बीकानेर. बिश्नोई पंथ के संस्थापक गुरु जांभोजी का व्यक्तित्व बहुआयामी रहा. कहा जाता है कि वह साक्षात विष्णु भगवान के अवतार थे और भक्त प्रहलाद को दिए वचन के अनुसार बारह करोड़ जीवों के उद्धार के लिए उनका अवतार हुआ था. 29 नियमों का बिश्नोई धर्म में काफी महत्व है और गुरु जंभेश्वर भगवान ने इन 29 नियमों (The 29 Rules of Bishnoi) के साथ ही पंथ की स्थापना की थी. हालांकि यह 29 नियम मानव मात्र के लिए हैं और किसी जाति विशेष का संबंध नहीं है, लेकिन बिश्नोई पंथ इन 29 नियमों की बड़ी कड़ाई से पालना करता है.
बाल्यकाल में असाधारण चमत्कार: बिश्नोई पंथ के संस्थापक जंभेश्वर का जन्म विक्रम संवत 1508 भादो मास की अष्टमी को नागौर से 45 किलोमीटर दूर पीपासर गांव में हुआ था. जांभाणी साहित्य अकादमी की ओर से प्रकाशित पुस्तक बिश्नोई पंथ और साहित्य में किये उल्लेख के मुताबिक गुरु जंभेश्वर ने 7 वर्ष की आयु में पहली बार अपने मुंह से शब्द बोला और उसे ही 'सबदवाणी' का प्रथम 'सबद' कहा जाता है. बाल्यकाल में ही गुरु जंभेश्वर के कई चमत्कार करने का उल्लेख विश्नोई पंथ के कवियों ने किया है. गुरु जंभेश्वर के जीवनकाल को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है. जिनमें बाल्यकाल, पशुचारण काल, बिश्नोई पंथ की स्थापना, उपदेश काल के साथ ही समाज सुधार, जीव दया और वृक्ष रक्षा के संदेश के साथ की गई यात्राओं का भी महत्व है.
पंथ की स्थापना और 29 नियम: विक्रम संवत 1542 में कार्तिक मास की अष्टमी को गुरु जंभेश्वर ने समराथल धोरे पर कलश की स्थापना करके लोगों को पाहळ (अभिमन्त्रित जल) देकर बिश्नोई पंथ की स्थापना की. 29 नियमों में पर्यावरण रक्षा के साथ ही प्राणी मात्र पर दया करना, शाकाहारी रहने और जीव दया करने का भी नियम है. इसी के चलते विश्नोई समाज पूरी दुनिया में अपने आप में मिसाल है. पर्यावरण की रक्षा और जीवों के प्रति प्रेम का भाव का दूसरा उदाहरण और कहीं नहीं मिलता है.
पाहळ का महत्व: पाहळ का महत्व विश्नोई पंथ में इतना है कि प्रतीक संस्कार पर हवन एवं पाहळ का होना अनिवार्य है. आज भी किसी भी विश्नोई के घर में बच्चे के जन्म पर बच्चा भी पाहळ के द्वारा ही विश्नोई बनता है. अखिल भारतीय जीव रक्षा बिश्नोई सभा के प्रवक्ता शिवराज विश्नोई कहते हैं कि जन्म के बाद बच्चा और मां को 30 दिन तक ऊतक की पालना करनी होती है. उसके बाद पाहळ संस्कार होता है. पाहळ ग्रहण करने के बाद ही वह विश्नोई पंथ में शामिल होता है.
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51 वर्ष तक तपस्या और उपदेश: शिवराज विश्नोई कहते हैं कि 51 वर्ष तक समराथल धोरे पर धर्म उपदेश देने के साथ ही उन्होंने कई यात्राएं की. प्राणी और जीव मात्र की रक्षा और पर्यावरण के संरक्षण को लेकर उन्होंने जो बातें कहीं, वे आज के युग में भी प्रासंगिक हैं. वे कहते हैं कि गुरु जंभेश्वर विष्णु भगवान के अवतार से और भक्त प्रहलाद को दिए वादे के अनुरूप 12 करोड़ जीवों का उद्धार करने के लिए अवतरित हुए थे. इन जीवों के उद्धार के लिए उन्होंने कई जगह की यात्राएं कीं.
काबुल से श्रीलंका तक की यात्रा: जांभाणी साहित्य अकादमी के प्रवक्ता विनोद जम्भदास कहते हैं अपने जीवन काल के पहले 7 वर्ष तक वह मौन रहे और उसके बाद 27 साल तक पशु चारण का निर्वहन किया. वे कहते हैं कि गुरु जंभेश्वर पर लिखे गए साहित्य में इस बात का जिक्र है कि उन्होंने तपस्या और धर्म उपदेश के दौरान कई देशों की यात्राएं की. जिसमें काबुल, श्रीलंका, इराक, ईरान का क्षेत्र भी शामिल है. सिकंदर लोदी से लेकर राव दूदा को दिए गए उनके पर्चे यानी कि चमत्कार का उल्लेख भी उन पर लिखे गए साहित्य में मिलता है.
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आस्था का केंद्र मुकाम: गुरु जंभेश्वर ने वर्तमान नोखा के लालासर गांव के पास ही जंगल में स्थित एक कंकेडी खेड़ी के पास अपना शरीर त्याग दिया था. इस दौरान बड़ी संख्या में उनके शिष्यों और अन्य लोगों ने उनके साथ ही अपने प्राण त्याग दिए. लालासर साथरी से उनके भौतिक शरीर को मुकाम में समाधिस्थ किया गया. तब से मुकाम बिश्नोई समाज की आस्था का केंद्र है. लालासर साथरी में गुरु जंभेश्वर ने शरीर को त्यागा था और समराथल धोरे पर धर्म उपदेश दिया. ऐसे में यह तीनों स्थान ही विश्नोई पंथ के लिए महत्वपूर्ण हैं और हर साल लाखों लोग मुकाम में आकर धोक लगाते हैं. इसके अलावा जहां-जहां गुरु जंभेश्वर गए, उन सभी स्थानों को भी बिश्नोई पंथ के लोग तीर्थ स्थान की भांति मानते हैं.
वर्तमान परिदृश्य में पर्यावरण संरक्षण और जैव विविधता को लेकर बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं और अब मानव जीवन पर आए संकट को समझते हुए सरकारें भी गंभीर हुई हैं. लेकिन आज से करीब 571 वर्ष पूर्व गुरु जंभेश्वर ने लोगों को इन बातों को न सिर्फ समझाया बल्कि अपनाने की भी सलाह दी और खुद आजीवन उसका निर्वहन किया. आज भी विश्नोई पंथ के लोग अपने गुरु के बताए इन रास्तों पर चलते हुए पर्यावरण संरक्षण और जीव हत्या से दूर रहने का संदेश देते हैं. कई बार ऐसे मौके भी आए हैं जब पेड़ों को बचाने और जीवों की हत्या को रोकने के लिए उन्होंने बलिदान भी दिया है.