अजमेर. विश्व विख्यात सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह से कव्वाली का गहरा नाता रहा है. ख्वाजा गरीब नवाज को कव्वाली बेहद पसंद थी. यही वजह है कि दरगाह में सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी शाही कव्वाल कव्वालियां पेश करते आ रहे हैं. खासकर उर्स के मौके पर दीवान की सदारत में होने वाली महफिल में परंपरागत कव्वालियां होती हैं. वहीं, दरगाह में सूफी कलाम कव्वाली के रूप में गाए जाते हैं. देश में हर कव्वाल की हसरत रहती है कि वह जिंदगी में एक बार ख्वाजा की दरगाह में उसे कव्वाली पेश करने का मौका मिले. उर्स के मौके पर कई कव्वाल दरगाह आते हैं और कव्वालियां पेश कर अपनी अकीदत का नजराना पेश करते हैं.
ख्वाजा गरीब नवाज का 812वां उर्स मनाया जा रहा है. दरगाह में अकीदतमंदों का आना-जाना लगा है. दिनभर चादर और फूल पेश करने का सिलसिला चलता रहता है, लेकिन दरगाह परिसर में माहौल ही अलग होता है. यहां हर कोई ईबादत में खोया होता है. यह इबादत कव्वाली के माध्यम से होती है. जी हां, ख्वाजा की शान में रात को कव्वालियों का दौर यहां चलता रहता है. ख्वाजा की दरगाह में कव्वालियों का दौर नया नही हैं, बल्कि कव्वालियों का तालुक ख्वाजा साहब से ही है. बताया जाता है कि कव्वालियों का सिलसिला ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह से शुरू हुआ था.
सूफी मत के अनुसार अपने मौला की तारीफ में पढ़े गए कलाम ने धीरे-धीरे कव्वाली की शक्ल ले ली. वक्त के साथ इसमें ढोलक, हारमोनियम और अन्य वाद्य यंत्र भी जुड़ते चले गए. खुद्दाम ए ख्वाजा हाजी पीर सैयद फकर काजमी बताते हैं कि ख्वाजा गरीब नवाज अजमेर आए, तब राजस्थान में हर खुशी के मौके पर गीत, नृत्य, संगीत होता था. उस वक्त मौला की तारीफ में पढ़े जाने वाले कलाम को भी वाद्य यंत्रों की धुनों के साथ गाया जाने लगा. तब कव्वालियों का जन्म हुआ और कव्वालियों का सिलसिला आगे बढ़ता गया.
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तीन तरह से गाई जाती है कव्वाली : काजमी बताते हैं कि कव्वाली को तीन तरह से गाया जाता है. पहली हमद, जिसमें खुदा की तारीफ होती है. दूसरा नात, जिसमें मोहम्मद रसूल अल्लाह की तारीफ होती है और तीसरा कौल जिसमें मौला कायनात की तारीफ होती है. उन्होंने बताया कि कव्वाली को गाने वाला और सुनने वाले का सीधा कनेक्शन पाक परवरदिगार से जुड़ने का है. कव्वाली ईबादत का जरिया है जो खुदा से जोड़ता है. काजमी बताते हैं कि सूफी और कव्वाली का चोली-दामन का साथ है. उन्होंने बताया कि सूफियत में इंसान खुदा की राह पर चलकर अपनी रूह की सफाई करना शुरू कर देता है. लोग कहते हैं कि कव्वाली सुनाओ जबकि लोगों को यह नहीं मालूम की कव्वाली नहीं कलाम सुनाने के लिए कहा जाता है.
महफिल में होती है परंपरागत कव्वालियां : दरगाह में आम दिनों में भी कव्वाली होती है, लेकिन उर्स के दौरान महफिल खाने में होने वाली कव्वालियां परंपरागत होती हैं. यह वो कव्वालियां हैं जो सदियों से दरगाह में गई जाती रही हैं. इसमें रंग और बादवा पढ़ा जाता है. कव्वाली उर्दू, हिंदी और फारसी में भी होती है. यहां आम दिनों में गाई जाने वाली कव्वालियां नही गई जातीं. इसमें अदब का विशेष ख्याल रखा जाता है. शाही कव्वाल ही यहां कव्वाली पेश करते हैं. दरगाह में शाही कव्वाल अख्तर बताते हैं कि ख्वाजा गरीब नवाज के समय से उनके पूर्वज कलाम पढ़ते आए हैं. पीढ़ी दर पीढ़ी यह सिलसिला जारी है.
बादशाह अकबर ने बाकायदा दरगाह में कव्वाली गाने का खुतबा भी लिखकर दिया है. उस परंपरा को आज भी निभा रहे हैं. उन्होंने कहा कि कई बाद के कव्वाल आकर अपने को शाही कव्वाल बताते हैं, वह गलत है. यह सम्मान केवल हमारे पूर्वजों को मिला तो यह विरासत हमें मिली है. उन्होंने बताया कि कव्वालियों में अमीर खुसरो के लिखे कलाम भी गाए जाते हैं. उर्स के पांच दिन दरगाह दीवान की सदारत में महफिल खाने में रात 10:30 बजे से रात 3 बजे तक महफिल होती है, जिसमें परंपरागत कव्वालियां होती हैं. छठी के दिन में आखरी महफिल होती है.
रूह को सुकून देती है कव्वाली : देश में कई मशहूर कव्वाल हैं जो अपनी गायकी से जाने जाते हैं. ऐसे सभी कव्वालों की भी ख्वाहिश रहती है कि वो ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह में कव्वाली पेश करें. ऐसे भी कव्वाल हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी दरगाह में रोज कव्वाली पेश करते आए हैं. उर्स के मौके पर कई कव्वाल यहां आकर अपनी गायकी से अपनी अकीदत का नजराना पेश करते हैं और उनके साथ दरगाह में हजारों जायरीन भी कव्वालियां सुन रूहानी फेज में खो जाते है. सूफीयत और कव्वाली दोनों ही खुदा की राह पर जाने का जरिया है. इस राह पर चलकर इंसान सुकून पाता है.