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छावनियों में सिविल एरिया समाप्त कर म्युनिसिपल प्रबन्ध राज्य सरकार को सौंपने को लेकर यायिका दायर - ब्रिटिश काल में लगाए कानून को हटाने की मांग

नसीराबाद कस्बे के एडवोकेट व छावनी बोर्ड वित्त समिति के पूर्व चेयरमैन अशोक जेन ने सर्वोच्च न्यायालय के ग्रिवियन्स पोर्टल के माध्यम से जनहित में याचिका पेश की है. याचिका में छावनी अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों का विस्तृत विवेचन कर ब्रिटिश हुकूमत में बनाये गए अनुचित कानून को असंवेधानिक घोषित किए जानें की मांग की है.

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ब्रिटिश हुकूमत में लगाए गए कानून को हटाने की मांग
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Published : Jun 2, 2020, 9:29 PM IST

नसीराबाद (अजमेर). केन्द्र सरकार के रक्षा मंत्रालय के अधीन स्थानीय निकाय छावनी परिषद का सिविल एरिया (नागरिक क्षेत्र) समाप्त कर राज्य सरकार के म्युनिसिपल प्रबन्ध को सौंपने की मांग फिर जोर पकड़ती जा रही है. जिससे नसीराबाद छावनी क्षेत्र की जनता को ब्रिटिश हुकूमत के बनाये गये कायदे कानून से छुटकारा मिल सके. साथ ही आमजन को केन्द्र व राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिल सके.

ब्रिटिश हुकूमत में लगाए गए कानून को हटाने की मांग
इसे लेकर कस्बे के एडवोकेट व छावनी बोर्ड वित्त समिति के पूर्व चेयरमैन अशोक जैन ने सर्वोच्च न्यायालय के ग्रिवियन्स पोर्टल के माध्यम से जनहित में याचिका पेश की है. जिसमें नसीराबाद सहित देश की सभी 62 छावनियों में सिविल एरिया समाप्त कर इनका म्युनिसिपल प्रबन्ध राज्य सरकार को सौंपने के लिये कहा गया है. बता दें कि स्थानीय निकाय छावनी परिषद बोर्ड में अध्यक्ष पद पर सेना के स्टेशन कमांडर ब्रिगेडियर आसीन होते हैं और 7 सैन्य अधिकारी व जिलाधीश के नुमाइंदे के रूप में 1 अधिकारी मनोनीत सदस्य व सिविल एरिया में स्थित 8 वार्डों के पार्षद निर्वाचित सदस्य होते हैं. वहीं जिला सांसद व क्षेत्रीय विधायक विशेष आमंत्रित सदस्य होते हैं.याचिका में बताया कि नसीराबाद छावनी के सिविल एरिया को समाप्त करने के आशय से भारत सरकार के गत 17 नवम्बर, 2017 को गजट नोटिफिकेशन जारी कर दिया था, लेकिन आगे की कार्रवाई नहीं होने से आम जनता को कई परेशानियां भुगतने को मजबूर होना पड़ रहा है. दायर याचिका में एडवोकेट जैन ने बताया कि ब्रिटिश हुकूमत भारत के नागरिकों को अपना गुलाम समझती थी. अपनी फौज की सुख सुविधाओं के लिये उन्होंने सभी छावनियों के लोगों के लिए सिविल एरिया के नाम से एक अलग जगह पर बाजार बसाया था, लेकिन आधुनिक परिवेश में छावनियों में रह रही फौज किसी भी तरह से सिविल एरिया पर आश्रित नहीं है. आर्मी क्षेत्रों को भौतिक रूप से नागरिक क्षेत्रों से अलग कर दिया गया है. जिसके कारण सिविल एरिया के ब्रिटिश सिद्धांत की स्वतंत्र भारत में कोई जरूरत नहीं रही है .जैन ने याचिका में गत 13 जुलाई 2018 को टाइम्स ऑफ़ इण्डिया समाचार पत्र में आर्मी चीफ बिपिन रावत के नाम का उल्लेख करते हुए शीर्षक “ army mulls abolishingall the cantonments to save fund “ से प्रकाशित समाचार का भी उल्लेख किया है. याचिका में गत 26 सितम्बर 2001 को “national commission to review the working of the constitution “ के द्वारा “ empowering and strengthening local self-government in cantonments “ के सन्दर्भ में जारी रिपोर्ट का हवाला देकर वर्ष 1836 में जारी ओल्ड ग्रान्ट पॉलिसी जैसे गुलामी के कानूनों से यहां के नागरिकों को आजादी दिलाने की मांग की गई है.

यह भी पढ़ें. भारत में कोरोना पॉजिटिव मामले 1.98 लाख के पार, पिछले 24 घंटे में 204 मौतें

याचिका में बताया कि कैंटोनमेंट एक्ट 2006 के कानुन से भी अंग्रेजों के बनाये कायदे-कानूनों को नागरिक क्षेत्र में और ज्यादा सख्ती से लागू कर दिया गया है. जिसके परिणाम स्वरूप नसीराबाद छावनी के लोग अपनी सम्पत्तियों के बेचान की रजिस्ट्री भी नहीं करवा पा रहे हैं. साथ ही बैंकों ने सामयिक बन्धक रखकर लोन देना भी बन्द कर दिया है. राज्य सरकार का 1950 का किराया कानून समाप्त हो जाने के आधार पर न्यायालय ने 2003 के बाद प्रस्तुत सभी बेदखली के मुकदमें निरस्त कर दिये हैं और केन्द्र सरकार व राज्य सरकार द्वारा जारी जन कल्याणकारी योजनाओं से यहां के लोग अभी भी वंचित हैं. यह भारत के संविधान के अन्तर्गत प्राप्त समानता के सर्व मान्य मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन है .

