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Special: राजस्थान में लोकतंत्र के पहले चुनाव की दिलचस्प कहानी, कई दिग्गज राजनेताओं को मिली थी हार - लोकतंत्र के पहले चुनाव की दिलचस्प कहानी

राजस्थान में विधानसभा चुनाव 2023 को लेकर जनसभाओं, रैलियों और डोर टू डोर जनसंपर्क का दौर जारी है. राजनीतिक दल जीत की हर जुगत में लगे हुए हैं, लेकिन राजस्थान विधानसभा के लिए 1952 में हुए पहले चुनाव का वो दौर भी खास था. तब चुनाव हाईटेक न होकर कार्यकर्ताओं के दम पर लड़ा जाता था. नेता खुद अपनी जनसभाओं के लिए तांगे में बैठकर चुनाव प्रचार किया करते थे. राजस्थान का ये पहला चुनाव इसलिए भी खास था, क्योंकि इसमें मुख्यमंत्री पद के कई दावेदारों को हार का सामना करना पड़ा था.

इतिहासकार जितेंद्र सिंह शेखावत से बातचीत
इतिहासकार जितेंद्र सिंह शेखावत से बातचीत
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By ETV Bharat Rajasthan Team

Published : Nov 21, 2023, 7:41 PM IST

इतिहासकार जितेंद्र सिंह शेखावत से बातचीत

जयपुर. देश की आजादी के बाद राजस्थान विधानसभा का पहला चुनाव 1952 में हुआ था. चुनाव में लोकतंत्र की खूबसूरती देखने को मिली थी. इस चुनाव की कहानी कई मायनों खास रही, इस चुनाव में कई दिग्गज नेताओं को हार का सामना करना पड़ा था. इस चुनाव को लेकर ईटीवी भारत से खास बातचीत में इतिहासकार जितेंद्र सिंह शेखावत ने बताया कि देश के आजाद होने के बाद 1949 में राजस्थान में हीरालाल शास्त्री को मनोनीत मुख्यमंत्री बनाया गया. उनके सानिध्य में सरकार चली और बाद में 1952 में भारत सरकार ने राजस्थान में पहले विधानसभा चुनाव की घोषणा की. पहला विधानसभा चुनाव 160 सीटों पर हुआ था, तब जोधपुर के पूर्व महाराजा हनवंत सिंह ने सारे विपक्षी दलों की कमान संभाली. वो खुद चुनाव में राजस्थान के कद्दावर नेता जय नारायण व्यास के सामने खड़े हुए. चुनाव के बाद हनवंत सिंह का प्लेन क्रैश में निधन हो गया. हालांकि, उनके निधन के बाद जब विधानसभा चुनाव का रिजल्ट आया तो उनकी जीत हुई, जबकि जय नारायण व्यास को हार की समाना करना पड़ा था.

कई कद्दावर नेताओं को मिली ती हार: पहला चुनाव ऐसा था जिसमें मुख्यमंत्री पद के दावेदार माणिक लाल वर्मा, गोकुल भाई भट्ट जैसे कांग्रेस के कद्दावर नेता भी हार गए. ऐसे में 3 मार्च 1952 को टीकाराम पालीवाल पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री बने. इसके बाद जब किशनगढ़ में उपचुनाव हुआ, उसमें जय नारायण व्यास जीते और प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. वो एक ऐसा दौर था जब सामंतवादी व्यवस्था जोरों पर थी. उस वक्त राजस्थान में राज परिवार और सामंतों से आने वाले 54 जनप्रतिनिधि जीत करके विधानसभा में पहुंचे थे.

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17 साल तक सत्ता में रहे मोहनलाल सुखाड़िया: इतिहासकार जितेंद्र सिंह शेखावत ने बताया कि 1954 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने राजस्थान के सभी रजवाड़ों को कांग्रेस में शामिल करने की मुहिम छेड़ी. जिसके तहत 22 लोग कांग्रेस में शामिल हुए, तब मोहनलाल सुखाड़िया और माणिक लाल वर्मा ने इसका विरोध किया. 1954 में मुख्यमंत्री पद पर दोबारा चुनाव हुआ और मोहनलाल सुखाड़िया राजस्थान के नए मुख्यमंत्री बन गए. उन्होंने 17 साल तक राजस्थान की सत्ता संभाली. उस दौर में पूरे राजस्थान में कांग्रेस का वर्चस्व रहा. हालांकि 1967 में एक दौर ऐसा भी आया, जिसमें स्वतंत्र पार्टी जनसंघ और राम राज्य परिषद तीनों ने मिलकर चुनाव लड़ा, तब केवल दो सीटों के अंतर से ये गठबंधन सरकार बनाने से चूक गया था. 7 मार्च 1967 को इसी मुद्दे को लेकर जयपुर में बहुत बड़ी हड़ताल हुई और बड़ी चौपड़ पर गोली कांड हुआ जिसमें 7 लोग मारे गए.

