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पहले खुद पर ही हर प्रयोग करते थे गांधी

इस साल महात्मा गांधी की 150वीं जयन्ती मनाई जा रही है. इस अवसर पर ईटीवी भारत दो अक्टूबर तक हर दिन उनके जीवन से जुड़े अलग-अलग पहलुओं पर चर्चा कर रहा है. हम हर दिन एक विशेषज्ञ से उनकी राय शामिल कर रहे हैं. साथ ही प्रतिदिन उनके जीवन से जुड़े रोचक तथ्यों की प्रस्तुति दे रहे हैं. प्रस्तुत है आज 35वीं कड़ी.

गांधी की फाइल फोटो
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Published : Sep 20, 2019, 7:01 AM IST

Updated : Oct 1, 2019, 7:04 AM IST

महात्मा गांधी के बारे में अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, 'आने वाली पीढ़ियां शायद ही विश्वास करे कि हाड़-मांस का ऐसा कोई व्यक्ति इस धरती पर कभी रहा होगा.' महात्मा की उपाधि उन्हें बोझ जैसा ही लगता था. जब भी कोई व्यक्ति उन्हें महात्मा कहकर संबोधित किया करता था, वह असहज महसूस करते थे. वह भी एक आम आदमी की तरह ही थे. उन्होंने अपने कर्म से महानता हासिल की. इसमें कोई शक नहीं है उनकी यात्रा में समय ने बड़ी भूमिका निभाई. फिर भी, उनके अंतर्निहित चरित्र ने उन्हें इतनी बड़ी ऊंचाई हासिल करने में मदद की.

जिस तरह एक आम आदमी अपने जीवन में गलतियां करता है, गांधी भी इसके अपवाद नहीं थे. लेकिन गांधी उन लोगों में शामिल नहीं थे, जो अपनी गलतियों से सबक नहीं लेता हो. यही उनकी नैतिक प्रगति की कुंजी थी. उन्हें अपने जीवन के प्रत्येक चरण में आत्म-मूल्यांकन करने की आदत थी. वह अपनी खामियों को ढूंढते थे. उसे दूर करते थे. तब किसी ने उन्हें इस नजरिए से नहीं देखा.

गांधी मानते थे कि उनकी गलतियों को कोई देखे या ना देखे, लेकिन ईश्वर जरूर देखता है. इसलिए वह दुनिया के सामने अपनी गलतियों को कबूल करते थे. उसके बाद वह प्रायश्चित करने का तरीका ढूंढते थे. अफ्रीका के फीनिक्स में उन्होंने एक शाम भोजन नहीं किया. नमक भी नहीं खाया. बाद में इसी तरीके से वह सत्याग्रह करने लगे.

इतना ही नहीं, आगे चलकर गांधी ने अपने सहकर्मियों को भी इस रास्ते पर चलने के लिए तैयार किया. जब भी उन्हें लगता था कि उनके आंदोलन में हिंसा या सांप्रदायिकता जैसी अशुद्धता ने जगह बना लिया है, वह उपवास पर बैठ जाते थे. उनकी प्रार्थना तीव्र हो जाती थी. तब जाकर उन्हें शांति मिलती थी.

आम लोगों में दूसरों का दोष खोजने की सामान्य प्रवृत्ति के विपरीत गांधी अपने में ही गलती ढूंढते थे. और यह स्वीकार करते थे कि उन्होंने पर्वत जैसी गलती की है ( 'हिमालयन ब्लंडर'). अंग्रेजी के इस मुहावरे का प्रचलन इसी वजह से हुआ.

ये भी पढ़ें: जब गांधी ने कहा था, 'मैं दलित के घर बतौर लड़की पैदा होना चाहता हूं'

इसने उन्हें एक विकसित व्यक्ति बना दिया. सत्य के साथ प्रयोग की तरह गांधी के विचार भी साथ-साथ विकसित होते गए. वह हमेशा कहा करते थे कि उनकी शब्दों में विसंगति है तो उन्होंने जिन नवीनतम शब्दों का प्रयोग किया है, उस पर यकीन करें. गांधी हमेशा कहते थे कि अपनी गलतियों को स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए.

गांधीजी के चरित्र की एक और विशेषता यह थी कि उन्होंने तर्क और विश्वास के बीच संतुलन बनाया था. उस पर नाजुक प्रहार किया. वह केवल तार्किक विचारों को स्वीकारते थे. हालांकि वह धार्मिक व्यक्ति थे. उदाहरण के तौर पर गांधी का थियोसोपिकल समाज के कई सदस्यों के विचारों में काफी रुचि थी. खासकर जिस तरीके से थियोसोफिकल समाज ने भारतीय दर्शन और विचारों को महत्व दिया था. फिर भी, वे तत्वमीमांसा और जीवन के बाद की उनकी अवधारणा पर विश्वास नहीं करते थे. गांधीजी ने अस्पृश्यता का विरोध पर तर्क के आधार पर किया था.

