ETV Bharat / state

होली विशेष: बिश्नोई समाज क्यों नहीं करता होलिका दहन, क्या है इसके पीछे की वजह...आप भी जानिए

बिश्नोई समाज अपने तेवर और कलेवर के लिए जाना जाता है. पेड़ और वन्यजीवों को बचाने के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाला बिश्नोई समाज पर्यावरण संरक्षण और अपनी आस्था के चलते होली दहन नहीं करता है. यहां तक की होलिका दहन तो दूर की बात है, बिश्नोई समाज में परिवार के लोग उसकी लौ भी नहीं देखते हैं. होली दहन कि लौ नहीं देखने के पीछे भी मान्यता हैं, कि यह आयोजन भक्त प्रहलाद को मारने के लिए किया था और बिष्णु भगवान ने 12 करोड़ जीवों के उद्धार के लिए वचन देकर कलयुग में भगवान जांभोजी के रूप में अवतरित हुए.

ishnoi society not burn Holika, Bishnoi society holi
बिश्नोई समाज क्यों नहीं करता होलिका दहन
author img

By

Published : Mar 9, 2020, 5:43 PM IST

भोपालगढ़ (जोधपुर). पेड़ और वन्यजीवों को बचाने के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाला बिश्नोई समाज पर्यावरण संरक्षण और अपनी आस्था के चलते होली दहन नहीं करता है. यहां तक की होलिका दहन तो दूर की बात है, बिश्नोई समाज में परिवार के लोग उसकी लौ भी नहीं देखते हैं. होली दहन कि लौ नहीं देखने के पीछे भी मान्यता हैं, कि यह आयोजन भक्त प्रहलाद को मारने के लिए किया था और बिष्णु भगवान ने 12 करोड़ जीवों के उद्धार के लिए वचन देकर कलयुग में भगवान जांभोजी के रूप में अवतरित हुए. बिश्नोई समाज खुद को प्रहलाद पंथी मानते हैं. सदियों से चली आ रही यह परंपरा ना सिर्फ पानी कि बर्बादी रोकता है, बल्कि पर्यावरण को बचाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है.

बिश्नोई समाज क्यों नहीं करता होलिका दहन

पढ़ें: Special: राजस्थान में यहां 400 सालों से खेली जा रही है पत्थरमार होली, घायल होना मानते हैं शगुन

जरूरी है होली का पाहल (कलश) करना
होलिका दहन से पहले जब प्रहलाद को गोद में लेकर बैठती है, तभी से शोक शुरू हो जाता है, सुबह प्रहलाद के सुरक्षित लौटने व होलिका के दहन के बाद बिश्नोई समाज खुशी मनाता है, लेकिन किसी पर रंग नहीं डालते हैं, बिश्नोई समाज के अनुसार प्रहलाद विष्णु भक्त थे.

विष्णु के अवतार थे भगवान जंभेश्वर
बिश्नोई पंथ के प्रवर्तक भगवान जंभेश्वर विष्णु के अवतार थे. कलयुग में संवत 1542 कार्तिक कृष्ण पक्ष अष्टमी को भगवान जंभेश्वर ने कलश की स्थापना कर पवित्र पाहल पिलाकर बिश्नोई पंथ बनाया था. जांभाणी साहित्य के अनुसार तब के प्रहलाद पंथ के अनुयायी ही आज के बिश्नोई समाज के लोग हैं, जो भगवान विष्णु को अपना आराध्य मानते हैं, उन्होंने बताया जो व्यक्ति घर में पाहल नहीं करते हैं, वे मंदिर में सामूहिक होने वाले पाहल से पवित्र जल लाकर उसे ग्रहण करते हैं.

पढ़ें: यहां होली के दिन धधकते अंगारों पर नंगे पैर चलने की है परंपरा...

