भूल चुके हैं. इसका परिणाम देश और समाज के हर तबके में सामने है.

उन्होंने बताया की देश में अंग्रेजी शासन के समय से बताया जाने लगा कि गाय एक उपयोगी पशु है. जबकि हमारी संस्कृति में गाय को माता का दर्जा दिया गया है. उनका कहना है कि गो-उत्पादों में हर बीमारी को ठीक करने की क्षमता है. लेकिन आज एलोपैथी, होम्योपैथी और आयुर्वेद की पढ़ाई में इसका विवेचन नहीं मिलता है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है. इस यात्रा का मूल उद्देश्य देश में एक बार फिर गो संस्कृति की स्थापना करना है.

नागौर. जिले के हल्दीघाटी स्थान से 4 दिसंबर 2012 को रवाना हुई गो पर्यावरण, आध्यात्मिक चेतना पैदल यात्रा सोमवार नागौर पहुंच गई. इस यात्रा का उद्देश्य भारत की गो संस्कृति के प्रति लोगों में जागृति पैदा कर पर्यावरण के गूढ़ विषयों की जानकारी देना है.

आध्यात्मिक चेतना यात्रा पहुंची नागौर

बता दें, हल्दीघाटी से 4 दिसंबर 2012 को 1008 कुंडीय गो-भैरव यज्ञ के बाद यह यात्रा शुरू हुई थी. जो अब तक राजस्थान के 22 जिलों में करीब 50 हजार किमी का सफर तय कर चुकी है. इस दौरान करीब 10 हजार गांव-कस्बों में गो कथा के माध्यम से यह यात्रा लोगों को गो संस्कृति के प्रति जागरूक कर रही है.

नागौर की राजकीय कांकरिया स्कूल में सात दिवसीय कथा चल रही है. कथा के साथ चल रहे एक सन्यासी ने बताया कि यह यात्रा 31 साल तक करीब ढाई लाख किमी का सफर तय करेगी. इस दौरान 51 हजार गांव-कस्बों में गो कथा करने का लक्ष्य है. खास बात यह है कि इस कथा के दौरान कोई चंदा भी नहीं लिया जाता है.

खास बात यह है कि गुरुदेव के नाम से पहचाने जाने वाले कथावाचक का कोई नाम नहीं है. वे कहते हैं सन्यासी को नाम और दान की आवश्यकता नहीं होती है. कथावाचक ने सोमवार को मीडिया से बातचीत में बताया कि जब तक हमारे देश में गो आधारित शिक्षा, गो आधारित खेती और गो आधारित परंपराएं थीं, हमारा देश समृद्ध था, सोने की चिड़िया कहलाता था. लेकिन, आज हम इन सबको भूल चुके हैं. इसका परिणाम देश और समाज के हर तबके में सामने है.

उन्होंने बताया की देश में अंग्रेजी शासन के समय से बताया जाने लगा कि गाय एक उपयोगी पशु है. जबकि हमारी संस्कृति में गाय को माता का दर्जा दिया गया है. उनका कहना है कि गो-उत्पादों में हर बीमारी को ठीक करने की क्षमता है. लेकिन आज एलोपैथी, होम्योपैथी और आयुर्वेद की पढ़ाई में इसका विवेचन नहीं मिलता है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है. इस यात्रा का मूल उद्देश्य देश में एक बार फिर गो संस्कृति की स्थापना करना है.

Intro:नागौर. हल्दीघाटी से करीब साढ़े छह साल पहले रवाना हुई गो पर्यावरण, आध्यात्मिक चेतना पैदल यात्रा नागौर पहुंची। इस यात्रा का उद्देश्य भारत की गो संस्कृति के प्रति लोगों में जागृति पैदा कर पर्यावरण के गूढ़ विषयों की जानकारी देना है। खास बात यह है कि गुरुदेव के नाम से पहचाने जाने वाले कथावाचक का कोई नाम नहीं है। वे कहते हैं सन्यासी को नाम और दान की आवश्यकता नहीं होती है। आपको बता दें कि हल्दीघाटी से 4 दिसंबर 2012 को 1008 कुंडीय गो-भैरव यज्ञ के बाद यह यात्रा शुरू हुई थी। जो अब तक राजस्थान के 22 जिलों में करीब 50 हजार किमी का सफर तय कर चुकी है। इस दौरान करीब 10 हजार गांव-कस्बों में गो कथा के माध्यम से यह यात्रा लोगों को गो संस्कृति के प्रति जागरूक कर रही है।


Body:नागौर की राजकीय कांकरिया स्कूल में सात दिवसीय कथा चल रही है। कथा के साथ चल रहे एक सन्यासी ने बताया कि यह यात्रा 31 साल तक करीब ढाई लाख किमी का सफर तय करेगी। इस दौरान 51 हजार गांव-कस्बों में गो कथा करने का लक्ष्य है। खास बात यह है कि इस कथा के दौरान कोई चंदा भी नहीं लिया जाता है।
कथावाचक ने सोमवार को मीडिया से बातचीत में बताया कि जब तक हमारे देश में गो आधारित शिक्षा, गो आधारित खेती और गो आधारित परंपराएं थी। हमारा देश समृद्ध था। सोने की चिड़िया कहलाता था। लेकिन आज हम इन सबको भूल चुके हैं। इसका परिणाम देश और समाज के हर तबके में सामने है। उन्होंने बताया की देश में अंग्रेजी शासन के समय से बताया जाने लगा कि गाय एक उपयोगी पशु है। जबकि हमारी संस्कृति में गाय को माता का दर्जा दिया गया है। उनका कहना है कि गो-उत्पादों में हर बीमारी को ठीक करने की क्षमता है। लेकिन आज एलोपैथी, होम्योपैथी और आयुर्वेद की पढ़ाई में इसका विवेचन नहीं मिलता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। इस यात्रा का मूल उद्देश्य देश में एक बार फिर गो संस्कृति की स्थापना करना है।
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बाइट 1- गो कथा यात्रा के साथ आए सन्यासी।
बाइट 2- कथावाचक, गो कथा।


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