हनुमानगढ़. कभी पुलिस..कभी डाकू..कभी राम तो कभी रावण बनकर बहरूपिया यत्र-तत्र घूमता है और लोगों का मनोरंजन करता है. जैसे बहरूपिया रूप बदलता है उसी तरह वक्त का बदलना भी कुदरत का एक नियम है..यही वजह है कि तमाम रूप बदलने के बाद भी ये बहरूपिये अपनी तकदीर नहीं बदल पाए हैं. हनुमानगढ़ के अंचल क्षेत्रों में आज भी कहीं-कहीं ये बहरूपिये बच्चों का मन बहलाते नजर आ जाते हैं. लेकिन यह सच है कि इस कला का प्रदर्शन कर अब इन्हें दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती, इसलिए साथ ही कोई दूसरा रोजगार भी करना पड़ता है.
तब मनोरंजन का मुख्य साधन था बहरूपिया...
एक समय था जब मनोरंजन के साधन सीमित थे. तब न तो मोबाइल था, न टेलीविजन, सिनेमा भी बड़े शहरों में ही था. ऐसे में गांव-कस्बों में बहरूपिया ही खेल-तमाशा दिखाकर लोगों का मनोरंजन किया करते थे. आज की पढ़ी लिखी पीढ़ी भले इनकी कद्र न करे लेकिन इनकी उपस्थित किसी जमाने में आम जनमानस से लेकर राज दरबारों तक होती थी. इनके कद्रदानों की कमी नही थी. बहरूपिया तीज-त्योहार पर ही नहीं, बल्कि लोगों की डिमांड पर भी शादी-ब्याह आदि खुशी के मौकों पर अपनी कला का प्रदर्शन करते थे. फिर टीवी और सिनेमा का दौर शुरू हुआ और अब इंटरनेट का डिजिटल युग आ गया. जिसका सबसे अधिक असर बहरूपियों पर पड़ा है.
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अब दो वक्त की रोटी का इंतजाम मुश्किल...
इस कला की लोकप्रियता अब बिल्कुल कम हो गई है. इससे जुड़े परिवारों ने दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने के लिए अब ढोल-ताशे बजाने और दूसरे काम शुरू कर दिए हैं. ब्रिटिश राज में अंग्रेजों ने इन्हें आक्रमक और जासूस समझा, लिहाजा इन पर काफी कड़े प्रतिबंध लागू किए गए थे. आज भी इनको पुलिस से अनुमति लेकर ही इलाके में कला का प्रदर्शन करना पड़ता है. कभी राज दरबारों में पैठ रखने और राजाओं के लिए मनोरंजन और जासूसी करने वाले ये बहरूपिये आज फाकाकशी की जिंदगी गुजार रहे हैं. दो जून की रोटी के लिए जदोजहद करते नजर आ रहे हैं.
प्राचीन ग्रंथों में भी बहरूपियों का जिक्र...
बहरूपिया लोक संस्कृति कला हमारे भारत की पारंपरिक विरासत की देन है. कभी यह कला एक बड़े विस्तारित पैमाने पर हुआ करती थी. लेकिन अब इसका दायरा सिमट सा गया है. इतना ही नही इस कला का उल्लेख हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है. अपने भक्तों का रक्षण और उद्धार करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने भी कई रूप धरे थे. राजस्थान बहरूपियों का गढ़ माना था. राजस्थान में वर्ष 2019 तक करीब 15 हजार बहरूपिये थे. देश में यह संख्या लगभग 2 लाख थी.
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राजशाही के दौर में उमरयार कहलाते थे बहरूपिये...
हालांकि राजशाही के दौर में बहरूपियों का बहुत सम्मान था. इन्हें उमरयार भी कहा जाता था. ये लोग तब जासूसी का काम भी करते थे. जनजीवन को आकर्षित करने वाले कुछ मुस्लिम युवा कलाकार जो कभी राम, तो कभी रावण बनकर हिन्दू-मुस्लिम एकता का संदेश देते थे. वर्तमान में खानदानी बहुरूपिये अपनी इसी कला की विरासत को कंधों पर उठाये यहां से वहां भटक रहे हैं. हनुमानगढ़ के कई इलाकों में प्रतिदिन विविध रूपों में सामने आने वाले इन कलाकारों की कला और अभिनय दक्षता के साथ-साथ उनकी संवाद क्षमताओं के लोग कायल तो होते दिखाई तो दे रहे हैं. किन्तु खासो-आम की यह कद्रदानी केवल प्रशंसा के दो शब्दों तक ही सीमित बनी हुई है. आर्थिक मदद नाममात्र की रह गई है और अब हालात ये हैं कि बहरूपिया का काम करने वाले इक्का-दुक्का परिवार ही रह गए हैं.
पिता बहरूपिया थे, अब बच्चों को नहीं बनाना बहरूपिया...