हीरालाल शास्त्री ने कही थी बड़ी बात: खास बातचीत में जितेंद्र सिंह ने बताया कि 1952 में हीरालाल शास्त्री जब मुख्यमंत्री पद से हटे तब उन्होंने अपनी डायरी में लिखा था कि, 'लोकतंत्र में ये जो चुनाव की व्यवस्था है, वो खर्चीली व्यवस्था है. आने वाले समय में जिस व्यक्ति के पास पैसा होगा, वही राजनीति में भाग ले सकेगा.' यही आज देखने को मिल रहा है. आज करोड़ों रुपए पानी की तरह राजनीति के मैदान में बहाए जा रहे हैं, जबकि एक जमाना वो था जब भैरो सिंह शेखावत को जनसंघ पार्टी ने चौमूं जाकर सभा करने के निर्देश दिए, तो उनके सामने समस्या ये थी कि वो नए-नए जयपुर में आए थे और चौमूं में किसी को जानते भी नहीं थे, लेकिन पार्टी के आदेशों की पालना में वो बस से चौमूं पहुंचे, और धर्मशाला में रुके. अगले दिन सुबह एक कार्यकर्ता के तौर पर बिना साफा पहने तांगे में बैठकर जनसभा के लिए प्रचार करते रहे और शाम को साफा पहन कर उसी जनसभा को संबोधित किया जिसमें सैकड़ों लोग मौजूद थे.

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पहले कार्यकर्ता ही सब करते थे: जितेंद्र सिंह शेखावत ने कहा कि आज स्थिति ये है कि कार्यकर्ताओं की जरूरत ही नहीं है. डोम और टेंट ठेकेदारी व्यवस्था से लग रहे हैं. झंडे-पोस्टर-बैनर यहां तक कि पर्चियां बांटने का काम भी एजेंसियां कर रही हैं. कार्यकर्ताओं के पास काम ही नहीं रहा, जबकि पहले कार्यकर्ता ऐसे होते थे कि सभी का पूरा इंजताम खुद ही किया करते थे, लेकिन आज जमाना बदल गया है. आज चुनाव हाईटेक हो गया है, जिसमें आम आदमी का चुनाव लड़ना मुश्किल हो गया है.

इतिहासकार जितेंद्र सिंह शेखावत से बातचीत

जयपुर. देश की आजादी के बाद राजस्थान विधानसभा का पहला चुनाव 1952 में हुआ था. चुनाव में लोकतंत्र की खूबसूरती देखने को मिली थी. इस चुनाव की कहानी कई मायनों खास रही, इस चुनाव में कई दिग्गज नेताओं को हार का सामना करना पड़ा था. इस चुनाव को लेकर ईटीवी भारत से खास बातचीत में इतिहासकार जितेंद्र सिंह शेखावत ने बताया कि देश के आजाद होने के बाद 1949 में राजस्थान में हीरालाल शास्त्री को मनोनीत मुख्यमंत्री बनाया गया. उनके सानिध्य में सरकार चली और बाद में 1952 में भारत सरकार ने राजस्थान में पहले विधानसभा चुनाव की घोषणा की. पहला विधानसभा चुनाव 160 सीटों पर हुआ था, तब जोधपुर के पूर्व महाराजा हनवंत सिंह ने सारे विपक्षी दलों की कमान संभाली. वो खुद चुनाव में राजस्थान के कद्दावर नेता जय नारायण व्यास के सामने खड़े हुए. चुनाव के बाद हनवंत सिंह का प्लेन क्रैश में निधन हो गया. हालांकि, उनके निधन के बाद जब विधानसभा चुनाव का रिजल्ट आया तो उनकी जीत हुई, जबकि जय नारायण व्यास को हार की समाना करना पड़ा था.

