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अजमेर से स्पेशल रिपोर्ट: इलेक्ट्रॉनिक्स चकाचौंध में कहीं गुम हो रही है मिट्टी के दीये जलाने की परंपरा - अजमेर से स्पेशल रिपोर्ट

मान्यता है कि लंका विजय कर भगवान श्री राम जब अयोध्या लौटे थे तो उनके स्वागत में प्रजा ने हर मार्ग और घर को मिट्टी के दीये जलाकर रोशन कर दिया था. धार्मिक आस्था के अनुरूप मिट्टी के दीये जलाने की परंपरा सदियों पुरानी है. मिट्टी के दीये की रोशनी इलेक्ट्रॉनिक लड़ियों या मोमबत्तियों से कम रहती है. लेकिन हर एक दीया हमें हमारी परंपराओं से ना केवल जोड़े रखता है बल्कि हमें हमारी मिट्टी से जुड़े रहने की सीख भी देता है. अजमेर से देखिए स्पेशल रिपोर्ट....

Special report Ajmer, clay lamps on Deepawali
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Published : Oct 22, 2019, 11:08 PM IST

Updated : Oct 24, 2019, 3:05 PM IST

अजमेर. दीपावली खुशियों का त्योहार है. इस पावन पर्व पर घर को रोशनी से रोशन करने की परंपरा रही है. सदियों से घर को रोशन करने के लिए कुम्हार के बनाये मिट्टी के दीये जलाए जाते रहे है. मगर आधुनिकता की चकाचौंध में हम हमारी मिट्टी से दूर होते जा रहे है. यानी हमारी परंपराओं को भूलते जा रहें. बेशक मिट्टी के दीयो में इलेक्ट्रॉनिक लड़ियों के मुकाबले रोशनी कम है, लेकिन इन दीयों से सदियों पुरानी परम्पराओं का आत्मीय अनुभव होता है. जो बनावटी रोशनी से नहीं मिल सकता. आज भी कई लोग हैं जो मिट्टी के दीये जलाकर दीपावली की खुशियां मनाते हैं.

इलेक्ट्रॉनिक्स चकाचौंध में कहीं गुम हो रही है मिट्टी के दीये जलाने की परंपरा

चाइनीज सामान ने छीना कुम्भकारों का रोजगार
क्या आप जानते है कि इन मिट्टी के दीयों के लिए कितनी मेहनत की जरूरत है. मिट्टी को रौंदकर उसको आकार देने में जो मेहनत लगती है उसका अंदाजा लगाना भी बहुत मुश्किल है. बढ़ती आधुनिकता की वजह से कई परिवार है. जिन्होंने अपना पुश्तैनी काम ही छोड़ दिया है. अजमेर में चंद परिवार बच्चे हैं, जो आज भी मिट्टी के दीये बनाते है. फूलचंद प्रजापत का परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी मिट्टी के दिए और बर्तन बनाता आया है.

फूल चंद बताते हैं कि मिट्टी के दीये बनाने में एक व्यक्ति को नहीं बल्कि पूरे परिवार को जुटना पड़ता है. उन्होंने बताया कि चाइनीज आइटम की वजह से उनका रोजगार छीन गया है. वहीं रही सही कसर गुजरात से आने वाले मिट्टी और पीओपी से निर्मित डिजाइनर दीयों ने पूरी कर दी. इस कारण मिट्टी के दीये कम बिकते है. इसलिए नई पीढ़ी इस काम में आना ही नहीं चाहती. वहीं फूल चंद प्रजापत बताते हैं कि राजस्थान सरकार ने मिट्टी कला बोर्ड बनाने की घोषणा की थी. लेकिन उसका कोई फायदा नहीं मिल रहा है. जबकि मध्य प्रदेश सरकार कुम्हारों की आजीविका के लिए बहुत कुछ कर रही है.