पहले से ही हाशिये पर आ चुकी इस कला और कलाकारों की कोरोना वैश्विक महामारी ने कमर ही तोड़ दी है. जिनमें हनुमानगढ के सुरेशिया इलाके के कालूराम, भादू बहरूपिया और गांव पक्कासारणा के कृष्ण का जीवन प्रभावित हुआ है. कृष्ण लुप्तप्रायः हो चुकी बहरूपिया कला को अपने स्वांग से अभी भी जिंदा रखे हुए हैं. बहरूपियाें की इसी पीड़ा को हमने करीब से देखा, समझा और जानने की कोशिश की. हनुमानगढ जक्शन के सुरेशिया इलाके के ये बहरूपिया बताते हैं कि उनके पड़दादा, नाना बहरूपिये का ही कार्य करते थे. तब खुश होकर लोग आर्थिक मदद के साथ-साथ सराहना भी करते थे. जिससे उनके परिवारो का जीवनयापन अच्छे से होता था. लेकिन अब परिस्थियां बदल गई हैं.
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पुश्तैनी काम छोड़कर दूसरा रोजगार करने को मजबूर...
अब कला के वो कद्रदान नही रहे. कारोना के बाद नामात्र का काम रह गया है. अब पुशतैनी काम छोड़कर कारोना काल में दूसरा काम क्या करें, यह भी इन बहरूपियों के लिए बड़ा सवाल है. एक बहरूपिये ने कहा कि उसके पुरखे बहरूपिये की कला का प्रदर्शन करते थे, इसलिए वे भी बहरूपिया बनकर लोगों का मनोरंजन करते हैं, लेकिन अब वे अपने बच्चों को बहरूपिया नहीं बनाना चाहते. क्योंकि इस कला के सहारे जिंदगी बसर करना अब मुमकिन नहीं है.
सरकार से संरक्षण की दरकार...
आधुनिकता की दौड़ में आजकल लोग खुशी के मौकों पर मोटी रकम देकर नाचने-गाने वाली डीजे पार्टियों को बुलाते हैं. हजारों-लाखों रुपए फूंक देते हैं. ऐसे कार्यक्रमों में बहरूपियों को बुलाकर स्वस्थ्य मनोरंजन किया जा सकता है. बहरूपिया छोटी-छोटी बातों को अपनी भाषा में वाकपटुता से पिरोकर हंसाने का माद्दा रखते हैं. कुछ बहरूपिये आज भी होली-दीपावली आदि तीज-त्योहारों पर लोगों का मनोरंजन करने के लिए सड़काें पर निकलते हैं, लेकिन सरकार का संरक्षण और लोगों से आर्थिक समर्थन नहीं मिलने के कारण ये बहरूपिया हताश और निराश हैं. शहर के बुद्धिजीवी लोग भी हाशिए पर आती कला के प्रति चिंता जता रहे हैं. साहित्यकार डॉ. संतोष राजपुरोहित कहते हैं कि बहरूपिया, कठपुतली आदि कलाओं को बचाने के लिए सरकार और आमजन का समर्थन जरुरी है.
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बहरूपियों पर बनी है फिल्म...
सरकार से सहयोग से कुछ फिल्मकारों ने इस लोककला को बचाने और कलाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए फिल्में बनाई हैं. झारखंड से ताल्लुक रखने वाले फिल्मकार श्रीराम डाल्टन ने 18 मिनट की शॉर्ट फिल्म "द लॉस्ट बहरूपिया" बनाई. जिसे 61वें राष्ट्रीय फ़िल्म अवार्ड में गैर फीचर फिल्मों की कला-संस्कृति कैटेगिरी में रजत कमल अवार्ड से भी नवाजा गया.
बता दें कि राजस्थान सरकार ने कोरोना संक्रमण के चलते लगे लॉकडाउन में सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोक कलाकारों को राहत देने के लिए मुख्यमंत्री लोक कलाकार प्रोत्साहन के लिए 11 अप्रैल से शुरू की गई योजना में बड़ी संख्या में लोक कलाकारों ने अपना वीडियो भेजा है. लेकिन अब तक लगभग 100 कलाकारों को ही 2,500 रुपये की आर्थिक सहायता पहुंचाई गई है. वहीं हनुमानगढ में योजना का प्रचार-प्रसार नहीं होने और जागरूकता के अभाव में इस योजना के सबन्ध में बहरूपियों और लोक कलाकारों को जानकारी तक नहीं है. आज जरूरत है कि सरकार के साथ साथ आमजन भी प्राचीन परम्पराओं, लुप्त होती कलाओं को प्रोत्साहित करे. इन्हें सहेजकर संजोकर रखे ताकि आधुनिकता की दौड़ में संस्कृति को पीछे छोड़कर आगे निकलने वाली हमारी पीढ़ियों को प्राचीन कलाओं और संस्कृति से रुबरु करवाया जा सके.