हालांकि, ये भी सच है कि जहां तर्क अनुतीर्ण हो जाते थे, वहां गांधी विश्वास का सहारा लेते थे. वह यह मानते थे कि हर व्यक्ति में ईश्वर का तत्व मौजूद है. उनकी सोच यह थी कि सृजनकर्ता ने अच्छे का प्रतिनिधित्व किया, वह सब लोगों को अच्छाई की ओर ले जाएगा. उन्हें सच्चाई पर अटूट भरोसा था. सच पर उन्हें पक्का भरोसा था. वे यह विश्वास करते थे कि सच का रास्ता अहिंसा के मार्ग से होकर ही गुजरता है.

ये भी पढ़ें: गांधी की नजरों में क्या था आजादी का मतलब ?

धार्मिक ग्रंथों और संतों के प्रति गांधी का असीम सम्मान था. वह मानते थे कि इनमें लिखी गई बातें और दर्शन हमारी पीढ़ियों के अनुभव के उत्पाद हैं. इसके बावजूद वैसे विचार जो तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतर सका, गांधी ने उन्हें खारिज कर दिया. इसलिए उन्होंने कहा था कि यदि वेद में अस्पृश्यता को मंजूरी दी है, तो वह उसकी भी निंदा करने से पीछे नहीं हटेंगे.

जीवन के प्रति गांधी का समग्र दृष्टिकोण था. वह जीवन के अलगाव में यकीन नहीं करते थे. यही वजह थी कि गांधी अर्थशास्त्र में भी नैतिकता को एक तत्व मानते थे. जबकि माना जाता है कि अर्थशास्त्र एक विज्ञान है. गांधी का कहना था कि बिना नैतिकता के अर्थशात्र दुनिया के लिए नुकसान हो सकता है.

इसी तरह, उन्होंने राजनीति और आध्यात्मिकता के बीच भी संबंध को स्थापित किया. उन्होंने किसी भी सार्वजनिक पद को स्वीकार नहीं किया, लेकिन उन्हें राजनीतिक मुद्दों में बहुत रुचि थी. वह राजनीति में मानवीयता के उच्च मूल्यों के प्रति समर्पित थे.

ऐसा इसलिए था क्योंकि उनके पास जीवन के प्रति समग्र दृष्टिकोण था, गांधी ने किसी को उसकी शिक्षा, आर्थिक स्थिति, त्वचा के रंग, जाति या पंथ के आधार पर मूल्यांकन नहीं किया. वह हमेशा हरेक मनुष्य को एक इकाई मानते थे. यही वजह थी कि वह लोगों के हृदय को छू लेते थे. जो कोई भी उनसे मिलने आता था, वह उसे पूरी तन्मयता से सुनते थे. यह उन राजनेताओं से विपरीत था, जो दूसरों के बजाए अपनी बात बोलने में ही यकीन करते थे. एक राजनीतिज्ञ हमेशा अपने प्रभावशाली भाषण से दूसरों को प्रभावित करता है. गांधी इसके ठीक विपरीत थे. उन्होंने कभी अपना भाषण तैयार नहीं किया. न ही सार्वजनिक तौर पर भाषण देते समय कुछ नोट्स लिखकर जाते थे. वह आशु भाषण जैसा होता था.

ये भी पढ़ें: जब गांधी ने कहा था, मेरे पास दुनिया को सिखाने के लिए कुछ नहीं है​​​​​​​

जिस तरह उन्होंने हर व्यक्ति के साथ समान व्यवहार किया, उतना ही महत्व वह हरेक काम को देते थे. उनके लिए कोई काम छोटा या कोई काम बड़ा नहीं था. गांधी रस्किन की पुस्तक 'अनटू द लास्ट' से बहुत अधिक प्रभावित थे. गांधी ने जीवन के कुछ बड़े फैसले अपनी कुछ पसंदीदा पुस्तकों से प्रभावित होकर लिया. उन्हीं में से एक फैसला डरबन शहर छोड़ने का था. वहां से वह दूर दराज के इलाके फिनिक्स में चले गए. शहर की जीवन शैली त्यागकर वह वहां रह रहे मजदूरों के बीच काम करने लगे.