पढ़ें- खास रिपोर्ट: हमारे मिट्टी के दीयों की रोशनी और कुंभकारों के रोजगार को छीन ले गया चीन

पुश्तैनी कारोबार छोड़ने के लिए मजबूर कुम्हार समाज
रोजगार की मजबूरी ने कुम्हार समाज को अपनी पुश्तैनी कारोबार छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया है. वहीं कुम्हार समाज में ही पढ़े लिखे बेरोजगार को मजबूरन अपना पुश्तैनी कार्य अपनी आजीविका चलाने के लिए करना पड़ रहा है. रवि प्रजापति ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है. नौकरी नहीं मिलने पर रवि अपने भाइयों के साथ पुश्तैनी काम कर रहा है, मगर वो संतुष्ट नहीं है. रवि प्रजापत बताते हैं कि लोगों में मिट्टी के दीये खरीदने का क्रेज काफी कम हो गया है. इसलिए पेट भरने जितना ही वह कमा पाता है..

इस बार दीपावली मिट्टी के दीये जलाकर मनाएं
आधुनिकता की दौड़ में कुम्हार की चाक की रफ्तार भी धीमी पड़ गई है. हालांकि परम्परागत पत्थर की चाक की जगह अब बिजली से चलने वाली चाक का चलन शुरू हो गया है. मगर इसकी रफ्तार भी कुम्हारों को अपने पुश्तैनी कारोबार से जोड़ने में सहायक नहीं हो पा रही है. दीपावली पर मिट्टी के दीपक की बिक्री से कुम्हार परिवारों की सालभर की आजीविका जुड़ी रहती है. ऐसे में इस काम से जुड़े लोगों से उम्मीद है कि मिट्टी के महत्व को समझते हुए वे यह दीपावली मिट्टी के दीये जलाकर मनाएंगे. ताकि दीपावली की खुशियों से कुम्हारों के घर भी उजाला आ सके.

पढ़ें- स्पेशल रिपोर्ट: राजस्थान का ऐसा गांव...जहां हर घर में बनते हैं मिट्टी के बर्तन

ईटीवी भारत की दर्शकों से अपील
ईटीवी भारत सभी दर्शकों से अपील करता है कि इस बार दीपावली पर मिट्टी के दीपक जरूर जलाएं. ताकि कुम्हार समुदाय के चूल्हे की रोशनी उनके भूखे पेट तक पहुंच जाएं. दिवाली पर आपका द्वारा जलाया गया एक मिट्टी का दीपक कुम्हार को हौसला भी देगा और हर दिवाली यूं ही सबके घर में दिवाली की रोशनी नजर आएगा.

अजमेर. दीपावली खुशियों का त्योहार है. इस पावन पर्व पर घर को रोशनी से रोशन करने की परंपरा रही है. सदियों से घर को रोशन करने के लिए कुम्हार के बनाये मिट्टी के दीये जलाए जाते रहे है. मगर आधुनिकता की चकाचौंध में हम हमारी मिट्टी से दूर होते जा रहे है. यानी हमारी परंपराओं को भूलते जा रहें. बेशक मिट्टी के दीयो में इलेक्ट्रॉनिक लड़ियों के मुकाबले रोशनी कम है, लेकिन इन दीयों से सदियों पुरानी परम्पराओं का आत्मीय अनुभव होता है. जो बनावटी रोशनी से नहीं मिल सकता. आज भी कई लोग हैं जो मिट्टी के दीये जलाकर दीपावली की खुशियां मनाते हैं.

इलेक्ट्रॉनिक्स चकाचौंध में कहीं गुम हो रही है मिट्टी के दीये जलाने की परंपरा

चाइनीज सामान ने छीना कुम्भकारों का रोजगार
क्या आप जानते है कि इन मिट्टी के दीयों के लिए कितनी मेहनत की जरूरत है. मिट्टी को रौंदकर उसको आकार देने में जो मेहनत लगती है उसका अंदाजा लगाना भी बहुत मुश्किल है. बढ़ती आधुनिकता की वजह से कई परिवार है. जिन्होंने अपना पुश्तैनी काम ही छोड़ दिया है. अजमेर में चंद परिवार बच्चे हैं, जो आज भी मिट्टी के दीये बनाते है. फूलचंद प्रजापत का परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी मिट्टी के दिए और बर्तन बनाता आया है.

