केशवरायपाटन (बूंदी). चम्बल नदी के तट पर स्थित केशवरायपाटन भगवान केशवराय जी महाराज और भगवान विष्णु के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है. राजस्थान के प्रमुख शहर कोटा से केशवरायपाटन की दूरी लगभग 20 किलोमीटर है. कार्तिक पूर्णिमा पर केशवरायपाटन में विशाल मेला लगता है. इस अवसर पर देश के कोने-कोने से आने वाले हजारों श्रद्धालु श्री केशवराय जी, चारभुजा जी और जम्बुकेश्वर महादेव के दर्शन और पूजा अर्चना करते हैं. इस वर्ष कोरोना संक्रमण के चलते उपखण्ड प्रशासन और देवस्थान विभाग ने नगर पालिका की ओर से आयोजित होने वाला पन्द्रह दिवसीय कार्तिक मेला निरस्त कर दिया है. वहीं पूर्णिमा पर महास्नान के लिए पहुंचने वाले लाखों श्रद्धालुओं को कोरोना गाइडलाइन और सोशल डिस्टेंसिग के जरिए भगवान केशव के दर्शन करवाए जाएंगे.
केशव मंदिर का इतिहास
केशवरायपाटन के इतिहास पर नजर डाले, तो पता चलता है कि किसी समय यह बड़ा भव्य नगर रहा होगा. क्योंकि वायु पुराण के अनुसार चौरासी कोस के जम्बू भाग के बीच इसका स्थान-विस्तार पांच कोस माना गया है. परशुराम जमदग्नि संवाद के बीच इस प्रसंग पर पर्याप्त चर्चा हुई है. हरिवंश पुराण में भी जम्बुकाराय और केशवरायपाटन पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है. केशवरायपाटन और उसके आसपास कितने ही देवालय खंडहर है और कितने ही समय के साथ भूमि में धंस गए हैं. साथ ही कितने वर्तमान विकास की भेंट चढ़ गए हैं.
केशवरायपाटन मंदिर के दृश्य
केशवरायपाटन की परिधि में मुख्य देवालयों में श्री केशवरायपाटन का मंदिर प्रमुख दर्शनीय स्थल है. चैत्र की पूर्णिमा पर इसका विशाल प्रांगण श्रृद्धालुओं से भर जाता है. केशवरायपाटन मंदिर में राव राजा रघुवीर सिंह (बूंदी) का विक्रमी सन 1959 में लगवाया गया एक शिलालेख है, जिसके अनुसार केशवरायपाटन मंदिर का निर्माण बूंदी के राव राजा शत्रुशल्य ने 1698 विक्रमी में करवाकर किसी जीर्ण मंदिर से उठाई गई दो प्रतिमाएं इसमें स्थापित की थी. एक प्रतिमा श्री केशवरायजी की श्वेत संगमरमर की है, जो मुख्य मंदिर में है और दूसरी श्री चारभुजा जी की कृष्ण मूर्ति है, जो परिक्रमा के मंदिर में है.
केशवरायपाटन मंदिर विष्णु तीर्थ से ठीक ऊपर नदी तट से दो सौ फीट की ऊंचाई पर है. इसमें अंदर बाहर सर्वत्र विविध प्रकार की पशु आकृतियां, मनुष्य आकृतियां, नृत्य मुद्राएं और भगवान श्री कृष्ण संबंधी भागवत कथाएं मूर्ति रूप में उत्कीर्ण है. मंदिर के अंदर की प्रतिमाओं पर चटकीले रंग है, जबकि बाहरी दीवारों की प्रतिमाएं बार बार चूना पोते जाने के कारण दब गई है. मंदिर के बीचों बीच बने गरूड़ ध्वज से संगमरमर की गरूड मूर्ति हाथ जोडें हुए श्री केशवरायजी को देख रही है.
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इसी प्रकार पाटन के दक्षिणी छोर पर भगवान सुव्रतनाथ का जैन मंदिर स्थित है. इसमें जैन तीर्थंकरों की विविध रंग के पत्थरों की कलात्मक प्रतिमाएं है. मुख्य छतरी के नीचे एक गुहा है जिसे 'भैं देहड़ा' कहा जाता है. इसके अलावा केशवरायपाटन के दर्शनीय स्थलों में मैत्री के हनुमान का मंदिर नगर के उत्तर पूर्व में लगभग छः फर्लांग की दूरी पर स्थित है. मंदिर अति प्राचीन शिवालय कहा जाता है. इसमें महावीर जी की स्थापना होल्कर द्वारा की गई बताते है. पुराण के अनुसार मैत्रावरुण ऋषि ने इस स्थान पर तप किया था. फिर ब्रह्मा जी ने यहां श्वेत वाहन पर आरूढ हो शुभ्ररूप से प्रकट हुए और यज्ञ पूरा होने पर यज्ञकुंड को जल पूर्ण कर शिवलिंग रूप से अवस्थित हुए.
