जोधपुर. लॉकडाउन के दौरान प्रवासी श्रमिकों के लिए भोजन का इंतजाम करने के लिए प्रशासन को सूचित किया तो प्रशासन ने सूचना देने वाले नागरिक के खिलाफ ही आपराधिक मुकदमा दर्ज करवा दिया था. इस मामले में सुनवाई करते हुए राजस्थान हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता के खिलाफ कार्रवाई पर रोक लगा दी है. साथ ही पुलिस और मुकदमा दर्ज करवाने वाले कार्मिकों को नोटिस जारी कर जवाब पेश करने का आदेश दिया है. मामले की अगली सुनवाई 8 जून को तय की गई है.
याचिकाकर्ता के वकील रजाक के. हैदर ने बताया कि अलवर के भुनगड़ा अहीर गांव के रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता शशिकांत शर्मा ने लॉकडाउन के दौरान 26 मार्च को मुंडावर उपखंड अधिकारी और विकास अधिकारी को ई-मेल के जरिए गांव में रहने वाले प्रवासी श्रमिकों की सूची भेजते हुए उनके भोजन का इंतजाम करने का अनुरोध किया था.
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प्रशासन ने गांव के हल्का पटवारी अजीत कुमार से इसकी जांच कराने के बाद ग्राम पंचायत भुनगड़ा अहीर के ग्राम विकास अधिकारी हर्ष शर्मा ने झूठी जानकारी देने के लिए धारा 188 और आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 52 के तहत आपराधिक मुकदमा दर्ज करवाया.
कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग
जिसे चुनौती देते हुए अधिवक्ता रजाक के. हैदर और पंकज एस. चौधरी ने आपराधिक विविध याचिका दायर कर हाईकोर्ट को बताया कि याचिकाकर्ता ने जागरूक नागरिक की हैसियत से प्रशासन को प्रवासी श्रमिकों की सूची भेजते हुए उनके भोजन आदि की व्यवस्था करने का आग्रह किया था. ऐसे मामलों में आपराधिक मुकदमा दर्ज करवाना कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग है.
पुलिस को नहीं आईपीसी 188 का मुकदमा दर्ज करने का अधिकार
अधिवक्ता हैदर ने यह भी कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 195 (1) (ए) (1) के प्रावधान और सुप्रीम कोर्ट-हाईकोर्ट के कई निर्णयों के अनुसार भारतीय दंड संहिता की धारा 188 के तहत पुलिस को एफआईआर दर्ज करने का अधिकार नहीं है. उक्त अपराध घटने पर न्यायालय में मजिस्ट्रेट के समक्ष केवल लोक सेवक के लिखित परिवाद ही प्रस्तुत किया जा सकता है.
राजस्थान पुलिस ने लॉकडाउन के दौरान हजारों मामलों में सीधे ही आईपीसी की धारा 188 के तहत आपराधिक प्रकरण दर्ज कर लिए हैं. उन सभी मकुदमों पर रोक लगाया जाना उचित है. जबकि आपराधिक कानून में स्पष्ट है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 172 से 188 के तहत कोई दण्डनीय अपराध किया जाता है तो कोई भी न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा, जब तक कि संबंधित लोक सेवक की ओर से लिखित शिकायत दायर नहीं हुई हो.
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बता दें कि सी मुनियप्पम बनाम स्टेट ऑफ तमिलनाडु (2010) 9 एससीसी 567 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि सीआरपीसी की धारा 195 के प्रावधान अनिवार्य है और इनका गैर-अनुपालन अभियोजन और अन्य सभी परिणामी आदेशों को नष्ट कर देगा. इसी मामले में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अदालत इस तरह के मामलों में बिना शिकायत के संज्ञान नहीं ले सकती है और शिकायत के अभाव में ट्रायल और दोष बिना अधिकार क्षेत्र के निरर्थक हो जाएगा.