ETV Bharat / city

जयपुर की पतंगबाजी में पौराणिक और आधुनिक स्वरूप का मिश्रण, मकर सक्रांति गंगा-जमुनी तहजीब का भी प्रतीक

भारत में पतंगबाजी का इतिहास काफी पुराना है. भारत के विभिन्न राज्यों में पतंगों को अलग-अलग समय पर उड़ाया जाता है. इन्हीं पतंगों का जयपुर के साथ भी विशेष रिश्ता है. राजा-महाराजाओं के समय से उड़ती आ रही इस पतंग का ना सिर्फ पौराणिक और आधुनिक महत्व है, बल्कि ये जयपुर की गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक भी है.

जयपुर में पतंगबाजी, Kite flying in jaipur
जयपुर में पतंगबाजी
author img

By

Published : Jan 15, 2020, 9:21 AM IST

जयपुर. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मकर सक्रांति को दान-पुण्य का त्यौहार माना गया है. राजधानी जयपुर में इसी दिन पतंग उत्सव भी मनाया जाता है. जिस तरह हर त्योहार का अपना एक इतिहास रहा है, उसी तरह पतंग उत्सव का भी अपना इतिहास है.

जयपुर की पतंगबाजी में पौराणिक और आधुनिक स्वरूप का मिश्रण

इसी इतिहास को जानने के लिए ईटीवी भारत ने इतिहासकार देवेंद्र भगत से खास बातचीत की. उन्होंने बताया, कि पौराणिक काल में भी भगवान श्री कृष्ण के समय दुग्गल उड़ाए जाते थे. इसका उल्लेख भी अलग-अलग ग्रंथों में मिलता है. मौसम को जानने के लिए भी पतंग उड़ाई जाती थी.

मकर सक्रांति गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक

जयपुर का पतंगों के साथ एक विशेष रिश्ता रहा है. कहा जा सकता है, कि जयपुर पतंगबाजी का आधुनिक और पौराणिक स्वरूप का मिश्रण है. सवाई जयसिंह से लेकर सवाई मान सिंह तक के समय जयपुर में पतंगों का इतिहास मिलता है. यहां के दुग्गल बहुत फेमस रहे हैं. सवाई मान सिंह के समय पतंगबाजी को नए आयाम मिले. यही नहीं सिटी पैलेस में आज भी पतंग की कोठी बनी हुई है. जहां सवाई मान सिंह की पतंग, चरखी और डोर रखी हुई है.

पढ़ें- अब सरकार के पास पूर्व मुख्यमंत्रियों से बंगला खाली करवाने के अलावा और कोई चारा नहीं : घनश्याम तिवाड़ी

बताया जाता है, कि मध्यकालीन भारत में उज्बेगु से मांझा बनाने की परंपरा आई. बरेली, मेरठ, बनारस और हरदोई के कारीगर भी आए. तब सवाई प्रताप सिंह ने उन्हें जागीरें भी दीं. जिनके परिवार लक्ष्मण डूंगरी के पास आज भी बसे हुए हैं. ये सभी मुस्लिम समुदाय से हैं और आज भी हल्दियों के रास्ते और हांडीपुरा में दुकानें लगाते हैं. जबकि इससे पहले सवाई माधो सिंह के समय उनकी जो कैबिनेट हुआ करती थी, वो सब भी पतंगबाजी किया करते थे और इनमें जो हारता था, वो भोज कराया करता था.

इतिहासकार देवेंद्र भगत ने बताया, कि मकर सक्रांति पर गलता में स्नान और तिल-गुड़ का दान किया जाता है. हिंदू समुदाय इस त्यौहार को मनाता है. लेकिन पतंगबाजी जयपुर की खासियत है. उन्होंने जयपुर की गंगा-जमुनी तहजीब को लेकर कहा, कि जयपुर में हिंदू-मुस्लिम जुड़े हुए हैं. सांप्रदायिक सौहार्द्र जैसा जयपुर में मिलता है, वैसा दूसरे शहरों में देखने को नहीं मिलता.

पढ़ें- Special: देश का पहला शौर्य उद्यान बना झुंझुनू में, रणबांकुरों के इतिहास और वीरता से हो सकेंगे रू-ब-रू

यही वजह है, कि यहां मांझा बनाने वाले मुस्लिम कारीगरों तक का बड़ा नाम हुआ है. जयपुर में जो धार्मिक ठिकानों पर भी पतंग उड़ा करती थी, उसका मांझा भी मुस्लिम कारीगर ही बनाया करते थे. हिदायतुल्लाह, इनायत खान, उलूख बेग जैसे नाम आज भी याद किए जाते हैं, जो गलता तीर्थ में भी पतंगबाजी किया करते थे. आज भी मुस्लिम समुदाय के कई परिवार जलमहल की पाल पर पतंगबाजी करते हैं.

