बांसवाड़ा. त्रिपुर सुंदरी यह नाम आते ही हमारे जेहन में सिंह वाहिनी मां भगवती की अष्टादश भुजाओं वाली देवी मां की तस्वीर उभरकर सामने आती है. मान्यता है कि देवी मां की सिंह, मयूर और कमलासीन होने और दिन में तीन रूप धारण करने से देश और दुनिया में इनकी ख्याति त्रिपुर सुंदरी के नाम से फैली है. माना जाता है कि यहां जिसने भी हाजिरी लगाई उसे माता ने तुरंत फल दिया.
बांसवाड़ा जिला मुख्यालय से करीब 20 किलोमीटर दूर तलवाड़ा के निकट मां त्रिपुर सुंदरी का सुंदर और भव्य मंदिर है. इसे आरंभ में तुरंत फल देने वाली माता के नाम से तरताई माता के तौर पर भी जाना जाता है. राजस्थान की तीन बार कमान संभालने वाले स्वर्गीय हरिदेव जोशी मां के भक्त थे और जयपुर से बांसवाड़ा आना हो या फिर बांसवाड़ा से जयपुर जाना, मां के दर्शन करना नहीं भूलते थे. जैसे-जैसे मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ तो माता की ख्याति प्रदेश के साथ देश में भी फैलने लगी.
ऐसी है मां की चमत्कारी मूर्ति
प्रति अगाध मां के दर्शन के बाद ही मूर्ति की विशेषता पर जाए तो 5 फीट ऊंची विशाल मूर्ति में मां के अष्टादश भुजाओं में विविध रूप नजर आते हैं. पार्श्व में नवदुर्गा की प्रति कृतियां अंकित है. मां के पावन चरणों में सर्वार्थ सिद्धि दायक श्रीयंत्र प्रतिष्ठित है. देवी मां के सिंह मयूर और कमलासीन होने के साथ-साथ प्रात काल में कुमारी का, मध्यकाल में सुंदरी और संध्याकाल में बुढ़िया रूप में दर्शन देने के कारण इन्हें त्रिपुर सुंदरी भी कहा जाता है. मूर्ति के सौंदर्य का ऐसा आकर्षण है कि दर्शनार्थी मंत्रमुग्ध होकर मां का आशीर्वाद पाते हैं.
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कनिष्क काल में हुई थी स्थापना
मंदिर निर्माण के काल का ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है किंतु विक्रम संवत 1540 का एक शिलालेख इस क्षेत्र में मिला है. उसे अनुमान लगाया जाता है कि यह मंदिर सम्राट कनिष्क काल से पूर्व का है और यहां आस-पास गढ़ पोली नामक महानगर था. इस क्षेत्र में सीतापुरी शिवपुरी और विष्णुपुरी नाम के तीन दुर्ग थे. शिलालेख में त्रिउरारि शब्द का उल्लेख है. संभवत इसी आधार पर इसे त्रिपुरा कहा जाने लगा.
रियासत काल में बांसवाड़ा डूंगरपुर , गुजरात, मालवा प्रदेश और मारवाड़ के राजा महाराजा भी मां के उपासक रहे हैं. इतिहासकारों की माने तो मुगल शासकों ने मंदिर पर आक्रमण किया था, लेकिन भक्तों ने मां की मूर्ति को उनके आक्रमण से बचा लिया था. मान्यता है कि संवत 1157 में इस क्षेत्र के चांदा भाई उर्फ पाता भाई लोहार ने पहली बार त्रिपुरा सुंदरी के मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था. साल 1977 में प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी की प्रेरणा से दानदाताओं के सहयोग से इस मंदिर में विकास कार्य हाथ में लिए गए. साल 2011 में पुराने मंदिर में शिखर स्थापना और मंदिर गर्भगृह का शिलान्यास हुआ.
माना जाता है कि हिंदू समाज का भारत में यह पहला मंदिर है जिसमें प्रत्येक शिला का भावनात्मक पूजन कर प्राण प्रतिष्ठा की गई है. पुजारी निकुंज मोहन पंड्या का कहना है कि तुरंत फल देने के कारण इन्हें तरताई माता के नाम से भी जाना जाता है. मंदिर की तमाम व्यवस्थाएं मंदिर श्री त्रिपुरा सुंदरी व्यवस्थापक ट्रस्ट मंडल पंचाल समाज 14 चौखरा के जिम्मे है. अध्यक्ष दिनेश पंचाल के अनुसार देश में यह पहला हिंदू मंदिर है जिसकी प्रत्येक शीला की हवन पूजन के साथ प्राण प्रतिष्ठा की गई है.