जयपुर. राजधानी जयपुर के आराध्य गोविंद देव जी से लेकर गोपीनाथ जी और चैतन्य संप्रदाय के कई श्री कृष्ण विग्रहों को जयपुर लाकर स्थापित करने और भव्य मंदिर बनाने की कहानी आपने कई बार सुनी होगी. लेकिन आज हम आपको बताते हैं कि न सिर्फ श्री कृष्ण विग्रहों को लाने, बल्कि मथुरा-वृंदावन में मौजूद मंदिरों को संवारने, उन्हें जमीन देने का श्रेय भी जयपुर के राजाओं को जाता है.
इतिहासकार देवेंद्र कुमार भगत ने बताया कि जयपुर ही नहीं मथुरा वृंदावन के साथ कलेक्शन आमेर से रहा है. आमेर के राजा मिर्जा राजा मानसिंह नहीं 1590 में वृंदावन में अष्टकोणीय और आठ खंड का मंदिर बनवाया, जिसे बाद में भी जयपुर रियासत के राजाओं ने संवारा. यही वजह है कि से आज भी इसे जयपुर मंदिर के नाम से जाना जाता है. इस मंदिर के आखिरी खंड पर दीया रखा जाता था. पूरे उत्तर भारत में इस मंदिर की काफी मान्यता थी.
औरंगजेब के समय तक ये मंदिर टिका रहा, उसके बाद जब जयपुर बसा तो सवाई जयसिंह द्वितीय ने मथुरा-वृंदावन के विग्रह गोविंद देव जी, गोपीनाथ जी, मदन मोहन जी, राधा दामोदर, राधा विनोदीलाल और चैतन्य संप्रदाय के दूसरे विग्रह को औरंगजेब के आक्रमण से बचाने के लिए जयपुर में आश्रय दिया. अलग-अलग समय पर इन विग्रहों को लाया गया और भोग-राग की व्यवस्था जयपुर के महाराजा ने की.
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उन्होंने बताया कि इसके अलावा मथुरा वृंदावन में जय सिंह घेरा के नाम से एक जगह है, जहां धार्मिक रूप से सवाई जयसिंह के नाम से जमीन छोड़ी गई थी. इसके अलावा गौशालाओं में दान दिया गया, साथ ही वैष्णव धर्म का प्रचार भी किया. उस समय वैष्णव धर्म के बड़े आचार्य बलदेव विद्याभूषण को जयपुर में लाकर बसाया. सवाई जयसिंह के पुत्र सवाई ईश्वरी सिंह ने भी बांके बिहारी मंदिर के लिए कई एकड़ जमीन दी थी.
देवेंद्र कुमार भगत ने सिटी पैलेस में मौजूद रिकॉर्ड का हवाला देते हुए बताया कि वर्तमान में श्री कृष्ण जन्मभूमि की जो जमीन है, वो जयपुर महाराजाओं की जमीन है. वर्तमान जन्मभूमि मंदिर की जमीन को भी बचाए रखने में जयपुर दरबार का बड़ा योगदान रहा. किसी जमाने में वहां से यमुना बहा करती थी, वहीं जयपुर के महाराजा ने केशव देव कटरा के नाम से मन्दिर बनवाया और उसके लिए जागीरें छोड़ी. आज भी उसके अवशेष वहां देखने को मिल जाएंगे. इसके अलावा यमुना किनारे कई तरह के घाट बनवाए गए और यमुना के आसपास गोशालाएं बनवाई. धार्मिक रूप से कहा जा सकता है कि मथुरा-वृंदावन जयपुर के राजाओं इतना पैसा खर्च किया, ऐसा उस जमाने में कोई उदाहरण नहीं मिलता.
उन्होंने बताया कि 1679 ईस्वी में जब मथुरा वृंदावन में औरंगजेब के आक्रमण हुए तो वहां के गोस्वामियों में ये हलचल मच गई कि इन विग्रहों को कैसे बचाया जाए. उस दौर में कुछ विग्रह उदयपुर चले गए, जिसमें नाथद्वारा और द्वारकाधीश काफी प्रसिद्ध है. वहीं, चैतन्य संप्रदाय के विग्रह जयपुर में ले गए. पहले उनकी अस्थाई व्यवस्था की गई और बाद में स्थाई रूप से जयपुर में जागीरें दी गई. उनकी जागीरें न केवल जयपुर में इसके अलावा डीग, कामां, कुम्हेर, मथुरा, अलीगढ़, बुलंदशहर, खुर्जा, मैनपुरी तक जागीरें दी गई थी. जयपुर दरबार ने वहां जमीनें खरीद कर उनकी जागीरें बनाई.
भगत ने बताया कि जयपुर राज परिवार के राजाओं ने जो परंपरा कायम की, उसमें बाद वाले राजाओं ने भी उसमें कमी नहीं की. सवाई प्रताप सिंह के समय सबसे ज्यादा भगवान श्री कृष्ण के मंदिर बने. इसके अलावा 1922 तक माधो सिंह द्वितीय के समय भी नियमित रूप से मथुरा- वृंदावन पैसा जाया करता था. ये पैसा वहां की गौशालाओं, संगीत विद्यालयों, घाटों की सुरक्षा और भोग-राग की व्यवस्थाओं पर खर्च होता था. इसके अलावा जयपुर गजेटियर में सन 1931 का एक उदाहरण है, जिसमें स्पष्ट लिखा है कि मथुरा-वृंदावन में जो घाट खराब हुए हैं, उन घाटों का निर्माण दोबारा कराया जाए. ऐसे में कहा जा सकता है कि आजादी तक भी जयपुर राज परिवार की ओर से मथुरा-वृंदावन तक पैसा जाया करता था.