फूल चंद बताते हैं कि मिट्टी के दीये बनाने में एक व्यक्ति को नहीं बल्कि पूरे परिवार को जुटना पड़ता है. उन्होंने बताया कि चाइनीज आइटम की वजह से उनका रोजगार छीन गया है. वहीं रही सही कसर गुजरात से आने वाले मिट्टी और पीओपी से निर्मित डिजाइनर दीयों ने पूरी कर दी. इस कारण मिट्टी के दीये कम बिकते है. इसलिए नई पीढ़ी इस काम में आना ही नहीं चाहती. वहीं फूल चंद प्रजापत बताते हैं कि राजस्थान सरकार ने मिट्टी कला बोर्ड बनाने की घोषणा की थी. लेकिन उसका कोई फायदा नहीं मिल रहा है. जबकि मध्य प्रदेश सरकार कुम्हारों की आजीविका के लिए बहुत कुछ कर रही है.

पढ़ें- खास रिपोर्ट: हमारे मिट्टी के दीयों की रोशनी और कुंभकारों के रोजगार को छीन ले गया चीन

पुश्तैनी कारोबार छोड़ने के लिए मजबूर कुम्हार समाज
रोजगार की मजबूरी ने कुम्हार समाज को अपनी पुश्तैनी कारोबार छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया है. वहीं कुम्हार समाज में ही पढ़े लिखे बेरोजगार को मजबूरन अपना पुश्तैनी कार्य अपनी आजीविका चलाने के लिए करना पड़ रहा है. रवि प्रजापति ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है. नौकरी नहीं मिलने पर रवि अपने भाइयों के साथ पुश्तैनी काम कर रहा है, मगर वो संतुष्ट नहीं है. रवि प्रजापत बताते हैं कि लोगों में मिट्टी के दीये खरीदने का क्रेज काफी कम हो गया है. इसलिए पेट भरने जितना ही वह कमा पाता है..

इस बार दीपावली मिट्टी के दीये जलाकर मनाएं
आधुनिकता की दौड़ में कुम्हार की चाक की रफ्तार भी धीमी पड़ गई है. हालांकि परम्परागत पत्थर की चाक की जगह अब बिजली से चलने वाली चाक का चलन शुरू हो गया है. मगर इसकी रफ्तार भी कुम्हारों को अपने पुश्तैनी कारोबार से जोड़ने में सहायक नहीं हो पा रही है. दीपावली पर मिट्टी के दीपक की बिक्री से कुम्हार परिवारों की सालभर की आजीविका जुड़ी रहती है. ऐसे में इस काम से जुड़े लोगों से उम्मीद है कि मिट्टी के महत्व को समझते हुए वे यह दीपावली मिट्टी के दीये जलाकर मनाएंगे. ताकि दीपावली की खुशियों से कुम्हारों के घर भी उजाला आ सके.

पढ़ें- स्पेशल रिपोर्ट: राजस्थान का ऐसा गांव...जहां हर घर में बनते हैं मिट्टी के बर्तन

ईटीवी भारत की दर्शकों से अपील
ईटीवी भारत सभी दर्शकों से अपील करता है कि इस बार दीपावली पर मिट्टी के दीपक जरूर जलाएं. ताकि कुम्हार समुदाय के चूल्हे की रोशनी उनके भूखे पेट तक पहुंच जाएं. दिवाली पर आपका द्वारा जलाया गया एक मिट्टी का दीपक कुम्हार को हौसला भी देगा और हर दिवाली यूं ही सबके घर में दिवाली की रोशनी नजर आएगा.

Intro:अजमेर। मान्यता है कि लंका विजय कर भगवान श्री राम जब अयोध्या लौटे थे तो उनके स्वागत में प्रजा ने हर मार्ग और घर को मिट्टी के दीये जलाकर रौशन कर दिया था। धार्मिक आस्था के अनुरूप मिट्टी के दीये जलाने की परंपरा सदियों पुरानी है। मिट्टी के दीये की रौशनी इलेक्ट्रॉनिक लड़ियों या मोमबत्तियों से कम रहती है। लेकिन हर एक दीया हमे हमारी परंपराओं से ना केवल जोड़े रखता है बल्कि हमे हमारी मिट्टी से जुड़े रहने की सीख भी देता है। अजमेर से विशेष खबर दीये बिना कैसी दीवाली।

