जयपुर. राजधानी जयपुर में बंगालियों का आगमन 17वीं शताब्दी में हुआ था, जबकि जयपुर दुर्गाबाड़ी में 1956 से दुर्गा पूजा होती आ रही है. बंगाल से गंगा मैया की मिट्टी से दुर्गा माता सहित अन्य देवी देवताओं की प्रतिमा बनाई जाती है और उसके बाद छठ से महापर्व का दौर शुरू हो जाता है. बंगाल से आए कारीगर अमित पाल ने बताया कि पहले घास-खस के स्ट्रक्चर पर जयपुर की मिट्टी लगाई जाती है और फिर फिनिशिंग का काम बंगाल से गंगा मैया की मिट्टी से किया जाता है. दुर्गा पंडाल में मां दुर्गा के अलावा माता का शेर, राक्षस, दाएं तरफ लक्ष्मी और गणेश, जबकि बाएं तरफ सरस्वती और कार्तिकेय की प्रतिमा बनाकर विराजमान कराया जाता है. इसके साथ ही इन प्रतिमाओं के बैकग्राउंड में भगवान शिव का स्वरूप उकेरा जाता है.
क्या कहते हैं बंगाली कारीगर ? : वहीं, बंगाल से ही आए एक अन्य कारीगर गोविंद पाल ने बताया कि वो मूल रूप से बंगाल के कोलकाता से हैं. वहां भी वो आजीविका के लिए मूर्तियां बनाने का ही काम करते हैं और बीते 2 महीने से यहां दुर्गाबाड़ी में काम कर रहे हैं. हर वर्ष इसी तरह नवरात्र से दो महीने पहले यहां दुर्गा पंडाल के लिए मूर्तियां बनाने का काम शुरू करते हैं और अब इन प्रतिमाओं को पोशाक धारण करा कर फाइनल टच दिया जा रहा है.
बंगाल से कारीगर आकर टेंट लगाते हैं : दुर्गाबाड़ी में दुर्गा पूजा आयोजन समिति के अध्यक्ष डॉ. सुदीप्तो सेन ने बताया कि यहां दुर्गा पूजा के लिए बंगाल से ही कारीगर आकर टेंट लगाते हैं. मूर्तियों का निर्माण करते हैं. यहां तक कि प्रसाद भी वही तैयार करते हैं. जयपुर का जो प्रबुद्ध बंगाली समाज है, वो दुर्गाबाड़ी एसोसिएशन से जुड़ा हुआ है. यहां कोशिश यही रहती है कि बंगाल की संस्कृति को जयपुर में साकार किया जाए. उन्होंने बताया कि इन मूर्तियों की खास बात यही है कि ये आकार में जितनी बड़ी होती है, वजन में उतनी ही हल्की होती है. इन्हें बनाने का काम दो-तीन महीने पहले से ही शुरू हो जाता है. इसे बनाने वाले सभी कारीगर कोलकाता से आते हैं. उनके लिए सभी व्यवस्थाएं यहां उपलब्ध कराई जाती है, तब जाकर इन भव्य मूर्तियों का निर्माण हो पाता है.
बहरहाल, बंगाली समाज की पारंपरिक दुर्गा पूजा की शुरुआत शारदीय नवरात्रों में छठ से होगी. फिलहाल, दुर्गाबाड़ी में तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा है और परंपरा को साकार करने के लिए तमाम कारीगर जुटे हुए हैं.