जयपुर. राजस्थान में लोगों में 'जो मानस बोल्या कि वो पाणी की कीमत जाणी, या वो मानस झूठा या फिर वो राजस्थानी' कहावत प्रसिद्ध है. प्रदेश में बच्चे-बच्चे को पानी की अहमियत अच्छे से पता है कि कैसे पीने के पानी के लिए दूर-दूर तक मशक्कत करनी पड़ती है. ये भी कहा जाता है कि अगर पानी की असली कीमत देखनी हो तो राजस्थान चलो.
राजधानी जयपुर के जोबनेर क्षेत्र में करीब 25 सालों से लोग जल संकट से जूझ रहे थे. जोबनेर में स्थित श्री कर्ण नरेंद्र कृषि विश्वविद्यालय में भी प्रशासन को पीने के पानी के लिए बाहर से टैंकर मंगवाने पड़ते थे. लेकिन सालों से इस समस्या को झेल रहे विश्वविद्यालय प्रशासन ने ऐसा रास्ता खोजा है जिससे ना केवल विश्वविद्यालय ने अपनी पानी की समस्या का समाधान किया बल्कि आसपास के गांवों के संकट को भी दूर कर दिया है.
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प्रदेश के पश्चिमी इलाकों बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर में तो लोगों को कई किलोमीटर का सफर तय करके पानी लाना पड़ता है. लेकिन अब प्रदेश के कई अन्य इलाके डार्क जोन में आ गए हैं, ऐसे में अब राज्य के अन्य जिलों के हालात भी सीमावर्ती इलाकों की तरह बन चुके हैं. राजधानी जयपुर से महज 40 किलोमीटर दूर स्थित जोबनेर क्षेत्र में भी हालात बिगड़ते जा रहे हैं. यहां भूजल स्तर लगातार गिरता जा रहा है.
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जल संरक्षण कर बढ़ाया ग्राउंड वॉटर लेवल
देश का सबसे पुराना एग्रीकल्चर कॉलेज जो कि आजादी के पहले बना था वह जोबनेर क्षेत्र में ही है. हांलाकि यह कॉलेज अब श्री कर्ण नरेंद्र एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के रूप में संचालित है. यूं तो यह एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी है जहां छात्रों को फसलों के बारे में बताने के साथ पशुओं को भी रखा जाता है ताकि छात्र प्रैक्टिकल कर सकें. लेकिन सालों से यूनिवर्सिटी प्रशासन पानी की कमी से जूझ रहा था. हालात ये थे कि साल 1995 के बाद से यूनिवर्सिटी को मजबूरन टैंकरों से पानी लेना पड़ रहा था, लेकिन विवि प्रशासन के बेहतर जल प्रबंधन के बाद अब न केवल यूनिवर्सिटी बल्कि आसपास के क्षेत्र की भी पानी की समस्या समाप्त हो गई है. यूनिवर्सिटी प्रशासन की ओर से जल संरक्षण के क्षेत्र में किए गए इस कार्य से आसपास के इलाकों में भी भूजल स्तर 50 फीट ऊपर आ गया है.
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1995 तक इलाके में पानी बिल्कुल समाप्त हो गया...
125 हेक्टेयर में बनी इस यूनिवर्सिटी में साल 1985 तक पानी की कोई कमी नहीं थी. यहां तक कि इस यूनिवर्सिटी में दो फसलें ली जाती थी, लेकिन साल 1985 के बाद क्षेत्र का जलस्तर गिरता चला गया. साल 1995 तक इलाके में पानी बिल्कुल समाप्त हो गया और करीब 25 साल तक यूनिवर्सिटी को बाहरी स्रोतों के माध्यम से पानी की व्यवस्था करनी पड़ी.
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नाले के माध्यम से पानी को किया संचित
यूनिवर्सिटी प्रशासन ने आत्मनिर्भर बनने के लिए समीप के ज्वाला माता मंदिर की पहाड़ी से व्यर्थ बहने वाले पानी को नगर पालिका के सहयोग से नाले के माध्यम से विवि परिसर में संचित किया. विवि प्रशासन ने व्यर्थ बह रहे पानी को तालाब बनाकर संचित किया गया. यूनिवर्सिटी ने 33 लाख लीटर क्षमता के 3 पक्के तालाब बनाने के साथ एक अन्य पक्का तालाब 3 करोड़ लीटर क्षमता का बनाया. साथ ही आसपास के इलाके में कई कच्चे तालाब भी बनाए गए.
पानी को ऐसे किया गया संचित
बता दें कि जो पानी पहाड़ों से बहकर पहले व्यर्थ चला जाता था, उसे पहले पक्के तालाब में डाला गया. इसके बाद बचे हुए पानी को दूसरे तालाब में रखा गया. जब यह तालाब ओवरफ्लो हो जाता है तो इन्हें ज्वाला सागर में निकाल दिया जाता है. पक्के तालाब के जरिए यूनिवर्सिटी अपने उपयोग का पानी खुद ही इंतजाम कर लेती है. इन्हीं कच्चे तालाबों से इस क्षेत्र का ग्राउंड वॉटर लेवल एक तरह से रिचार्ज हो रहा है.
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33 लाख लीटर के 3 तालाब बनाए गए हैंः जीएस बंगरवा
यूनिवर्सिटी के पूर्व डीन जीएस बंगरवा जिनके प्रयासों से ये काम संभव हो सका था, बताते हैं कि 33 लाख लीटर के तीन तालाब बनाए गए हैं. 3 करोड़ लीटर क्षमता का भी पूर्ण तालाब बनाया गया है, इससे यूनिवर्सिटी के इस्तेमाल में आने वाले पानी की पूर्ति हो जाती है और बाकी के कच्चे तालाब में पानी भरा रहता है जिससे वाटर लेवल रिचार्ज होता रहता है. उन्होंने बताया कि ना केवल यूनिवर्सिटी बल्कि इस सिस्टम से आसपास के इलाकों में भी 50 फीट तक वाटर लेवल ऊपर आ गया है. पहले इन इलाकों में खेती नहीं होती थी लेकिन भूजल स्तर बढ़ने के बाद आसपास के इलाकों के नलकूपों में भी पानी आ गया है.
क्यों जरूरी है इस प्रकार पानी का संरक्षण
राजस्थान में पानी का संरक्षण और भूजल स्तर को ऊपर लाने के प्रयास इसलिए आवश्यक हैं क्योंकि राजस्थान में 295 में से 185 ब्लॉक डार्क जोन में चले गए हैं. 2013 में 10 जून को यह संख्या 164 थी जो अब बढ़कर 185 हो चुकी है. डार्क जोन में जाने का मतलब यह है कि उन इलाकों में जमीन के नीचे से पानी तो लिया जा रहा है, लेकिन वॉटर लेवल रिचार्ज नहीं किया जा रहा है.