जयपुर. राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार ने सत्ता में आने के साथ ही जवाबदेही कानून लाने का वादा किया था. इसके लिए कमेटी बनी, ड्राफ्टिंग हुई, लेकिन सरकार का आधा कार्यकाल गुजर जाने के बावजूद घोषणा पत्र में किये गये इस वादे को पूरा नहीं किया गया. अब सरकार की मंशा पर सवाल उठ रहे हैं. सवाल यही, कि क्या जवाबदेही से बचने के लिए जवाबदेही कानून को ठंडे बस्ते में डाल जा रहा है ?
कैलाशी देवी और गीता देवी सरकारी सिस्टम से पीड़ित है. कैलाशी देवी के पति की मृत्यु दो साल पहले हो गई थी. लेकिन उसे आज तक उचित मुआवजा नहीं मिला. कागजी दस्तावेज तो हैं लेकिन कोई बताने वाला नहीं है कि सरकार की तरफ से मिलने वाली आर्थिक सहायता में क्या दिक्कत आ रही है.
गीता देवी के पति की मौत चार साल पहले सिलिकोसिस से हुई थी. सिलिकोसिस से किसी मजदूर के पीड़ित होने पर राजस्थान में 3 लाख की आर्थिक सहायता और मृत्यु के बाद दो लाख की मुआवजा राशि मिलने का प्रावधान है. लेकिन गीता देवी को इनमें से किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता या मुआवजा नहीं मिला. जबकि गीता के पास हर जरूरी दस्तावेज है. मुआवजे के लिए उसे सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं.
कैलाशी और गीता जैसे हजारों पीड़ित हैं जो रोजाना किसी न किसी दफतर में चक्कर काटते हैं. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जब सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों की जवाबदेही तय करने वाले कानून की परिकल्पना रखी तो आम लोगों को उम्मीद बंधी.
पढ़ें- ऑफिस-ऑफिस : नौकरशाही को जवाबदेह बनाने वाला कानून आखिर क्यों अटका है...
कांग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र में इस कानून का जिक्र था. वर्ष 2019-20 के बजट भाषण सीएम गहलोत ने सदन से जवाबदेही कानून को लागू करने की बात कही थी. लेकिन अभी भी इस बिल को लेकर किसी के पास कोई जवाब नहीं है. उम्मीद थी कि सरकार इस बार मानसून सत्र में इस बिल को पेश कर आम नागरिकों को बड़ी सौगात देगी. लेकिन एक बार फिर निराशा हाथ लगी.
जरूरी है जवाबदेही तय होना- निखिल डे
सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे कहते हैं कि प्रदेश में 80 लाख लोग नरेगा में रोजगार करते हैं, 80 लाख पेंशनर्स हैं, एक करोड़ 24 लाख राशन धारक हैं. किसी को पेंशन नहीं मिल रही है, नरेगा मजदूरों की मजदूरी दूसरे खाते में चली जाती है, सैकड़ों सिलिकोसिस पीड़ित परिवारों को लाभ नहीं मिल रहा. इसे लेकर जवाबदेही किसकी है. इसी जवाबदेही को तय करने के लिए जवाबदेही कानून की जरूरत है.
ऐसा नहीं है जवाबदेही कानून के लिए प्रयास नहीं हुए. सरकार बनने के साथ जवाबदेही कानून के लिए कमेटी बनी. जोर-शोर से बैठकों का दौर चला. एक्सपर्ट्स से सुझाव लिए गए. बिल की ड्राफ्टिंग भी हो गई. लेकिन कानूनी अमलीजामा ढाई साल में भी नहीं पहनाया जा सका. सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे कहते हैं कि अफसरशाही, नौकरशाही ने इस बिल को रोक रखा है. जबकि यह राजनीतिक कमिटमेंट है. घोषणा पत्र में की गई घोषणा है. बजट में अनाउंसमेंट हुआ है. लेकिन इसे लागू नहीं होने दिया जा रहा है.
बिल लागू करना ही होगा - अरुणा राय
सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय कहती हैं कि सरकार ने जब कमिटमेंट किया है तो उसे पूरा करना होगा. हमारा संवैधानिक हक है कि हम जिस सरकारी कर्मचारी या अधिकारी को अपने काम के लिए कहते हैं तो वह हमारे काम के लिए जवाबदेही हो. यह तो सीधी बात है कि सरकार ने जो व्यवस्था बना रखी है, उसकी जवाबदेही तय हो. इस बिल को लागू करना ही होगा.
जवाबदेही कानून का लक्ष्य
जनता को गुड गवर्नेंस देना, नीचे से लेकर ऊपर तक के अधिकारियों की जवाबदेही तय होगी, जनता को मूलभूत सुविधाओं का हक मिलेगा, अधिकारियों का भ्रष्ट और मनमाना आचरण रुकेगा, बिजली पानी सड़क लाइसेंस और प्रमाण-पत्र जैसी सुविधाओं का हक मिलेगा, अंतिम व्यक्ति तक सेवाओं का समयबद्ध लाभ पहुंच सकेगा, कोई भी कर्मचारी और अधिकारी किसी फाइल को अनावश्यक नहीं रोक सकेगा, जवाबदेही कानून लागू होने के बाद शिकायत दर्ज करने के लिए प्रत्येक पंचायत और नगरपालिका में सहायता केंद्र स्थापित होगा, हर शिकायत कंप्यूटर पर दर्ज होगी, शिकायत को ट्रैक किया जाएगा.
इसके अलावा शिकायत लोक शिकायत निवारण अधिकारी तक पहुंचेगी, शिकायतकर्ता को शिकायत प्राप्ति की रसीद मिलेगी, 14 दिन के भीतर शिकायतकर्ता को खुली सुनवाई में बात रखने का मौका मिलेगा, लोक शिकायत निवारण अधिकारी को 30 दिन के भीतर लिखित में जवाब देना होगा, यदि समस्या सही पाई गई तो बताना होगा कब तक समस्या का समाधान किया जाएगा, यदि शिकायत अस्वीकार की जाती है तो उसका कारण बताना होगा, जिला और राज्य स्तर पर सुनवाई के अलग-अलग प्राधिकरण होंगे.
सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं कि इस कानून का मुख्य उद्देश्य जनता को गुड गवर्नेंस देना है. सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार जैसे कानूनी अधिकार देशभर में सबसे पहले देने वाली गहलोत सरकार 'जवाबदेही कानून' को भी सबसे पहले देने की मंशा रखती है. लेकिन अफसरशाही इस बिल को लागू करने में अड़चने पैदा कर रही है. अब मानसून सत्र में बिल पेश नहीं होने से नाराज सामाजिक संगठनों ने अक्टूबर से आंदोलन की रणनीति पर विचार कर रहे हैं.