जयपुर. राजस्थान बीजेपी अध्यक्ष सतीश पूनिया का 3 वर्ष का कार्यकाल 27 दिसंबर को पूरा हो रहा है. पूनिया यथावत रहेंगे या फिर बदलाव होगा, यह अहम सवाल है. प्रदेश बीजेपी में इन दिनों नए साल में प्रदेश अध्यक्ष के बदलाव को लेकर चर्चाओं ने जोर पकड़ रखा है. बीजेपी से जुड़े एक अलग नेताओं के धड़े ने जल्द ही पूनिया के बदलाव की चर्चाओं को हवा दी है. इस बीच सब की निगाहें मोदी-अमित शाह पर हैं.
बीजेपी शीर्ष नेतृत्व इस आंकलन में जुट गया है कि किस तरह से मिशन 2023 को फतह किया जाए और इसके लिए क्या बदलाव हो. सूत्रों की मानें तो मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष के तीन साल के कामकाज का आंकलन भी हो रहा (Review of 3 years tenure of Satish Poonia) है, जिसमें उपचुनाव की परफॉर्मेंस, सरकार के खिलाफ बड़ा मूवमेंट और संगठन की एकजुटता को लेकर देखा जा रहा है. इन तीनों फार्मूले में पूनिया नाकाम रहे हैं.
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सितंबर 2019 में संभाली थी कमान: जून 2019 में बीजेपी के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष मदन लाल सैनी के आकस्मिक निधन के बाद बीजेपी केंद्रीय नेतृत्व ने राजस्थान बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष के रूप में डॉ सतीश पूनिया की नियुक्ति 14 सितंबर, 2019 को की थी. दिसंबर 2019 में पूनिया पार्टी प्रदेश अध्यक्ष पद पर विधिवत निर्वाचित भी हो गए. मतलब निर्वाचन के आधार पर देखें, तो इस साल 27 दिसंबर को पूनिया के प्रदेश अध्यक्ष पद पर 3 साल का कार्यकाल पूरा करेंगे. अब पार्टी परफॉर्मेंस के आंकलन में जुट गई है. यदि विरोधियों की चली तो बदलाव संभव है और इस पर ही सबकी निगाहें हैं.
क्या रही पूनिया की परफॉर्मेंस: पूनिया को अध्यक्ष पद के साथ ही कई जिम्मेदारियां मिलीं. विधानसभा चुनाव के बाद बिखरे पड़े संगठन को एकजुट करना, बतौर विपक्ष सरकार के खिलाफ बड़ा मूमेंट खड़ा करना, साथ ही इन परिस्थतियों के बीच उपचुनाव में पार्टी को जीत दिलाने की जिम्मेदारी उनको मिली. लेकिन उनके कार्यकाल को देखें, तो वे इन तीनों ही परिस्थितियों में फेल साबित हुए. संगठन को तीन साल से एकजुट नहीं कर सके. एक धड़ा पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के साथ ही खड़ा रहा रहा.
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पूनिया ना वसुंधरा को साथ ला सके और ना गुटबाजी को कम कर पाए, जिसका खामियाजा पार्टी के कार्यकर्मों और चुनाव परिणामों में साफ दिखा. इतना ही नहीं पार्टी प्रदेश में मौजूदा सरकार के खिलाफ कोई बड़ा मूमेंट भी खड़ा नहीं कर पाई. पूनिया पर ये आरोप भी लगते रहे कि वो पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को साथ जोड़ने की बजाय अकेले के वर्चस्व पर ज्यादा भरोसा करते हैं. इसका बड़ा उदाहरण पिछले दिनों उनकी यात्राएं भी रही हैं. जिसमें वे अकेले ही चल दिए थे.
जन आक्रोश यात्रा भी रही फेल: पहले तो पूनिया कई बार ये कोशिश करते रहे कि वे अकेले की ही यात्रा निकालें, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व से अनुमति नहीं मिलने के बीच इस साल के अंत में गहलोत सरकार के खिलाफ जन आक्रोश पर सहमति बनी. लेकिन इस यात्रा की शुरुआत ही फीकी रही. यात्रा को शुरू करने के लिए राष्ट्रीय अध्यक्ष को आमंत्रित किया गया, लेकिन राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की सभा में ही संख्या को नहीं जोड़ पाए. इसके लिए कवर किए गए आधे दशहरा मैदान में आधी भी कुर्सियां नहीं भर पाईं. राष्ट्रीय अध्यक्ष की सभा में कुर्सियां खाली रहने पर केंद्रीय नेतृत्व ने रिपोर्ट तलब भी की थी. इतना ही नहीं प्रदेश के 200 विधानसभा क्षेत्रों में गई इस यात्रा में पार्टी को कोई जन समर्थन जुड़ा हुआ नहीं दिखा. इसकी एक बड़ी वजह पार्टी के एक धड़े की दूरी भी मानी जा रही है.
