जयपुर. स्वामी विवेकानंद की जयंती आज (12 जनवरी) पूरा देश युवा दिवस के रूप में मना रहा है. ऐसे में हम आज इस ऑर्टिकल में बात करेंगे स्वामी विवेकानंद का राजस्थान से जुड़ाव कैसा था और कैसे राजस्थानी पगड़ी उन्हें मिली थी. दरअसल, प्रदेश के राज परिवारों से वह लगातार संपर्क में रहते थे. खेतड़ी के महाराजा ने उन्हें विविदिशानन्द की जगह विवेकानंद का नाम दिया था. रामकृष्ण मिशन से जुड़े प्रमोद शर्मा बताते है कि खेतड़ी के राजा अजीत सिंह विवेकानंद की हम उम्र थे और इसी वजह से दोनों के मित्रवत संबंधों की वजह से उनका कई बार राजस्थान आना हुआ था.
विवेकानंद को राजस्थानी पगड़ी खेतड़ी से मिली थी: शिकागो जाने से पहले जब स्वामी विवेकानंद ने खेतड़ी में महाराजा अजीत सिंह से मुलाकात की थी. यहां उन्होंने देखा कि राजा के सामने प्रजा साफा या पगड़ी पहन कर आ रही है. विवेकानंद ने इसकी वजह पता किया तो उन्हें मालूम चला राजस्थानी परंपरा में शासक के सामने बिना सिर ढके नहीं आते. इसके बाद उन्होंने राजा अजीत सिंह से आग्रह किया, उन्हें भी इस परंपरा का निर्वहन करने दें. प्रमोद शर्मा ने बताया कि महाराजा अजीत सिंह ने खास तौर पर विवेकानंद के लिए भगवा साफा तैयार करवाया था, जिसे वे शिकागो लेकर गए और फिर पूरी दुनिया में वहीं साफा विवेकानंद की तस्वीर में एक पहचान के रूप में सामने आया. जयपुर स्थित खेतड़ी हाउस में पहली बार स्वामी विवेकानंद की तस्वीर खींची गई थी, जो आज दुनिया में उनकी पहचान के रूप में हम सबके सामने है.
मूर्ति पूजा को लेकर राजा और विवेकानंद के बीच चर्चा: इतिहासकार जितेंद्र सिंह शेखावत बताते हैं कि खेतड़ी के अलावा भी एक लंबा सफर राजस्थान के राज परिवारों के बीच स्वामी विवेकानंद का रहा था. कई और रियासतें भी स्वामी विवेकानंद के चरित्र, अध्यात्म और उनके धर्म शास्त्रार्थ को लेकर प्रभावित हुई थी. अलवर, सीकर, खाटू और जयपुर में प्रवास के दौरान राजा और उनसे जुड़े दरबार के लोग स्वामी विवेकानंद से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए थे. रामकृष्ण परमहंस के देहांत के बाद जब देश भर में उनके शिष्य अलग-अलग दिशाओं में निकल गए थे. तब स्वामी विवेकानंद भी उत्तराखंड से लेकर कश्मीर होकर वापस राजस्थान पहुंचे. यहां अलवर के राजा से उनकी मुलाकात हुई थी. इस दौरान मूर्ति पूजा से जुड़ा एक प्रसंग भी राजा और विवेकानंद के बीच चर्चा का मुद्दा बनता था.
इतिहासकार बताते हैं कि उस समय में आर्य समाज का बोलबाला था और मूर्ति पूजा को लेकर देशभर में निंदा का दौर चल रहा था. तब अलवर के राजा मंगल सिंह ने स्वामी विवेकानंद से मूर्ति पूजा को लेकर सवाल किया, तो दरबार में लगी मंगल सिंह के पिता की तस्वीर पर चर्चा दोनों के बीच हुई. तब स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि जब कागज के टुकड़े पर उकेरे गए रंग भावना के तौर पर पिता हो सकते हैं, तो किसी पत्थर में उकेरी गई प्रतिमा में क्यों ईश्वर की तलाश नहीं की जा सकती है. राजा मंगल सिंह विवेकानंद के इस तर्क से बहुत प्रभावित हुए थे. इसके बाद वे जयपुर और सीकर रहे थे. 14 अप्रैल 1893 को स्वामी विवेकानंद जयपुर से किशनगढ़ होते हुए अजमेर चले गए थे.
जयपुर भी आये थे स्वामी विवेकानंद: बताया जाता है कि अपने राजस्थान प्रवास के दौरान जयपुर दरबार के सेनापति ठाकुर हरि सिंह लाडखानी के खाटू हाउस पर स्वामी विवेकानंद का रुकना हुआ था. इतिहासकार जितेंद्र सिंह शेखावत कहते हैं कि इस दौरान रामनिवास बाग में स्वामी विवेकानंद ने एक व्याख्यान दिया था, जिसमें धर्म पर बात की गई थी. स्वामी विवेकानंद के विचारों से प्रभावित होकर हरि सिंह और जयपुर रियासत के प्रधान संसार चंद्र सेन ने उन्हें गुरु मान लिया था. जितेंद्र सिंह शेखावत बताते हैं कि जयपुर के पंडित सूर्यनारायण शर्मा के साथ स्वामी विवेकानंद का शास्त्रार्थ हुआ था. दोनों के बीच पाणिनी के अष्टाध्याई योग पर विस्तार से चर्चा हुई थी. जयपुर के बाद स्वामी विवेकानंद ने सीकर जिले में जीणमाता के दर्शन किए और सीकर राजा माधव सिंह के मेहमान रहे थे. वे राजस्थान में अपनी यात्रा के दूसरे दौर में 13 दिसंबर 1897 को जयपुर आए थे.
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माउंट आबू में हुआ था राजस्थान से जुड़ाव: इतिहासकार बताते हैं कि विवेकानंद अपने सफर पर लगातार देश भ्रमण कर रहे थे. इस बीच अंग्रेजी शासन काल में प्रमुख हिल स्टेशन के रूप में पहचान रखने वाले सिरोही जिले के माउंट आबू की गुफा में विवेकानंद का रुकना हुआ. किशनगढ़ के मुंशी फैज अली से इस दौरान विवेकानंद की मुलाकात हुई थी. दरअसल, कई राजाओं ने अंग्रेजी रियासतों से संपर्क करने के लिए माउंट आबू में अपने आधिकारिक भवन बनाए हुए थे, जहां इन रियासतों के दीवान और मुंशी रहा करते थे. यहां से मुंशी फैज ने विवेकानंद को किशनगढ़ हाउस बुलाया, जहां उनकी मुलाकात खेतड़ी के मुंशी जगमोहन लाल से हुई और जगमोहन लाल के जरिए वह राजा अजीत सिंह के संपर्क में आए थे. 4 जून 1893 को हुई इस मुलाकात का जिक्र खेतड़ी राज परिवार के दस्तावेजों में भी है.
इतिहासकार जितेंद्र सिंह शेखावत के अनुसार, खेतड़ी राजपरिवार ने ही शिकागो धर्म सम्मेलन में जाने के लिए 31 मई 1893 को ओरियंट कंपनी के पेनिनशूला जहाज में सफर के लिए स्वामी विवेकानंद को फर्स्ट क्लास का टिकट खरीदकर दिया था. यहां तक की अमेरिका से वापसी पर खेतड़ी में विवेकानंद का ऐतिहासिक स्वागत किया गया था. उन पर पंडित झाबरमल शर्मा और ओंकार सक्सेना ने राजस्थान के प्रसंग पर किताब भी लिखी है.