जयपुर. ऐतिहासिक इमारतों की वास्तुकला और हेरिटेज विरासत गुलाबी नगरी जयपुर की पहचान है. 18 नवंबर, 1727 को महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने जयपुर की नींव रखी थी और बंगाल के वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य ने इसका डिजाइन तैयार किया था. जिसमें जल संवर्धन का भी ध्यान रखा गया. परकोटे में बनी तीनों चौपड़, कई बावड़ियां, कुंड, तालकटोरा, नहर इसी जल संवर्धन की कहानी को आज भी बयां करती है. लेकिन समय के साथ-साथ सुविधाओं के दौर में जयपुर की ऐतिहासिक जल संवर्धन तकनीक अब कहानियों में ही सिमट कर रह गई है.
292 साल पहले बसाए गए जयपुर की संरचना में वर्षा जल संचयन और बारिश की निकासी का विशेष तौर पर इंतजाम किया गया था, जो आज भी आधुनिक भारत के ज्यादातर शहरों में देखने को नहीं मिलता. जयपुर की छोटी चौपड़, बड़ी चौपड़, और रामगंज चौपड़ पर बने कुंड इसी संरचना का हिस्सा हैं. क्योंकि जयपुर के पास जलस्रोत नहीं था, ऐसे में जयपुर वासियों की पेयजल समस्या का समाधान करने के लिए सवाई जयसिंह ने हरमाड़ा के पास से एक नहर निकाली थी, जो गुप्त गंगा कहलाती थी.
ये नहर इतनी चौड़ी थी कि दो घुड़सवार आराम से चल सकते थे और जिस भी आम आदमी को पानी की आवश्यकता होती थी, वो यहां बने मोखों से पानी ले लिया करते थे. इतिहासकार देवेंद्र कुमार भगत ने बताया कि जयपुर की बसावट के समय जल निकासी और जल संग्रहण की प्लानिंग की गई थी. जयपुर के कुंड, बावड़ी इसी का उदाहरण है. जल संवर्धन के तहत जयपुर की खासियत यहां के बाजारों के नीचे बहने वाली नहर थी.
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कुछ साल पहले जब ऑपरेशन पिंक चलाया था, तब वो नहरें नाले में तबदील मिली थी. वर्तमान समय में उनका कोई उपयोग नहीं है. ऐसे में उन्हें दोबारा ढक दिया गया था. देवेंद्र कुमार ने बताया कि पुराने शहर में बलवंत व्यायामशाला के पास से जो नाला जा रहा है, वो किसी जमाने में पेयजल निकासी का स्त्रोत हुआ करता था. जो तालकटोरा में जाता था. इसी तरह गलता की पहाड़ियों में भी ऐसे ही कई एनिकेट बने हुए हैं, जो आज भी मौजूद हैं. जिससे वन्यजीवों के लिए भी पानी की समस्या का समाधान किया गया था.
वहीं, जयपुर के पुराने बाशिंदों की माने तो पहले तीनों चौपड़ों पर पानी स्टोर होता था और जनता को सप्लाई किया जाता था. लेकिन राजा महाराजाओं के समय बीतने के बाद पाइप लाइन का जमाना आ गया. इसके बाद से जल संवर्धन की अब कोई स्थिति नहीं है. त्रिपोलिया बाजार व्यापार संघ के अध्यक्ष राजेंद्र गुप्ता ने बताया कि पहले जो पानी अतिरिक्त हुआ करता था, वो गोविंद देव जी के पीछे राजामल के तालाब में स्टोर हो जाया करता था.
लेकिन उसकी साज संभाल नहीं होने से, वो भी गंदगी से अटा पड़ा है. वहीं, धरोहर बचाओ समिति के भारत शर्मा ने कहा कि जयपुर में जल स्रोत स्थापित किए गए थे. तालकटोरा, मावठा, सागर, जल महल यहां तक की चौपड़ों पर बने हुए कुंड भी जल स्त्रोत रहे हैं. वहीं बाजारों में जो टनल हुआ करती थी, उसे विकास के नाम पर निस्तेनाबूत कर दिया गया. शहर की बावड़ियों के प्रति सभी सरकारों ने संवेदनहीनता दिखाई और जल स्त्रोतों के संवर्धन के लिए कोई कार्य नहीं किया.
उधर, जलदाय विभाग के इंजीनियर भी मानते हैं कि जयपुर की बसावट में जल संवर्धन का काम तकनीक से युक्त है. पानी स्टोर करना और अतिरिक्त पानी के निकास की भी व्यवस्था की गई थी. सीनियर इंजीनियर त्रिलोक चतुर्वेदी की मानें तो राजा महाराजाओं के जमाने में जल की एक-एक बूंद की कद्र की जाती थी. साथ ही उसे सहेज कर रखा जाता था. टांके और बावड़ी में वर्षा जल स्टोर किया जाता था, जिससे वर्षा काल के बाद बचे हुए 10 महीने में नियमित जलापूर्ति हो जाती थी.
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उन्होंने कहा कि वर्तमान परिस्थितियां बदल चुकी हैं. वर्तमान समय में रोड के नीचे से सीवर, वाटर लाइन, ओएफसी केबल भी जा रही है. ऐसे में इंजीनियर के सामने बड़ी चुनौती होती है. हालांकि आज भी इतिहास के नजरिए से विचार कर ही किसी कार्य को मूर्त रूप दिया जाता है.
बहरहाल, आज जयपुर की तीनों चौपड़ों का स्वरूप बदल चुका है. बावड़ियों की संभाल नहीं होने से कुछ सूख चुकी हैं, तो कुछ गंदगी से अटी हुई हैं. वर्षा जल का संचयन करने वाली नहरें नाले बन चुकी हैं और कुछ जगह अतिक्रमण की भेंट चढ़ चुकी हैं. यही वजह है कि जयपुर के जिस जल संवर्धन को वैज्ञानिक भी स्टडी किया करते थे, वो आज सिर्फ किताबी ज्ञान बनकर रह गई है. वहीं, जयपुर वासियों को अब पानी के लिए दूसरे शहरों का मुंह ताकना पड़ता है.