कई कद्दावर नेताओं को मिली ती हार: पहला चुनाव ऐसा था जिसमें मुख्यमंत्री पद के दावेदार माणिक लाल वर्मा, गोकुल भाई भट्ट जैसे कांग्रेस के कद्दावर नेता भी हार गए. ऐसे में 3 मार्च 1952 को टीकाराम पालीवाल पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री बने. इसके बाद जब किशनगढ़ में उपचुनाव हुआ, उसमें जय नारायण व्यास जीते और प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. वो एक ऐसा दौर था जब सामंतवादी व्यवस्था जोरों पर थी. उस वक्त राजस्थान में राज परिवार और सामंतों से आने वाले 54 जनप्रतिनिधि जीत करके विधानसभा में पहुंचे थे.

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17 साल तक सत्ता में रहे मोहनलाल सुखाड़िया: इतिहासकार जितेंद्र सिंह शेखावत ने बताया कि 1954 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने राजस्थान के सभी रजवाड़ों को कांग्रेस में शामिल करने की मुहिम छेड़ी. जिसके तहत 22 लोग कांग्रेस में शामिल हुए, तब मोहनलाल सुखाड़िया और माणिक लाल वर्मा ने इसका विरोध किया. 1954 में मुख्यमंत्री पद पर दोबारा चुनाव हुआ और मोहनलाल सुखाड़िया राजस्थान के नए मुख्यमंत्री बन गए. उन्होंने 17 साल तक राजस्थान की सत्ता संभाली. उस दौर में पूरे राजस्थान में कांग्रेस का वर्चस्व रहा. हालांकि 1967 में एक दौर ऐसा भी आया, जिसमें स्वतंत्र पार्टी जनसंघ और राम राज्य परिषद तीनों ने मिलकर चुनाव लड़ा, तब केवल दो सीटों के अंतर से ये गठबंधन सरकार बनाने से चूक गया था. 7 मार्च 1967 को इसी मुद्दे को लेकर जयपुर में बहुत बड़ी हड़ताल हुई और बड़ी चौपड़ पर गोली कांड हुआ जिसमें 7 लोग मारे गए.

हीरालाल शास्त्री ने कही थी बड़ी बात: खास बातचीत में जितेंद्र सिंह ने बताया कि 1952 में हीरालाल शास्त्री जब मुख्यमंत्री पद से हटे तब उन्होंने अपनी डायरी में लिखा था कि, 'लोकतंत्र में ये जो चुनाव की व्यवस्था है, वो खर्चीली व्यवस्था है. आने वाले समय में जिस व्यक्ति के पास पैसा होगा, वही राजनीति में भाग ले सकेगा.' यही आज देखने को मिल रहा है. आज करोड़ों रुपए पानी की तरह राजनीति के मैदान में बहाए जा रहे हैं, जबकि एक जमाना वो था जब भैरो सिंह शेखावत को जनसंघ पार्टी ने चौमूं जाकर सभा करने के निर्देश दिए, तो उनके सामने समस्या ये थी कि वो नए-नए जयपुर में आए थे और चौमूं में किसी को जानते भी नहीं थे, लेकिन पार्टी के आदेशों की पालना में वो बस से चौमूं पहुंचे, और धर्मशाला में रुके. अगले दिन सुबह एक कार्यकर्ता के तौर पर बिना साफा पहने तांगे में बैठकर जनसभा के लिए प्रचार करते रहे और शाम को साफा पहन कर उसी जनसभा को संबोधित किया जिसमें सैकड़ों लोग मौजूद थे.

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पहले कार्यकर्ता ही सब करते थे: जितेंद्र सिंह शेखावत ने कहा कि आज स्थिति ये है कि कार्यकर्ताओं की जरूरत ही नहीं है. डोम और टेंट ठेकेदारी व्यवस्था से लग रहे हैं. झंडे-पोस्टर-बैनर यहां तक कि पर्चियां बांटने का काम भी एजेंसियां कर रही हैं. कार्यकर्ताओं के पास काम ही नहीं रहा, जबकि पहले कार्यकर्ता ऐसे होते थे कि सभी का पूरा इंजताम खुद ही किया करते थे, लेकिन आज जमाना बदल गया है. आज चुनाव हाईटेक हो गया है, जिसमें आम आदमी का चुनाव लड़ना मुश्किल हो गया है.

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