जयपुर. बरसों से सत्ता के मायने को सियासी नजरिये से टटोलने के लिये दिल्ली की तरफ देखने का रिवाज रहा है. राजस्थान में भी फिलहाल ऐसा ही हो रहा है. जहां दोनों प्रमुख दल सत्ताधारी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के प्रमुख नेता दिल्ली दरबार में लगातार हाजिरी दे रहे हैं. सवाल आलाकमान से मुलाकात का हो ही नहीं सकता क्योंकि किसी भी राज्य को रिपोर्ट कार्ड के सिलसिले में अक्सर केन्द्रीय नेतृत्व के सामने होना पड़ता है.
लेकिन इस बार सवाल इससे भी ज्यादा खास है. असल में मसला है प्रदेश में दोनों दलों के अंदर की बेचैनी का. आखिर कौन वो चेहरा होगा जो चुनाव (Rajasthan Vidhansabha Election 2023) से पहले पार्टी की कमान अपने हाथ में लेगा और हार-जीत के सेहरे को बांधने के लिये पूरी तरह तैयार होगा. चुनौती इस बात की भी होगी कि क्या सूबे की अवाम उस चेहरे पर अपना भरोसा कायम रखेगी. फिलहाल नजर इस बात पर है कि वसुंधरा राजे की मौजूदगी में दिल्ली (Vasundhara Raje in Delhi) में मंगलवार को हुई बैठक का क्या इस राजनीतिक उठापटक से कोई लेनदेन है और क्या बाकी चर्चाओं के बीच अशोक गहलोत का बुधवार सुबह दिल्ली (Ashok Gehlot Delhi Tour) जाना भी नये दौर की राजनीति का संकेत होंगे, जो प्रदेश के इतिहास में दर्ज हो पाए.
बीजेपी की पसोपेश भारी: भारतीय जनता पार्टी को कैडर बेस्ड पार्टी कहा जाता है, लिहाजा आम तौर पर यह माना जाता है कि आलाकमान ही यहां सर्वेसर्वा होगा. लेकिन राजस्थान की सियासत में जब वसुंधरा राजे की एंट्री हुई तब उनके साथ राज की गवाह जनता ने मुखालफत के दौर को भी करीब से देखा है. रातों-रात बगावत के बाद पार्टी के टूटने का खतरा हो गया. इस घटना के एक दशक बाद भी संगठन हमेशा चेहरे की लड़ाई के बीच इस घटनाक्रम को लेकर आशंकित रहा है. ऐसे में पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया, नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया और संगठन महामंत्री चंद्रशेखर के साथ वसुंधरा राजे का दिल्ली में आलाकमान के साथ मिलना, आम बात तो नहीं हो सकता है. बैठक में भाग लेने वाले नेताओं का इस सिलसिले में बयान देने से बचना भी इशारा है कि कुछ तो हुआ है, जो फिलहाल अधपका है.
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ऐसा नहीं है कि अंदरखाने जो कुछ हो रहा है उसकी भनक बाहर नहीं लग रही है, वरना करौली-धौलपुर के मसले पर पार्टी के नेताओं का अलग-अलग फ्रंट पर खड़ा होना मुमकिन नहीं रहता. लिहाजा आलाकमान को कहना पड़ा कि कांग्रेस मुक्त भारत के लिये एकजुट रहना जरूरी है. 2023 की फतेह इतनी आसान भी नहीं होगी क्योंकि अशोक गहलोत कांग्रेस के चंद मजबूत चेहरों में हैं और उनसे शह-मात के खेल की एक बाजी में शिकस्त का जिक्र बार-बार गहलोत सार्वजनिक मंच पर करते रहे हैं. एक बात और भी है 8 मार्च से सक्रिय पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की रणनीति का तोड़ फिलहाल पार्टी में ऊपर से नीचे तक नहीं दिख रहा है. उनका सांसद अर्जुन मीणा से मिलने जाना और साथ में गुलाबचंद कटारिया का होना भी खासा अहम है. ऐसे में चेहरे पर आलाकमान की मुहर या मोदी का होना ही मुमकिन है, पर प्रदेश में नेताओं की पसोपेश इस फैसले के साथ बढ़ना लाजमी भी है.
