जोधपुर. दो साल बाद इस बार होली पर कोरोना का साया बिलकुल खत्म हो गया है. खास तौर से बाजार में चंग की बिक्री इस बार जोरदार है. इसका असर भी नजर आ रहा है. गांव- शहर की गलियों में चंग की थाप पर ठेठ मारवाड़ी में फागुन गाते लोगों को सुना जा सकता है. जोधपुर शहर में चंग बनाने वाले जितेंद्र चौहान का कहना है कि दो साल बाद इस बार चंग की बिक्री पुराने अंदाज में हुई है.
उन्होंने बताया कि हमें भी इस बार अंदाजा था कि बिक्री अच्छी होगी तो हमने इस बार राजस्थानी चित्रकारी से चंगों को सजाया. जितेद्र बताते हैं कि अभी होली में कुछ दिन बाकी हैं, लेकिन 900 से ज्यादा चंग बिक चुके हैं. अभी भी बिक्री जारी है. उम्मीद है कि आंकड़ा 1200 तक पहुंच जाएगा. एक चंग की कीमत एक हजार रुपये है, जबकि ऑर्डर में बनाए जाने वाले चंग 5 हजार रुपये तक में बनते हैं. छोटे चंग 500 रुपये में मिलते हैं.
पढ़ें : Holi Special: नागौर की 500 साल पुरानी होली है खास, कर्फ्यू में भी हुआ था आयोजन
गांव-शहर दोनों जगह पर क्रेज : होली पर चंग बजाने की परंपरा बरसों पुरानी है. गांवों में चौराहा व गवाड में लोग एकत्र होकर चंग बजाते हैं और उसके साथ फाग गाते हैं. शहरों में हथाइयों और गली के नुक्कड़ पर चंग बजाते देखा जा सकता है. निर्माता जितेंद्र चौहान बताते हैं कि चंग शहरी व ग्रामीण दोनों क्षेत्र के लोग खरीद रहे हैं. सभी को इस बार कोरोना के बाद होली का क्रेज है.
इस तरह से बजाया जाता है चंग : मारवाड़ सहित राजस्थान के हर इलाके में होली पर चंग बजाए जाते हैं. जोधपुर के ग्रामीण इलाकों में कई जगह पर एक डंडे की सहायता से चंग बजाया जाता है. इसके लिए गोल चंग को रस्सी के सहारे बांध कर कंधे पर लटकाया जाता है, जबकि कुछ जगहों पर हाथ की थाप और मोर के पंख की चिपटी बनाकर चंग बजाया जाता है.
हर चंग को बजाकर जांचते हैं : जोधपुर में बनने वाले चंग को बेचने से पहले हर तरह से बजाकर देखा जाता है. इसके लिए चंग के लिए जो खाल गोल लकड़ी पर लगाई जाती है, उसे तरीके से कसा जाता है. इसे बनाने में बकरे और भैंस की खाल को उपयोग में ली जाती है. तेज बजाने पर चंग की खाल लकड़ी से अलग नहीं हो, इसलिए चंग तैयार होने पर उसे लकड़ी, डंडे और हाथ से बजाया जाता है. यह भी जांचा जाता है कि बजाते समय आवाज सही आए.