बीकानेर. रेगिस्तान का जहाज कहे जाने वाला ऊंट आज भी सुदूर रेगिस्तानी इलाकों में परिवहन का एकमात्र जरिया है. कई दिन तक बिना पानी के रहने की क्षमता रखने वाले ऊंट के खून से जल्द ही सांप के काटे का इलाज हो (Drug of snake bite from camel blood) सकेगा. जी हां, भारत सरकार की योजना के तहत बीकानेर के सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज में डॉ पीडी तंवर के नेतृत्व में राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र और एक निजी रिसर्च कंपनी इस पर शोध कर रही है. कई सालों के शोध के बाद अब इसके उत्साहजनक परिणाम भी सामने आए हैं.
बीकानेर के सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन विभाग के स्पेशलिस्ट डॉ पीडी तंवर के नेतृत्व में पिछले करीब 12-13 सालों से शोध पर काम चल रहा है. हालांकि बीच कई बार अलग-अलग कारणों से इस शोध को रोकना पड़ा. तो वहीं कोरोना महामारी के चलते 2 साल शोध पूरी तरह से रूक गया. लेकिन अब इस शोध में सफलता मिलने की बात सामने आ रही है.
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उत्साहजनक परिणाम: डॉ तंवर ने बताया कि अफ्रीका, ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के अलावा भारत में ऊंट के खून से सांप के काटे की दवा को लेकर शोध हो रहा है. हालांकि रिसर्च से जुड़े तथ्यों पर बोलने की बंदिश होने के चलते रिसर्च को लेकर उन्होंने ज्यादा बोलने से इंकार कर दिया. उन्होंने बताया कि अभी यह शोध पूरा अंतिम चरण में है और अधिकृत जानकारी शोध के अंतिम परिणाम पर ही दी जा सकेगी. लेकिन इसके परिणाम उत्साहजनक हैं. इस शोध में एंटीबॉडी टेस्ट किया गया है और इसके परिणाम उत्साहजनक रहे हैं और अब अगले चरण में शोध चल रहा है.
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देश में हर साल होती हजारों मौतें: देश में हर साल सांप के काटने से हजारों मौतें होती हैं. डॉ तंवर कहते हैं कि देश में हर साल सांप काटने से होने वाली मौतों को लेकर इंडियन कॉउंसिल मेडिकल रिसर्च सर्वे करवा रही है. इससे पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से सर्वे करवाया गया था. इसमें सामने आया था कि हर साल 50 हजार की मौत होती है. भारत सरकार इससे सहमत नहीं थी. हालांकि वे कहते हैं कि सांप के काटने से बचने वाले लोग भी शारीरिक रूप से अक्षम रह जाते हैं.
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करीब सवा सौ साल पहले हुई थी खोज: डॉ तंवर ने कहा कि सांप के काटे के इलाज की वैक्सीन 1895 में आई थी जो घोड़ों के खून से तैयार हुई थी. उन्होंने कहा कि इसके बारे में आगे कभी रिसर्च नहीं हुआ और यही वैक्सीन काम आ रही है. वे कहते हैं कि इस वैक्सीन के साइड इफेक्ट देखने को मिले हैं. जिसके चलते ग्रामीण क्षेत्रों में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर इसकी उपलब्धता होने के बावजूद भी कई बार डॉक्टर इसे काम लेने से हिचकिचाते हैं.