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स्पेशल: ख्वाजा गरीब नवाज की चौखट से जन्मी है कव्वाली, सूफी का साथ बनाता है इसे रुहानी

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Published : Feb 29, 2020, 12:35 PM IST

अजमेर में सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह से कव्वाली का गहरा नाता रहा है. कव्वाली का सिलसिला ख्वाजा गरीब नवाज के समय से ही शुरू हुआ था. सूफी और कव्वाली का चोली और दामन का साथ है. ईटीवी भारत पर देखिए अजमेर शरीफ से यह विशेष खबर.

ख्वाजा गरीब नवाज के दर पर कव्वाली, Qawwali at Khwaja Garib Nawaz
ख्वाजा गरीब नवाज के दर पर कव्वाली

अजमेर. सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह से कव्वाली का गहरा नाता रहा है. ख्वाजा गरीब नवाज को भी कव्वाली पसंद थी. यही वजह है कि दरगाह में सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी शाही कव्वाल कव्वालियां पेश करते आए हैं. खासकर उर्स के मौके पर दीवान की सदारत में होने वाली महफिल में परंपरागत कव्वालियां होती है.

कव्वालियों का सिलसिला ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह से शुरू हुआ है. जानकार लोग मानते है कि अपने मौला की तारीफ में पढ़े गए कलाम ने धीरे-धीरे कव्वाली की शक्ल ले ली. दरगाह के खादिम हाजी पीर सैयद फकर काजमी बताते है कि ख्वाजा गरीब नवाज जब अजमेर आए तब हर खुशी के मौके पर राजस्थान में गाने बजाने का दौर था. उस वक्त मौला की तारीफ में पढ़े जाने वाले कलाम को भी वाद्य यंत्रों की धुनों के साथ गाया जाने लगा, तब से कव्वालियों का सिलसिला आगे बढ़ा.

ख्वाजा गरीब नवाज के समय से शुरू हुआ था कव्वाली का सिलसिला

पढ़ें- अजमेर: भारी सुरक्षा के बीच ख्वाजा की नगरी पहुंचा 212 पाक जायरीनों का जत्था

काजमी ने बताया कि तीन प्रकार से कव्वाली गाई जाती है, जिसमें हमद में खुदा की तारीफ होती है, नात में मोहम्मद रसूल अल्लाह की तारीफ होती है और कौल में मौला कायनात की तारीफ होती है. उन्होंने बताया कि कव्वाली में गाए जाने वाले कलामों को सुनकर सुनने वाला अपने खुदा की मोहब्बत में इतना डूब जाता है कि उसे खुदा के अलावा कुछ याद नहीं रहता. कव्वाली इबादत का जरिया है जो खुदा से जोड़ता है.

यूं तो दरगाह में आम दिनों में भी कव्वाली होती है लेकिन उर्स के दौरान महफिल खाने में होने वाली कव्वालियां परंपरागत होती है. यह वो कव्वालियां है जो सदियों से दरगाह में गाई जाती रही है. काजमी बताते है कि सूफी और कव्वाली एक दूसरे से जुड़े हुए है. यानी इनका चोली दामन का साथ है. उन्होंने बताया कि सूफियत में इंसान खुदा की राह पर चलकर अपनी आत्मा की सफाई करना शुरू कर देता है. उन्होंने बताया कि लोग कहते है कव्वाली सुनाओ जबकि लोगों को यह नहीं मालूम की कव्वाली नहीं कलाम सुनाने के लिए कहा जाता है.

पढ़ें- स्पेशल: ख्वाजा गरीब नवाज की मजार शरीफ पर होती है गुसल देने की रस्म, बुरी बलाओं से मिलती है सफा

यूं तो देश और दुनिया में कई मशहूर कव्वाल है जो अपनी गायकी से जाने जाते है. उन सभी कव्वालों की भी दिली तमन्ना रहती है कि वो ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह में कव्वाली गाएं. ऐसे भी कव्वाल है जिन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी दरगाह में रोज कव्वाली पेश करते आए है, जिन्हें शाही कव्वाल कहा जाता है.