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उपचुनाव में लो परफॉर्मेंस: पूनिया के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद 8 उपचुनाव हुए. जिसमें 6 सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने जबकि सिर्फ 1 सीट बीजेपी के खाते में आई. हालांकि 1 सीट पर लोकतांत्रिक पार्टी ने जीत दर्ज की. जहां बीजेपी ने अपना उम्मीदवार नहीं उतरा था, बल्कि रालोपा को समर्थन कर रही थी. पूनिया बतौर प्रदेश अध्यक्ष उपचुनाव परफॉर्मेंस में कामयाब नहीं हो पाए. आमतौर पर माना जाता है कि सत्तारूढ़ पार्टी की एंटी इनकंबेंसी का फायदा उपचुनावों में विपक्षी पार्टियों को मिलता है. ऐसा पिछले बीजेपी शासन में कांग्रेस को मिला, लेकिन यहां भी बीजेपी को अब तक हुए 8 उपचुनाव में से 6 में हार का सामना करना पड़ा. मतलब साफ है कि पूनिया कांग्रेस पार्टी की एंटी इनकंबेंसी का फायदा भी नहीं दिला पाए.
अध्यक्ष की अहम भूमिका: भाजपा प्रदेश अध्यक्ष का पद चुनावी वर्ष में काफी महत्वपूर्ण माना जाता है. चुनाव में टिकट वितरण के दौरान पार्टी प्रदेश अध्यक्ष की अहम भूमिका भी रहती है. यही कारण है कि चुनावी वर्ष में पार्टी प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर सबकी निगाहें रहती हैं. पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान भी भाजपा पार्टी प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी को लेकर राजस्थान में काफी घमासान मचा था.
माना जा रहा था कि पार्टी आलाकमान सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत को प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाह रहे था, लेकिन वसुंधरा राजे व अन्य समर्थक नेता इसके पक्ष में नहीं थे. इसके चलते लंबे समय तक प्रदेश अध्यक्ष का पद खाली रहा था. तब तक मदनलाल सैनी को सहमति से इस पद पर बैठाया गया था. सैनी के आकस्मिक निधन के बाद पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया गया, लेकिन पूनिया और वसुंधरा राजे के बीच की आदावत भी किसी से छीपी नहीं है.
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बीजेपी आगे क्या?: राजस्थान में अगले साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए बीजेपी और कांग्रेस ने माहौल बनाना शुरू कर दिया है. कांग्रेसी खेमे में जहां गहलोत और पायलट गुट में चल रही टसल की चर्चाएं जोर पकड़ने लगी हैं, वहीं बीजेपी में गुटबाजी की अटकलों के बीच मुख्यमंत्री के चेहरे पर अभी सस्पेंस बना हुआ है. इसी बीच राजस्थान बीजेपी के मुखिया पूनिया का अध्यक्ष पद पर 3 साल का कार्यकाल 27 दिसंबर को पूरा हो रहा है. सूत्रों की मानें तो केंद्रीय नेतृत्व अध्यक्ष परिवर्तन पर विचार कर रहा है. इस बार पार्टी की कोशिश है कि ऐसे नए चेहरे को कमान सौंपी जाए, जो पार्टी एकजुट कर मिशन 2023 में कामयाब हो सके.
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पंचायत चुनाव में ही कर पाए अच्छा प्रदर्शन: वरिष्ठ पत्रकार मनीष गोधा की मानें तो पार्टी ने जब पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाया था, उस समय युवा चेहरे के रूप में आगे किया था, ताकि पार्टी को वह एनर्जी दे सकें. गोधा कहते हैं कि विपक्ष में होने के नाते पूनिया ने भले ही कुछ कार्यक्रमों के जरिए युवा कार्यकर्ताओं को जोड़ने की कोशिश जरूर की, लेकिन बड़ा जन आंदोलन पार्टी की तरफ से खड़ा नहीं कर पाए. चुनाव परफॉर्मेंस की बात करें तो पंचायत चुनाव में पहली बार बीजेपी ने अच्छा परफॉर्म जरूर किया, लेकिन उपचुनाव में पार्टी पूनिया के नेतृत्व में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई. गोधा यह भी कहते हैं कि संगठन में जिस तरह का विचार था उसे भी पूनिया एकजुट करने में नाकाम रहे.