कांग्रेस की कसरत में कसर बाकी : राजस्थान की कांग्रेस में बीजेपी के मुकाबले हालात बेहतर नहीं कहे जा सकते हैं. सचिन पायलट के साथ अशोक गहलोत की अदावत (Tussle between Gehlot and Pilot) से भला कौन बेखबर होगा? ऐसे दौर में अशोक गहलोत दिल्ली जाकर पहली बार किसी राजनीतिक पंडित के साथ कांग्रेस के गठजोड़ की बात को सीधे तौर पर स्वीकार करते हैं, तो यह संकेत है कि कांग्रेस अपना अंदाज बदलने के लिये तैयार है. लेकिन इसमें वक्त कितना लगने वाला है, फिलहाल इसकी मियाद तय नहीं हो सकती है. प्रशांत किशोर के अंदाज में कांग्रेस का हाथ क्या कमल को रौंद देगा, यह कहना भी जल्दबाजी होगी. लेकिन बीते दिनों जयपुर से बाहर अशोक गहलोत और पीके की मुलाकात के चर्चे सियासी गलियारों की खबरों में सुर्खियों का हिस्सा रहे थे.
इसके बाद गहलोत और छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल दिल्ली में फिर पीके (Gehlot meets Prashant Kishor in Delhi) से मिले. इसके पहले लगातार 10 जनपथ पर उनकी आवाजाही को दर्ज किया गया. खैर नई रणनीति राष्ट्र के लिहाज से होगी और राजस्थान की तरफ देखें तो कांग्रेस को बीजेपी के मुकाबले में खड़ा होने के लिए भारी कसरत करनी होगी. जिस तरह से करौली से दंगों के बाद पलायन का मसला बीजेपी ने उठाया, जाहिर है कि कांग्रेस वक्त पर इसका आकलन नहीं कर सकी. इसी तरह धौलपुर में सरकारी कारिंदे से विधायक के कथित संरक्षण में मारपीट का मामला, अपनों के सवालों में लगातार घिरे रहना गहलोत के लिए बेहतर माहौल का संकेत तो बिलकुल नहीं हो सकता है. ऐसे में दिल्ली के दौरे से लौटे गहलोत के अंदाज ही बताएंगे कि ऊंट किस करवट बैठने वाला है.
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बहरहाल, एक तस्वीर फिर से सियासी हलकों की चर्चा में शामिल होनी चाहिए, जिसमें कांग्रेस विधायक सचिन पायलट और पर्यटन मंत्री विश्वेन्द्र सिंह के बेटे अनिरुद्ध सिंह (Sachin Pilot and Anirudh Singh) नजर आते हैं. तस्वीर संभवत पायलट के भरतपुर दौरे की मुलाकात से जुड़ी हो सकती है, लेकिन इसमें लिखा गया कैप्शन 'खेला होबे रे' बंगाल की ममता के तेवर जैसा न होने के बावजूद नजर अंदाज करने लायक नहीं है. इस तस्वीर को अनिरुद्ध ने ही ट्वीट किया था. इसी तरह पायलट का बीते दिनों वरिष्ठ नेताओं के साथ उदयपुर संभाग में न जाना भी एक सवाल है. आखिर दिल्ली के लगातार दौरे, राहुल-प्रियंका से मुलाकात के बाद उनके हाथ क्या लगा होगा ? माना जा रहा है कि गुजरात चुनाव के लिहाज से कांग्रेस अपना चिंतन उदयपुर (Congress Chintan Shivir in Udaipur) की आबोहवा में करेगी ताकि सरहदी राज्य गुजरात को भी साध लिया जाए. लेकिन नजरें राजस्थान पर मंथन के लिहाज से भी टिकी रहेगी.
राजस्थान में कमोबेश किसी भी राजनीतिक दल के लिए सत्ता में वापसी की गुंजाइश को आमतौर पर एंटी इनकम्बेंसी के फैक्टर से जोड़कर देखा जाता रहा है. लेकिन 2018 का चुनाव और नतीजे बताते हैं कि नतीजे क्यों अलग रहे थे. इस बार 2023 के लिए समर का बिगुल दोनों दलों ने बजाने की तैयारी पूरी करने के लिये जान झोंक रखी है. एक तरफ मोदी का फैक्टर है तो दूसरी तरह PK की पॉलिटिक्स. बाजी में शह मात वक्त पर होगी लेकिन मुकाबला बहरहाल दिलचस्प दिख रहा है.