जयपुर. रेनवाल कस्बे में ढाई सौ साल के इतिहास में पहली बार रावण दहन के साथ दशहरा मेला नहीं होगा. कोरोना संक्रमण के चलते रावण दहन और मेला स्थगित कर दिए गए है. सुनने में अजीब लगता है, लेकिन ये सच है कि प्रदेश में संभवतया विजय दशमी के चार दिन पहले रेनवाल में रावण दहन की शुरुआत होती है.
रेनवाल में पूरे देश से अलग अनूठा दशहरा मनाया जाता है. यहां रावण दहन दशहरा को नहीं, बल्कि अलग-अलग तारीखों को मनाई जाती है. यहां इस क्षेत्र में होली के बाद नांदरी गांव में दशहरा मेला का आयोजन किया जाता है और रावण दहन होता है. विजयादशमी के दिन पूरे देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी रावण के पूतले का फूंक कर जीत का जश्न मनाया जाता है, लेकिन रेनवाल सहित आसपास के कई गांवों और कस्बों में दीपावली के बाद यहां तक की होली के बाद भी दशहरा मनाकर रावण दहन किया जाता रहा है. यह प्रक्रिया सैंकडाें वर्षों से चली आ रही है. जिसे बदलने की किसी ने आज तक कोशिश नहीं की.
अनूठा है रेनवाल का दशहरा...
नतीजा रेनवाल में रावण विजयादशमी को नहीं मरता, बल्कि होली के बाद तक जिंदा रहता है. कस्बे में दो दिन रावण दहन होता है. किशनगढ़ का नवरात्र की छठ को और रेनवाल खास में नवरात्री की अष्टमी को रावण दहन किया जाता रहा है. इस बार आयोजक मेला कमेटी सहित आमजन सैंकडों वर्ष से चली आ रही परंपरा टूटने से निराश है.
क्षेत्र में अलग-अलग दिन होता है रावण दहन
कस्बे में नवरात्रा के छठे दिन दशहरा मैदान पर आतिशबाजी के साथ रावण दहन होता है. जबकि दो दिन बाद अष्टमी को रेनवाल खास के झमावाली मैदान पर रावण दहन किया जाता है. हरसोली में विजय दशमी को रावण दहन किया जाता है. करणसर कस्बे में आसोज माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को रावण दहन होता है. बाघावास कस्बे में कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को रावण दहन होता है.
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बासडीखुर्द में कार्तिक माह में कृष्ण पक्ष की सप्तमी को बुराई के प्रतीक रावण के पुतले का दहन होता है. नांदरी गांव में सबसे आखिर में होली के भी बाद वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की दशमी को नृसिंह लीला और रावण दहन होता है.
दूर-दूर से प्रवासी होते हैं मेले में शामिल...
रेनवाल के दशहरा मेला में शामिल होने के लिए प्रवासी दूर-दराज से आते हैं. मेला के आयोजक बताते हैं कि लोग मुंबई, कलकता, असम, नेपाल और चेन्नई जैसे बड़े शहरो में रहते हैं, वे लोग परिवार सहित मेले में शामिल होते हैं. मेले को लेकर लोगों में खासा उत्साह रहता है.
हर साल यहां मेला बड़े लेवल पर आयोजित होता है. इसलिए दशहरा मेला कमेटी के कार्यकर्ता कई दिन पहले से ही तैयारी में जुट जाते हैं. मेले के दिन भगवान श्रीराम पालकी में बैठकर दशहरा मैदान पहुंचते हैं. उनके साथ मुखौटे लगाए पूरी वानर सेना नाचते हुए साथ चलती है. पालकी के साथ विद्वान पंडित मृदंग की थाप पर पयाना दंडक बाेलते हुए साथ चलते हैं. रास्ते में सुर्पनखा का नाक कटना, विभिषण का शरणगति का चित्रण किया जाता हैै. जिसके बाद दशहरा मैदान में करीब एक घंटे तक श्रीराम और रावण की सेना के बीच युद्ध चलता है.
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बाद में रावण वध के साथ ही आतिशबाजी के साथ पुतले का दहन होता है. जीत की खुशी में पालकी में रघुनाथजी की रास्ते में जगह-जगह लोग आरती उतारते हैं. रात्रि में जीत का जश्न पर अवतार लीलाओं का आयोजन होता है, जहां मुखौटे लगाए हुए राम की सेना के पात्र नगाड़ों की थाप पर नृत्य करते हैं.
गणेशजी रिद्धि-सिद्धि के साथ, रामदरबार, पंचमुखी हनुमान, आदि का वीर, मकरध्वज, केशर, मयंद, नल, नीर, सुग्रीव अंगद, नीलकंठ, बराह अवतार, नूसिंह अवतार, गरूड़ वाहन, शिव परिवार आदि झांकिया निकाली जाती है. मुखौटे नृत्य में दक्षिण भारतीय शैली का नजारा देखने को मिलता है. यह मेला सांप्रदायिक एकता को दर्शाता है. मुस्लिम लाेग भी इस आयोजन में बढ-चढ़कर भाग लेते हैं.