यही नहीं राजा-महाराजाओं के समय में भी यही प्रचलन था. जहां मांझा बनाने वाले कारीगर मुस्लिम समुदाय के थे. वहीं पतंग हिंदू समुदाय के लोग बनाया करते थे. कुल मिलाकर जयपुर का जितना इतिहास रहा है, यहां पतंगबाजी का भी उतना ही पुराना इतिहास है. भले ही समय के साथ-साथ पतंगबाजी आधुनिक हो चली हो, लेकिन इसमें अब भी पौराणिक मान्यताओं का मिश्रण मिलता है.

जयपुर. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मकर सक्रांति को दान-पुण्य का त्यौहार माना गया है. राजधानी जयपुर में इसी दिन पतंग उत्सव भी मनाया जाता है. जिस तरह हर त्योहार का अपना एक इतिहास रहा है, उसी तरह पतंग उत्सव का भी अपना इतिहास है.

जयपुर की पतंगबाजी में पौराणिक और आधुनिक स्वरूप का मिश्रण

इसी इतिहास को जानने के लिए ईटीवी भारत ने इतिहासकार देवेंद्र भगत से खास बातचीत की. उन्होंने बताया, कि पौराणिक काल में भी भगवान श्री कृष्ण के समय दुग्गल उड़ाए जाते थे. इसका उल्लेख भी अलग-अलग ग्रंथों में मिलता है. मौसम को जानने के लिए भी पतंग उड़ाई जाती थी.

मकर सक्रांति गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक

जयपुर का पतंगों के साथ एक विशेष रिश्ता रहा है. कहा जा सकता है, कि जयपुर पतंगबाजी का आधुनिक और पौराणिक स्वरूप का मिश्रण है. सवाई जयसिंह से लेकर सवाई मान सिंह तक के समय जयपुर में पतंगों का इतिहास मिलता है. यहां के दुग्गल बहुत फेमस रहे हैं. सवाई मान सिंह के समय पतंगबाजी को नए आयाम मिले. यही नहीं सिटी पैलेस में आज भी पतंग की कोठी बनी हुई है. जहां सवाई मान सिंह की पतंग, चरखी और डोर रखी हुई है.

पढ़ें- अब सरकार के पास पूर्व मुख्यमंत्रियों से बंगला खाली करवाने के अलावा और कोई चारा नहीं : घनश्याम तिवाड़ी

बताया जाता है, कि मध्यकालीन भारत में उज्बेगु से मांझा बनाने की परंपरा आई. बरेली, मेरठ, बनारस और हरदोई के कारीगर भी आए. तब सवाई प्रताप सिंह ने उन्हें जागीरें भी दीं. जिनके परिवार लक्ष्मण डूंगरी के पास आज भी बसे हुए हैं. ये सभी मुस्लिम समुदाय से हैं और आज भी हल्दियों के रास्ते और हांडीपुरा में दुकानें लगाते हैं. जबकि इससे पहले सवाई माधो सिंह के समय उनकी जो कैबिनेट हुआ करती थी, वो सब भी पतंगबाजी किया करते थे और इनमें जो हारता था, वो भोज कराया करता था.

इतिहासकार देवेंद्र भगत ने बताया, कि मकर सक्रांति पर गलता में स्नान और तिल-गुड़ का दान किया जाता है. हिंदू समुदाय इस त्यौहार को मनाता है. लेकिन पतंगबाजी जयपुर की खासियत है. उन्होंने जयपुर की गंगा-जमुनी तहजीब को लेकर कहा, कि जयपुर में हिंदू-मुस्लिम जुड़े हुए हैं. सांप्रदायिक सौहार्द्र जैसा जयपुर में मिलता है, वैसा दूसरे शहरों में देखने को नहीं मिलता.

पढ़ें- Special: देश का पहला शौर्य उद्यान बना झुंझुनू में, रणबांकुरों के इतिहास और वीरता से हो सकेंगे रू-ब-रू

यही वजह है, कि यहां मांझा बनाने वाले मुस्लिम कारीगरों तक का बड़ा नाम हुआ है. जयपुर में जो धार्मिक ठिकानों पर भी पतंग उड़ा करती थी, उसका मांझा भी मुस्लिम कारीगर ही बनाया करते थे. हिदायतुल्लाह, इनायत खान, उलूख बेग जैसे नाम आज भी याद किए जाते हैं, जो गलता तीर्थ में भी पतंगबाजी किया करते थे. आज भी मुस्लिम समुदाय के कई परिवार जलमहल की पाल पर पतंगबाजी करते हैं.

यही नहीं राजा-महाराजाओं के समय में भी यही प्रचलन था. जहां मांझा बनाने वाले कारीगर मुस्लिम समुदाय के थे. वहीं पतंग हिंदू समुदाय के लोग बनाया करते थे. कुल मिलाकर जयपुर का जितना इतिहास रहा है, यहां पतंगबाजी का भी उतना ही पुराना इतिहास है. भले ही समय के साथ-साथ पतंगबाजी आधुनिक हो चली हो, लेकिन इसमें अब भी पौराणिक मान्यताओं का मिश्रण मिलता है.