सूर्यास्त से पहले बनता है खिचड़ा
होली दहन से पूर्व संध्या पर होलिका जब प्रहलाद को लेकर आग में बैठती है, तभी से प्रहलाद पंथी शोक मनाते हैं. बिश्नोई समाज में आज भी यह परंपरा मौजूद है, शाम को सूरज छिपने से पहले ही हर घर में शोक स्वरूप खिचड़ा बनता है, सुबह खुशियां मनाई जाती हैं, तब हवन पाहल ग्रहण करते हैं. ग्रंथों में ऐसा उल्लेख है प्रहलाद की वापसी पर हवन कर कलश की स्थापना की थी ऐसी मान्यता है, होली पर स्थापित प्रहलाद पंथ आगे चलकर हरिशचंद्र ने त्रेता युग में पुन स्थापित किया. द्वापर में युधिष्ठिर ने इसी पंथ को स्थापित किया. कलयुग में विष्णु अवतार गुरु जांभोजी ने इसी पंथ को पुन स्थापित किया.

भोपालगढ़ (जोधपुर). पेड़ और वन्यजीवों को बचाने के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाला बिश्नोई समाज पर्यावरण संरक्षण और अपनी आस्था के चलते होली दहन नहीं करता है. यहां तक की होलिका दहन तो दूर की बात है, बिश्नोई समाज में परिवार के लोग उसकी लौ भी नहीं देखते हैं. होली दहन कि लौ नहीं देखने के पीछे भी मान्यता हैं, कि यह आयोजन भक्त प्रहलाद को मारने के लिए किया था और बिष्णु भगवान ने 12 करोड़ जीवों के उद्धार के लिए वचन देकर कलयुग में भगवान जांभोजी के रूप में अवतरित हुए. बिश्नोई समाज खुद को प्रहलाद पंथी मानते हैं. सदियों से चली आ रही यह परंपरा ना सिर्फ पानी कि बर्बादी रोकता है, बल्कि पर्यावरण को बचाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है.

बिश्नोई समाज क्यों नहीं करता होलिका दहन

पढ़ें: Special: राजस्थान में यहां 400 सालों से खेली जा रही है पत्थरमार होली, घायल होना मानते हैं शगुन

जरूरी है होली का पाहल (कलश) करना
होलिका दहन से पहले जब प्रहलाद को गोद में लेकर बैठती है, तभी से शोक शुरू हो जाता है, सुबह प्रहलाद के सुरक्षित लौटने व होलिका के दहन के बाद बिश्नोई समाज खुशी मनाता है, लेकिन किसी पर रंग नहीं डालते हैं, बिश्नोई समाज के अनुसार प्रहलाद विष्णु भक्त थे.

विष्णु के अवतार थे भगवान जंभेश्वर
बिश्नोई पंथ के प्रवर्तक भगवान जंभेश्वर विष्णु के अवतार थे. कलयुग में संवत 1542 कार्तिक कृष्ण पक्ष अष्टमी को भगवान जंभेश्वर ने कलश की स्थापना कर पवित्र पाहल पिलाकर बिश्नोई पंथ बनाया था. जांभाणी साहित्य के अनुसार तब के प्रहलाद पंथ के अनुयायी ही आज के बिश्नोई समाज के लोग हैं, जो भगवान विष्णु को अपना आराध्य मानते हैं, उन्होंने बताया जो व्यक्ति घर में पाहल नहीं करते हैं, वे मंदिर में सामूहिक होने वाले पाहल से पवित्र जल लाकर उसे ग्रहण करते हैं.

पढ़ें: यहां होली के दिन धधकते अंगारों पर नंगे पैर चलने की है परंपरा...

सूर्यास्त से पहले बनता है खिचड़ा
होली दहन से पूर्व संध्या पर होलिका जब प्रहलाद को लेकर आग में बैठती है, तभी से प्रहलाद पंथी शोक मनाते हैं. बिश्नोई समाज में आज भी यह परंपरा मौजूद है, शाम को सूरज छिपने से पहले ही हर घर में शोक स्वरूप खिचड़ा बनता है, सुबह खुशियां मनाई जाती हैं, तब हवन पाहल ग्रहण करते हैं. ग्रंथों में ऐसा उल्लेख है प्रहलाद की वापसी पर हवन कर कलश की स्थापना की थी ऐसी मान्यता है, होली पर स्थापित प्रहलाद पंथ आगे चलकर हरिशचंद्र ने त्रेता युग में पुन स्थापित किया. द्वापर में युधिष्ठिर ने इसी पंथ को स्थापित किया. कलयुग में विष्णु अवतार गुरु जांभोजी ने इसी पंथ को पुन स्थापित किया.

ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.