बराह तीर्थ पाटन से लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. यह बूंदी रोड से लगभग पचास गज दूर स्थित है. यह मंदिर भी बहुत पुराना है. धरती पर बहुत पुराने समय का फर्श है. गुम्बद पर सिंह प्रतिमाएं बनी है. मंदिर में वराह भगवान की मूर्ति बड़ी सुडौलता और सावधानी से गढ़ी गई है, जो लगभग साढ़े चार फीट की है. यहां एक और दर्शनीय स्थान है, जो जल के जम्बूजी नदी के मध्य होने से यह स्थान वर्षा काल में जलमग्न हो जाता है. यह ठीक उस स्थल पर जहां नदी पूर्व की ओर मुड़ती है. इसे श्वेत वाहन सुखेश्वर तीर्थ भी कहा जाता है. यहां दो शिवलिंग और नंदी की प्रतिमा है. अवंतिका पुरी के सुदेव ब्राह्मण की अंतर्कथा इस के साथ जुडी हुई है.
केशवरायपाटन का महत्व
हरिवंश पुराण तथा वायु पुराण इन प्रतिमाओं की कीर्ति कथा और इस समुचे प्रदेश के आख्यानों से भरे हुए हैं. कहते है कि परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित कर मानविक शांति के लिए इसी स्थान पर तप किया था. इसके अलावा भगवान विष्णु कल्पवृक्ष लाते समय यहां विश्राम के लिए रूके थे. पांडव भी युधिष्ठिर के साथ जंबुकाराय की यात्रा के समय यहां पधारे थे. श्री केशवरायजी और चारभुजा की मूर्तियों के संबंध में एक पौराणिक आख्यान यह भी है कि राजा रंतिदेव के यज्ञ और तप से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें वर दिया कि 'राजन जम्बुकाराय में पाटन नामक पुण्य क्षेत्र में जहां तुम्हारे यज्ञ से उत्पन्न चर्मरावती नामक गंगा के किनारे जम्बू भार्गेश्वर शिव विराजमान है. वहीं जाकर तुम मेरी आराधना करो, तुम्हारे ध्यानानुसार वहां मेरे दो सुंदर विग्रह श्याम और शुभ्र इस नदी से प्रकट होगें. श्याम विग्रह में तुम्हारी भी प्रतिमाएं होगीं उनकी सेवा कर अंत में तुम मेरी उसी विग्रह में समाविष्ट हो जाओगे.'
राजा रंतिदेव यह सुनकर कार्तिक कृष्ण अष्टमी को सपरिवार पाटन आएं और नवमी को उन्होंने ऋषि मुनियों सहित परिक्रमा की और यज्ञ किया. फिर जल में फूलों की डालियां भगवान के आदेशानुसार बहाई. वे जहां एकत्र हुई, वहां भगवान के दो विग्रह एक श्याम वर्तमान चारभुजा जी और दूसरा शुभ्र वर्तमान केशवरायजी प्राप्त हुए, जिन्हें राजा ने कार्तिक शुक्ला 11 शुक्रवार को पधराया तथा पूर्णिमा तक विशेष महोत्सव किया. विक्रमी सन 1698 में जब शत्रुशल्य जी ने इन प्रतिमाओं को केशवरायजी का वर्तमान मंदिर बनाकर उसमें स्थापित किया और इनकी सेवा पूजा के लिए ब्रजनाथ जी की पद्धति का वल्लभ संप्रदाय वाला विधान घोषित किया और अब तक इनकी पूजा उसी ब्रजनाथ जी के विधान से चली आ रही है.
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इसके अंतर्गत मंगल आरती, स्नान, श्रृंगार, कीर्तन, कथा पुराण, श्रवण, श्रृंगार विसर्जन, राजभोग, शयन, उत्थापन, महाभोग, श्रृंगार धारण, सांयकाल आरती, भजन कीर्तन, मृगादिगान, व्यालू भोग, नर्तकियों का गान और शयन के कार्यक्रम दिनचर्या के रूप में होते हैं. यह क्रम प्रातःकाल तीन बजे से रात्रि नौ बजे तक चलता रहता है. इतिहास के अनुसार हम्मीर रणथंभौर वाले ने श्री जम्बुकेश्वर का रत्नों से पूजन कर राज महिषी सहित तुलादान किया था. यह राज्य बूंदी के अंतर्गत आता है, लेकिन बूंदी के राव राजा उम्मेद सिंह ने सन 1801 विक्रमी में केशवरायपाटन और बरौधन के परगने ब्रजनाथ जी को भेंट कर दिए. बाद में यह स्थान मराठों के अधिकार में चला गया, जिसमें मालगुजारी के दस में से छः हिस्से सिन्धिया लेता था और चार हिस्से होकर लेता था. इस समय यह बूंदी जिले में है.