शाही कव्वाल कुर्बान हुसैन बताते है कि परंपरागत कव्वालियां दरगाह में खास मौकों पर ही गाई जाती है. सूफी और कव्वाली दोनों ही खुदा की राह पर जाने का जरिया है. यह इंसान और उसकी नियत पर निर्भर है कि वो इस जरिए से अपने खुदा के कितने करीब पहुंच पाता है.

अजमेर. सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह से कव्वाली का गहरा नाता रहा है. ख्वाजा गरीब नवाज को भी कव्वाली पसंद थी. यही वजह है कि दरगाह में सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी शाही कव्वाल कव्वालियां पेश करते आए हैं. खासकर उर्स के मौके पर दीवान की सदारत में होने वाली महफिल में परंपरागत कव्वालियां होती है.

कव्वालियों का सिलसिला ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह से शुरू हुआ है. जानकार लोग मानते है कि अपने मौला की तारीफ में पढ़े गए कलाम ने धीरे-धीरे कव्वाली की शक्ल ले ली. दरगाह के खादिम हाजी पीर सैयद फकर काजमी बताते है कि ख्वाजा गरीब नवाज जब अजमेर आए तब हर खुशी के मौके पर राजस्थान में गाने बजाने का दौर था. उस वक्त मौला की तारीफ में पढ़े जाने वाले कलाम को भी वाद्य यंत्रों की धुनों के साथ गाया जाने लगा, तब से कव्वालियों का सिलसिला आगे बढ़ा.

ख्वाजा गरीब नवाज के समय से शुरू हुआ था कव्वाली का सिलसिला

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काजमी ने बताया कि तीन प्रकार से कव्वाली गाई जाती है, जिसमें हमद में खुदा की तारीफ होती है, नात में मोहम्मद रसूल अल्लाह की तारीफ होती है और कौल में मौला कायनात की तारीफ होती है. उन्होंने बताया कि कव्वाली में गाए जाने वाले कलामों को सुनकर सुनने वाला अपने खुदा की मोहब्बत में इतना डूब जाता है कि उसे खुदा के अलावा कुछ याद नहीं रहता. कव्वाली इबादत का जरिया है जो खुदा से जोड़ता है.

यूं तो दरगाह में आम दिनों में भी कव्वाली होती है लेकिन उर्स के दौरान महफिल खाने में होने वाली कव्वालियां परंपरागत होती है. यह वो कव्वालियां है जो सदियों से दरगाह में गाई जाती रही है. काजमी बताते है कि सूफी और कव्वाली एक दूसरे से जुड़े हुए है. यानी इनका चोली दामन का साथ है. उन्होंने बताया कि सूफियत में इंसान खुदा की राह पर चलकर अपनी आत्मा की सफाई करना शुरू कर देता है. उन्होंने बताया कि लोग कहते है कव्वाली सुनाओ जबकि लोगों को यह नहीं मालूम की कव्वाली नहीं कलाम सुनाने के लिए कहा जाता है.

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यूं तो देश और दुनिया में कई मशहूर कव्वाल है जो अपनी गायकी से जाने जाते है. उन सभी कव्वालों की भी दिली तमन्ना रहती है कि वो ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह में कव्वाली गाएं. ऐसे भी कव्वाल है जिन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी दरगाह में रोज कव्वाली पेश करते आए है, जिन्हें शाही कव्वाल कहा जाता है.

शाही कव्वाल कुर्बान हुसैन बताते है कि परंपरागत कव्वालियां दरगाह में खास मौकों पर ही गाई जाती है. सूफी और कव्वाली दोनों ही खुदा की राह पर जाने का जरिया है. यह इंसान और उसकी नियत पर निर्भर है कि वो इस जरिए से अपने खुदा के कितने करीब पहुंच पाता है.

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