Intro:जयपुर - भारत में पतंगबाजी का इतिहास काफी पुराना है। भारत के विभिन्न राज्यों में पतंगों को अलग-अलग समय पर उड़ाया जाता है। इन्हीं पतंगों का जयपुर के साथ भी विशेष रिश्ता है। राजा महाराजाओं के समय से उड़ती आ रही इस पतंग का ना सिर्फ पौराणिक और आधुनिक महत्व है, बल्कि ये जयपुर की गंगा जमुनी तहजीब का प्रतीक भी है।


Body:पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मकर सक्रांति को दान पुण्य का त्यौहार माना गया है। राजधानी जयपुर में इसी दिन पतंग उत्सव भी मनाया जाता है। जिस तरह हर त्योहार का अपना एक इतिहास रहा है, उसी तरह पतंग उत्सव का भी अपना इतिहास है। इसी इतिहास को जानने के लिए ईटीवी भारत में इतिहासकार देवेंद्र भगत से खास बातचीत की। उन्होंने बताया कि पौराणिक काल में भी भगवान श्री कृष्ण के समय दुग्गल उड़ाए जाते थे। इसका उल्लेख भी अलग-अलग ग्रंथों में मिलता है। साथ ही मौसम को जानने के लिए भी पतंग उड़ाई जाती थी।

वहीं जयपुर का पतंगों के साथ एक विशेष रिश्ता रहा है। कहा जा सकता है कि जयपुर पतंगबाजी का आधुनिक और पौराणिक स्वरूप का मिश्रण है। सवाई जयसिंह के लेकर सवाई मानसिंह तक के समय जयपुर में पतंगों का इतिहास मिलता है। यहां के दुग्गल डेढ़ा फेमस रहे हैं। सवाई मान सिंह के समय पतंगबाजी को नए आयाम मिले। यही नहीं सिटी पैलेस में आज भी पतंग की कोठी बनी हुई है। जहां सवाई मानसिंह की पतंग, चरखी और डोर रखी हुई है।

बताया जाता है कि मध्यकालीन भारत में उज़्बेगु से मांझा बनाने की परंपरा आई। बरेली, मेरठ, बनारस और हरदोई के कारीगर भी आए। तब सवाई प्रताप सिंह ने उन्हें जागीरें भी दी। जिनके परिवार लक्ष्मण डूंगरी के पास आज भी बसे हुए हैं। ये सभी मुस्लिम समुदाय से हैं। और आज भी हल्दियों के रास्ते और हांडीपुरा में दुकानें लगाते हैं। जबकि इससे पहले सवाई माधो सिंह के समय उनकी जो कैबिनेट हुआ करती थी, वो सब भी पतंगबाजी किया करते थे। और इनमें जो हारता था वो भोज कराया करता था।

इतिहासकार देवेंद्र भगत ने बताया कि मकर सक्रांति पर गलता में स्नान और तिल गुड़ का दान किया जाता है। और हिंदू समुदाय इस त्यौहार को मनाता है। लेकिन पतंगबाजी जयपुर की खासियत है। वहीं उन्होंने जयपुर की गंगा जमुनी तहजीब को लेकर कहा कि जयपुर में हिंदू-मुस्लिम जुड़े हुए हैं। सांप्रदायिक सौहार्द जैसा जयपुर में मिलता है, वैसा दूसरे शहरों में देखने को नहीं मिलता। यही वजह है कि यहां मांझा बनाने वाले मुस्लिम कारीगरों तक का बड़ा नाम हुआ है। जयपुर में जो धार्मिक ठिकानों पर भी पतंग उड़ा करती थी उसका मांझा भी मुस्लिम कारीगर ही बनाया करते थे। हिदायतुल्लाह, इनायत खान, उलूख बेग जैसे नाम आज भी याद किए जाते हैं। जो गलता तीर्थ में भी पतंगबाजी किया करते थे। और आज भी मुस्लिम समुदाय के कई परिवार जलमहल की पाल पर पतंगबाजी करते हैं। यही नहीं राजा महाराजाओं के समय भी यही प्रचलन था। जहां मांझा बनाने वाले कारीगर मुस्लिम समुदाय के थे। तो वहीं पतंग हिंदू समुदाय के लोग बनाया करते थे।


Conclusion:कुल मिलाकर जयपुर का जितना इतिहास रहा है, यहां पतंगबाजी का भी उतना ही पुराना इतिहास है। भले ही समय के साथ-साथ पतंगबाजी आधुनिक हो चली हो, लेकिन इसमें अभी भी पौराणिक मान्यताओं का मिश्रण मिलता है।
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.