नसीराबाद (अजमेर). केन्द्र सरकार के रक्षा मंत्रालय के अधीन स्थानीय निकाय छावनी परिषद का सिविल एरिया (नागरिक क्षेत्र) समाप्त कर राज्य सरकार के म्युनिसिपल प्रबन्ध को सौंपने की मांग फिर जोर पकड़ती जा रही है. जिससे नसीराबाद छावनी क्षेत्र की जनता को ब्रिटिश हुकूमत के बनाये गये कायदे कानून से छुटकारा मिल सके. साथ ही आमजन को केन्द्र व राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिल सके.

ब्रिटिश हुकूमत में लगाए गए कानून को हटाने की मांग
इसे लेकर कस्बे के एडवोकेट व छावनी बोर्ड वित्त समिति के पूर्व चेयरमैन अशोक जैन ने सर्वोच्च न्यायालय के ग्रिवियन्स पोर्टल के माध्यम से जनहित में याचिका पेश की है. जिसमें नसीराबाद सहित देश की सभी 62 छावनियों में सिविल एरिया समाप्त कर इनका म्युनिसिपल प्रबन्ध राज्य सरकार को सौंपने के लिये कहा गया है. बता दें कि स्थानीय निकाय छावनी परिषद बोर्ड में अध्यक्ष पद पर सेना के स्टेशन कमांडर ब्रिगेडियर आसीन होते हैं और 7 सैन्य अधिकारी व जिलाधीश के नुमाइंदे के रूप में 1 अधिकारी मनोनीत सदस्य व सिविल एरिया में स्थित 8 वार्डों के पार्षद निर्वाचित सदस्य होते हैं. वहीं जिला सांसद व क्षेत्रीय विधायक विशेष आमंत्रित सदस्य होते हैं.याचिका में बताया कि नसीराबाद छावनी के सिविल एरिया को समाप्त करने के आशय से भारत सरकार के गत 17 नवम्बर, 2017 को गजट नोटिफिकेशन जारी कर दिया था, लेकिन आगे की कार्रवाई नहीं होने से आम जनता को कई परेशानियां भुगतने को मजबूर होना पड़ रहा है. दायर याचिका में एडवोकेट जैन ने बताया कि ब्रिटिश हुकूमत भारत के नागरिकों को अपना गुलाम समझती थी. अपनी फौज की सुख सुविधाओं के लिये उन्होंने सभी छावनियों के लोगों के लिए सिविल एरिया के नाम से एक अलग जगह पर बाजार बसाया था, लेकिन आधुनिक परिवेश में छावनियों में रह रही फौज किसी भी तरह से सिविल एरिया पर आश्रित नहीं है. आर्मी क्षेत्रों को भौतिक रूप से नागरिक क्षेत्रों से अलग कर दिया गया है. जिसके कारण सिविल एरिया के ब्रिटिश सिद्धांत की स्वतंत्र भारत में कोई जरूरत नहीं रही है .जैन ने याचिका में गत 13 जुलाई 2018 को टाइम्स ऑफ़ इण्डिया समाचार पत्र में आर्मी चीफ बिपिन रावत के नाम का उल्लेख करते हुए शीर्षक “ army mulls abolishingall the cantonments to save fund “ से प्रकाशित समाचार का भी उल्लेख किया है. याचिका में गत 26 सितम्बर 2001 को “national commission to review the working of the constitution “ के द्वारा “ empowering and strengthening local self-government in cantonments “ के सन्दर्भ में जारी रिपोर्ट का हवाला देकर वर्ष 1836 में जारी ओल्ड ग्रान्ट पॉलिसी जैसे गुलामी के कानूनों से यहां के नागरिकों को आजादी दिलाने की मांग की गई है.

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याचिका में बताया कि कैंटोनमेंट एक्ट 2006 के कानुन से भी अंग्रेजों के बनाये कायदे-कानूनों को नागरिक क्षेत्र में और ज्यादा सख्ती से लागू कर दिया गया है. जिसके परिणाम स्वरूप नसीराबाद छावनी के लोग अपनी सम्पत्तियों के बेचान की रजिस्ट्री भी नहीं करवा पा रहे हैं. साथ ही बैंकों ने सामयिक बन्धक रखकर लोन देना भी बन्द कर दिया है. राज्य सरकार का 1950 का किराया कानून समाप्त हो जाने के आधार पर न्यायालय ने 2003 के बाद प्रस्तुत सभी बेदखली के मुकदमें निरस्त कर दिये हैं और केन्द्र सरकार व राज्य सरकार द्वारा जारी जन कल्याणकारी योजनाओं से यहां के लोग अभी भी वंचित हैं. यह भारत के संविधान के अन्तर्गत प्राप्त समानता के सर्व मान्य मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन है .

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