दीपावली खुशियों का त्यौहार है। इस पावन पर्व पर घर को रोशनी से रोशन करने की परंपरा रही है। सदियों से घर को रौशन करने के लिए कुम्हार के बनाये मिट्टी के दीये जलाए जाते रहे है। मगर आधुनिकता की चकाचौन्ध में हम हमारी मिट्टी से दूर होते जा रहे है। यानी हमारी परंपराओं को भूलते जा रहे। बेशक मिट्टी के दीयो में इलेक्ट्रॉनिक लड़ियों के मुकाबले रौशनी कम है लेकिन इन दीयों से सदियों पुरानी परम्पराओं का आत्मीय अनुभव होता है वो बनावटी रौशनी से नही मिल सकता। आज भी कई लोग हैं जो मिट्टी के दीये जलाकर दीपावली की खुशियां मनाते हैं...
बाइट- चंचल - खरीदार

क्या आप जानते है कि इन मिट्टी के दीयो के लिए कितनी मेहनत की जरूरत है। मिट्टी को रौंदकर उसको आकार देने में जो मेहनत लगती है उसका अंदाजा लगाना भी बहुत मुश्किल है। बढ़ती आधुनिकता की वजह से कई परिवार है जिन्होंने अपना पुश्तैनी काम ही छोड़ दिया है। अजमेर में चंद परिवार बच्चे हैं जो आज भी मिट्टी के दीये बनाते है। फूलचंद प्रजापत का परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी मिट्टी के दिए और बर्तन बनाता आया है। फूल चंद बताते हैं कि मिट्टी के दीये बनाने में एक व्यक्ति को नहीं बल्कि पूरे परिवार को जुटना पड़ता है। उन्होंने बताया कि चाइनीज आइटम की वजह से उनका रोजगार छीन गया है। वही रही सही कसर गुजरात से आने वाले मिट्टी और पीओपी से निर्मित डिजाइनर दीयो ने पूरी कर दी। इस कारण मिट्टी के दीये कम बिकते है। इसलिए नई पीढ़ी इस काम में आना ही नही चाहती ....
बाइट- फूल चंद प्रजापत- कुम्हार

फूल चंद प्रजापत बताते हैं कि राजस्थान सरकार ने मिट्टी कला बोर्ड बनाने की घोषणा की थी लेकिन उसका कोई फायदा नहीं मिल रहा है। जबकि मध्य प्रदेश सरकार कुम्हारों की आजीविका के लिए बहुत कुछ कर रही है ....
बाइट- फूलचंद प्रजापत- कुम्हार

रोजगार की मजबूरी ने कुम्हार समाज को अपनी पुश्तैनी कारोबार छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया है। वही कुम्हार समाज में ही पढ़े लिखे बेरोजगार को मजबूरन अपना पुश्तैनी कार्य अपनी आजीविका चलाने के लिए करना पड़ रहा है। रवि प्रजापति ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। नोकरी नही मिलने पर रवि अपने भाइयों के साथ पुश्तैनी काम कर रहा है मगर वो संतुष्ठ नही है। रवि प्रजापत बताते है कि लोगों में मिट्टी के दीये खरीदने का क्रेज काफी कम हो गया है। इसलिए पेट भरने जीतना ही वह कमाया पाता है...
बाइट- रवि प्रजापत- कुम्हार

आधुनिकता की दौड़ में कुम्हार की चाक की रफ्तार भी धीमी पड गई है। हालांकि परम्परागत पत्थर की चाक की जगह अब बिजली से चलने वाली चाक का चलन शुरू हो गया है। मगर इसकी रफ्तार भी कुम्हारों को अपने पुश्तैनी कारोबार से जोड़ने में सहायक नही हो पा रही है ...
बाइट- राहुल प्रजापत- कुम्हार

दीपावली पर मिट्टी के दीपक की बिक्री से कुम्हार परिवारो की सालभर की आजीविका जुड़ी रहती है। ऐसे में कुम्हार परिवारों को लोगों से उम्मीद है कि मिट्टी के महत्व को समझते हुए वे यह दीपावली मिट्टी के दीये जलाकर मनाएंगे। ताकि दीपावली की खुशियों से कुम्हारों के घर भी आ सके।







Body:प्रियांक शर्मा
अजमेर


Conclusion:
Last Updated : Oct 24, 2019, 3:05 PM IST
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