डूंगरपुर. संत मावजी महाराज वागड़ ही नहीं देश और दुनिया के लिए महान संत थे. मावजी महाराज ने करीब 300 साल पहले माही और सोम नदी के संगम पर बेणेश्वर में तपस्या की थी. उन्होंने जनजाति समाज में सामाजिक चेतना जागृत करने के लिए भी प्रयास किए गए थे. उनकी याद में हर साल बेणेश्वर धाम पर माघ पूर्णिमा पर सबसे बड़ा आदिवासी मेला भरता है.
मेले में वागड़ ही नहीं राजस्थान सहित मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र से बड़ी संख्या में भक्त हर साल यहां आते हैं और धाम पर स्थित चारो मंदिरों में दर्शन करते हैं. धाम पर प्रमुख 2 मंदिर हैं, जिसमें शिव मंदिर और हरि मंदिर है. वहीं ब्रम्हा मंदिर और वाल्मिकी मंदिर से भी लोगों की आस्था जुड़ी हुई है.
विक्रम संवत 1771 में हुआ था संत मावजी महाराज का जन्म...
संत मावजी महाराज का विक्रम संवत 1771 को माघ शुक्ल पंचमी (बसंत पंचमी) बुधवार को साबला में दालम ऋषि के घर माता केसर बाई की कोख से जन्म हुआ था. इसके बाद कठोर तपस्या उपरांत संवत 1784 में माघ शुक्ल एकादशी को लीलावतार के रूप में संसार के सामने आए. मावजी ने साम्राज्यवाद के अंत, प्रजातंत्र की स्थापना, अछूतोद्धार, पाखंड और कलियुग के प्रभावों में वृद्धि, परिवेश, सामाजिक और सांसारिक परिवर्तनों पर स्पष्ट भविष्यवाणियां की हैं.
आज सार्थक साबित हो रही, मावजी महाराज की भविष्यवाणियां...
ऐसी मान्यता है कि संत मावजी महाराज की ओर से की गई 300 साल पहले जो भविष्यवाणियां की गईं थीं, वो आज आधुनिक युग में सार्थक साबित हो रही हैं. बेणेश्वर धाम के इतिहास के जानकार वीरेंद्र सिंह बेडसा ने कहा कि अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर ही मावजी महाराज ने कहा था कि 'गऊं चोखा गणमा मले महाराज' अर्थात गेहूं और चावल राशन से मिलेंगे. मावजी महाराज ने चौपड़े लिखे हैं. महाराज के पांच चौपड़ों में से 4 इस समय सुरक्षित हैं...
- मेघसागर- हरि मंदिर साबला में है. इसमें गीता ज्ञान उपदेश, भौगोलिक परिवर्तनों की भविष्यवाणियां हैं
- साम सागर- शेषपुर में है. इसमें शेषपुर और धोलागढ़ के पवित्र पहाड़ का वर्णन तथा दिव्य वाणियां हैं
- प्रेमसागर- डूंगरपुर जिले के ही पुंजपुर में है. इसमें धर्मोपदेश, भूगोल, इतिहास तथा भावी घटनाओं की प्रतीकात्मक जानकारी है
- रतनसागर- बांसवाड़ा शहर के त्रिपोलिया रोड स्थित विश्वकर्मा मंदिर में सुरक्षित है. इसमें रंगीन चित्र, रासलीला, कृष्णलीलाओं आदि का मनोहारी वर्णन सजीव हो उठा है
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वहीं अनंत सागर नामक पांचवां चौपड़ा मराठा आमंत्रण के समय बाजीराव पेशवा द्वारा ले जाया गया, जिसे बाद में अंग्रेज ले गए. बताया जाता है कि इस समय यह लंदन के किसी म्यूजियम में सुरक्षित है. इसमें ज्ञान-विज्ञान की जानकारियां समाहित हैं.
जानिये बेणेश्वर धाम से जुड़ी आस्था...
माघ पूर्णिमा पर हर साल बड़ी संख्या में लोग बेणेश्वर धाम पर पहुंचते हैं. विक्रम संवत 1605-1637 के बीच महाराज आसकरण का शासन रहा. इसी दौरान सोम और माही नदी के इस टापू पर शिव मंदिर बनवाया गया था. उनके समय मे ही यहां एकत्रित होने वाले जनसमुदाय को व्यवस्थित कर आर्थिक दिशा देते हुए एक मेला आयोजन शुरू किया. इसका पूरा केंद्र आबू दर्रा के साथ-साथ यहां बना शिव मंदिर रहा.
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यहां हर साल नियमित रूप से लगने वाला यह मेला धीरे-धीरे शिव भक्तों का मेला बन गया और आर्थिक गतिविधियां बढ़ने लगी. इसके बाद महाराज शिव सिंह के समय में ही संत मावजी महाराज हुए थे. उन्होंने बेणेश्वर धाम पर साधना की थी. ऐसी मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण का भ्रज में गोपियों के साथ जब रास खंडित हो गया था, तब श्रीकृष्ण ने वचन दिया था कि इस अधूरे रास को पूरा करने के लिए भी कलयुग में अवतार लेंगे.
संत मावजी महाराज कलयुग में श्रीकृष्ण के अवतार हैं और अपनी अधूरी रासलीला को पूरा करने के लिए ही बेणेश्वरधाम पर रास रचा रहे हैं. माघ पूर्णिमा की रात में होने वाली रासलीला मेले में आने वालों को उनके वृंदावन में होने के आनंद की अनुभूति कराते हैं. एक मान्यता यह भी है कि संवत 1799 में रास की याद में वक्त सम्मेलन किया गया था, जो मेले के रूप में आज तक जारी है.
संगम में प्रवाहित करते हैं अस्थियां...
मान्यता है कि बेणेश्वर धाम पर प्रवाहित होने वाली सोम और माही नदी गंगा समान पवित्र है. ऐसे में जिन परिवारों में किसी की मौत हो जाती है, वे इसी संगम में अस्थियों का विसर्जन कर पवित्र आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं. इसके बाद परिवार के साथ आने वाले लोग धाम पर ही लड्डू और बाटी का प्रसाद बनाकर सामूहिक रूप से ग्रहण भी करते हैं.