अजमेर. कोरोना संक्रमण काल में अनलॉक के बाद भी छोटे-छोटे उद्योग गति नहीं पकड़ पा रहे हैं. हालात ये कि इन लघु उद्योगों से जुड़े लोग अपने परिवार के जीवकोपार्जन के लिए दैनिक मजदूरी कर रहे हैं. अजमेर में हस्त लघु उद्योग छापरी बनाने वालों पर कोरोना की ऐसी मार पड़ी है कि पेट की आग बुझाने के लिए ज्यादात्तर पुरुषों ने अपना पुश्तैनी काम छोड़कर मजदूरी करना शुरू कर दिया है.
दर्जनों परिवार है इस लघु उद्योग पर निर्भर
मेवाड़ से सवा सौ साल पहले अजमेर आकर बसे करीब डेढ़ सौ परिवारों का बांस की छापरी, चिक ( बांस की लकड़ी से बने पर्दे ) बनाने का काम है. हाथों से बांस को चीर कर उनसे छोटी बड़ी छापरियां बनाई जाती हैं. इन छापरियों की सप्लाई पूरे जिले में होती है. एक सदी से दर्जनों परिवार इस लघु उद्योग पर निर्भर थे. हाथ से बनी छापरियों की डिमांड की वजह से बांस की डिमांड भी बनी रहती है. इन छापरियों के खरीदार फूल, फल और सब्जी व्यापारियों के अलावा किसान हैं.
लॉकडाउन के कारण चौपट हुआ व्यवसाय
देश में लगाए गए लॉकडाउन के पहले तक छापरी की डिमांड होने से इन लोगों का गुजारा हो रहा था. लॉकडाउन में ये सभी परिवार खाने को भी मोहताज हो गए हैं. अनलॉक हुआ तो लगा कि अपने हाथों से अपनी तकदीर फिर लिख लेंगे, लेकिन अनलॉक में इनकी तकदीर भी इनका साथ नहीं दे रही है. आज के समय में 70 रुपए की छापरी कोई 30 रुपए में भी लेने को तैयार नहीं है.
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बांस की कीमतों ने किया दोहरा प्रहार
भगवंती बताती है कि लॉकडाउन में व्यवसाय ठप था और अनलॉक के बाद माल के खरीदार ही नहीं हैं. रही सही कसर बांस की कीमतों ने पूरी कर दी. लॉकडाउन से पहले 100 से 120 रुपए की कीमत में बांस मिल जाता था, लेकिन अब 200 से 225 रुपए में बांस मिल रहा है. हाथों से छापरी बनाने का काम करने वालों से कोरोना ने उनका रोजगार छीन लिया है. लॉकडाउन से पहले पूरा परिवार छापरी बनाने का काम करता था. अब पुरुष मजदूरी करते है और महिलाएं घर का काम निपटाने के बाद छापरी बनाती है.
श्रमिकों का माल पड़ा है घर पर
सज्जन बाई ने बताया कि खरीदार नहीं होने से बहुत सारा माल घर पर पड़ा है. लॉकडाउन में जिस तरह के हालात थे वही हालात अभी भी बने हुए हैं. उनका कहना कि सब मजदूर छापरी तो बना रहे हैं, लेकिन उन्हें खरीदने वाला कोई नहीं है. दिनभर में कोई एक छापरी बिक जाए तो कुछ सहारा मिल जाता है. वरना पुरुष मजदूरी से जो कमा कर ला रहे हैं उससे ही घर का गुजारा हो रहा है.
100 साल से पुराना है छापरी बनाने का काम
वृद्ध दुर्गा प्रसाद बताते हैं कि छापरी बनाने का काम अजमेर में 100 साल से भी अधिक पुराना है. उन्होंने बताया कि बाजार में छापरी की डिमांड नहीं होने से उन्हें कई मुसीबतें झेलनी पड़ रही हैं. बिजली पानी का बिल, मकान का किराया देने के लिए उधार लेना पड़ रहा है.
छापरी निर्माण करने वाली इन महिलाओं का हौसला ही है कि बिक्री नहीं होने के बाद भी इन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी है. कोरोना ने इनके लघु व्यवसाय की कमर तोड़ दी है. वहीं, बांस की दोगनी हुई कीमत ने इन लघु व्यवसाइयों को आर्थिक संकट में डाल दिया है.
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इस व्यवसाय से जुड़े धर्माराम बताते है कि ग्रामीण क्षेत्रों में माल की डिमांड नहीं है. वहीं, व्यापारी भी छापरियां नहीं खरीद रहे हैं. लॉकडाउन के बाद से ही उन्हें आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा है. ना ही कोई ग्राहक उनकी छापरियों को खरीदने के लिए आता है.
हाथों में हुनर होने के बाद भी यही हाथ हुनर को छोड़ कर परिवार का पेट पालने के लिए दैनिक मजदूरी करने को मजबूर है. सभी की एक ही आस है कि कोरोना जाए तो व्यवसाय में बरकत आए.