सीकर. ऐसी ही सीकर लोकसभा सीट पर सामने आया है. जहां कूदन गांव के महरिया परिवार का सियासी सफर के अब खत्म होने की चर्चाएं होने लगी है. आजादी के बाद से ही सीकर जिले की राजनीति में हमेशा से वर्चस्व रखने वाला महरिया परिवार राजनीतिक दृष्टि से पिछले काफी समय से लगातार गर्त में जाता जा रहा है. लंबे समय तक सीकर जिले की राजनीति में एकछत्र राज करने वाले इस परिवार के लिए अब राजनीतिक पंडित यह कहने लगे है कि महरिया परिवार अब सीकर में हाशिए पर चला गया है.
भाजपा के सुमेधानंद से मिली करारी हार
भाजपा के प्रत्याशी स्वामी सुमेधानंद से कांग्रेस प्रत्याशी सुभाष महरिया को बड़ी हार का सामना करना पड़ा. यहां से 2 लाख 97 हजार 156 वोटों के बड़े अंतर से सुभाष महरिया को शिकस्त का मुंह देखना पड़ा. जहां भाजपा को 7 लाख 72 हजार 104 वोट मिले तो वहीं सुभाष महरिया को 4 लाख 74 हजार 948 वोटों से संतोष करना पड़ा.
सुभाष महरिया इस बार पूरी तरह नाकाम
पहले कांग्रेस, फिर भाजपा और अब एक बार फिर से कांग्रेस में महरिया परिवार ने दबदबा बनाने की कोशिश की. लेकिन, इस बार पूरी तरह नाकाम साबित हुए. सुभाष महरिया के लोकसभा चुनाव हारने के साथ ही यह माना जाने लगा है कि अब सीकर की राजनीति में जब तक कोई बड़ा उलटफेर नहीं होता तब तक महरिया परिवार का वर्चस्व नहीं बन पाएगा.
कैसा रहा महरिया परिवार का वर्चस्व
आजादी से पहले की बात करें तो गांव के बक्सा राम महरिया यहां कि चौधराहट करते थे. इसके बाद रामदेव सिंह महरिया राजनीति में सक्रिय हुए. 1957 में सीकर जिले की सिंगरावट विधानसभा सीट से विधायक बनें. 1993 तक रामदेव सिंह महरिया अलग-अलग जगह से विधायक का चुनाव लड़ते रहे. बीच में जिला प्रमुख भी रहे और दो जगह से विधायक रहे. राजस्थान सरकार में विभिन्न विभागों के मंत्री पद पर भी रामदेव सिंह महरिया काबिज रहे.
सीकर के बाद उन्होंने धोद विधानसभा सीट चुनी और 1993 तक लगातार चार बार यहां से विधायक बने. 1993 में माकपा के अमराराम ने चुनाव जीतकर धोद विधानसभा क्षेत्र में महरिया परिवार की राजनीति पर विराम लगा दिया. 1998 में रामदेव सिंह महरिया को कांग्रेस ने टिकट ही नहीं दिया. इससे पहले ही कांग्रेस में महरिया परिवार का वजूद कम होते देखकर उनके भतीजे सुभाष महरिया भाजपा में चले गए. जिस तरह से कांग्रेस में महरिया परिवार की तूती बोलती थी. उसी तरह 15 साल तक सीकर जिले की भाजपा पर भी महरिया परिवार का एकछत्र राज रहा.
सुभाष महरिया लगातार तीन बार सीकर से सांसद बने और अटल बिहारी वाजपेई सरकार में मंत्री रहे. इस दौरान उन्होंने अपने छोटे भाई नंदकिशोर महरिया को भी दो बार फतेहपुर से भाजपा का टिकट दिला दिया. लेकिन, वे दोनों चुनाव हार गए. उनके परिवार से ही रामेश्वर महरिया 17 साल लगातार प्रधान रहे. गांव में सरपंच हो या पंच कोई भी बिना महरिया परिवार की सहमति से नहीं बनता था.
महरिया परिवार एक ही तरीके से कमजोर होते गए
कभी कांग्रेस में एकछत्र राज करने वाले महरिया परिवार का पार्टी से धीरे-धीरे यूं किनारा होते चले गए कि आखिर में दिग्गज नेता रामदेव सिंह महरिया जिला परिषद का चुनाव नहीं जीत पाए. उसके बाद जब इस परिवार के नेता भाजपा में आए तो वहां भी एकछत्र राज किया. लेकिन भाजपा में धीरे-धीरे बढ़ी गुटबाजी ने महरिया परिवार को यहां से भी किनारे कर दिया. 2009 में सुभाष महरिया कांग्रेस के महादेव सिंह खंडेला से लोकसभा चुनाव हार गए. 2013 में उन्होंने लक्ष्मणगढ़ से विधायक का चुनाव लड़ा लेकिन यहां से भी हार गए. सुभाष तो चुनाव हार गए. लेकिन 2013 में उनके छोटे भाई नंदकिशोर महरिया फतेहपुर से निर्दलीय विधायक बन गए.
2014 में भाजपा ने महरिया को लोकसभा का टिकट नहीं दिया तो उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ा लेकिन हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद महरिया परिवार की राजनीति धीरे-धीरे नीचे चली गई और पिछले चुनाव में गांव में सरपंच और पंच का चुनाव भी यह परिवार हार गया. 2018 में नंदकिशोर महरिया को भी टिकट नहीं मिला और उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा. भाजपा में किनारे होने के बाद सुभाष महरिया कांग्रेस में चले गए और इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की टिकट हासिल करने में भी सफल हो गए. लेकिन एक बार फिर करीब तीन लाख वोटों से चुनाव हार गए हैं. अब यह माना जा रहा है कि कांग्रेस हो या भाजपा जिले की राजनीति में महरिया परिवार का दबदबा शायद ही वापस कायम हो.