जब उन्होंने अहमदाबाद के साबरमती से अपने आश्रम को वर्धा के पास सेवाग्राम में स्थानांतरित कर दिया, तब उन्होंने अपने सहकर्मियों को पास के गांव जाकर स्वच्छता के कार्य करने की सलाह दी थी. लेकिन इस सलाह से पहले खुद उन्होंने शौचालयों की सफाई शुरू की. गांधी पहले खुद ही साधारण सी धोती पहनकर रहने लगे, उसके बाद ही आश्रम के सहयोगियों को साधारण कपड़े पहनने की सलाह दी. ग्रामोदय संघ शुरू करने से पहले, उन्होंने हस्तनिर्मित कागज और कलम का उपयोग करना शुरू कर दिया था.

गांधी जो दूसरों को कहते थे, सबसे पहले वह खुद ही उसे करते थे. यही उनकी महानता थी. यही उनके जीवन का संदेश था.

(लेखक- नचिकेता देसाई. नचिकेता महादेव देसाई के पोते हैं. महादेव देसाई गांधी के सचिव थे)

आलेख में लिखे विचार लेखक के निजी हैं. इनसे ईटीवी भारत का कोई संबंध नहीं है.

महात्मा गांधी के बारे में अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, 'आने वाली पीढ़ियां शायद ही विश्वास करे कि हाड़-मांस का ऐसा कोई व्यक्ति इस धरती पर कभी रहा होगा.' महात्मा की उपाधि उन्हें बोझ जैसा ही लगता था. जब भी कोई व्यक्ति उन्हें महात्मा कहकर संबोधित किया करता था, वह असहज महसूस करते थे. वह भी एक आम आदमी की तरह ही थे. उन्होंने अपने कर्म से महानता हासिल की. इसमें कोई शक नहीं है उनकी यात्रा में समय ने बड़ी भूमिका निभाई. फिर भी, उनके अंतर्निहित चरित्र ने उन्हें इतनी बड़ी ऊंचाई हासिल करने में मदद की.

जिस तरह एक आम आदमी अपने जीवन में गलतियां करता है, गांधी भी इसके अपवाद नहीं थे. लेकिन गांधी उन लोगों में शामिल नहीं थे, जो अपनी गलतियों से सबक नहीं लेता हो. यही उनकी नैतिक प्रगति की कुंजी थी. उन्हें अपने जीवन के प्रत्येक चरण में आत्म-मूल्यांकन करने की आदत थी. वह अपनी खामियों को ढूंढते थे. उसे दूर करते थे. तब किसी ने उन्हें इस नजरिए से नहीं देखा.

गांधी मानते थे कि उनकी गलतियों को कोई देखे या ना देखे, लेकिन ईश्वर जरूर देखता है. इसलिए वह दुनिया के सामने अपनी गलतियों को कबूल करते थे. उसके बाद वह प्रायश्चित करने का तरीका ढूंढते थे. अफ्रीका के फीनिक्स में उन्होंने एक शाम भोजन नहीं किया. नमक भी नहीं खाया. बाद में इसी तरीके से वह सत्याग्रह करने लगे.

इतना ही नहीं, आगे चलकर गांधी ने अपने सहकर्मियों को भी इस रास्ते पर चलने के लिए तैयार किया. जब भी उन्हें लगता था कि उनके आंदोलन में हिंसा या सांप्रदायिकता जैसी अशुद्धता ने जगह बना लिया है, वह उपवास पर बैठ जाते थे. उनकी प्रार्थना तीव्र हो जाती थी. तब जाकर उन्हें शांति मिलती थी.

आम लोगों में दूसरों का दोष खोजने की सामान्य प्रवृत्ति के विपरीत गांधी अपने में ही गलती ढूंढते थे. और यह स्वीकार करते थे कि उन्होंने पर्वत जैसी गलती की है ( 'हिमालयन ब्लंडर'). अंग्रेजी के इस मुहावरे का प्रचलन इसी वजह से हुआ.

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इसने उन्हें एक विकसित व्यक्ति बना दिया. सत्य के साथ प्रयोग की तरह गांधी के विचार भी साथ-साथ विकसित होते गए. वह हमेशा कहा करते थे कि उनकी शब्दों में विसंगति है तो उन्होंने जिन नवीनतम शब्दों का प्रयोग किया है, उस पर यकीन करें. गांधी हमेशा कहते थे कि अपनी गलतियों को स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए.

गांधीजी के चरित्र की एक और विशेषता यह थी कि उन्होंने तर्क और विश्वास के बीच संतुलन बनाया था. उस पर नाजुक प्रहार किया. वह केवल तार्किक विचारों को स्वीकारते थे. हालांकि वह धार्मिक व्यक्ति थे. उदाहरण के तौर पर गांधी का थियोसोपिकल समाज के कई सदस्यों के विचारों में काफी रुचि थी. खासकर जिस तरीके से थियोसोफिकल समाज ने भारतीय दर्शन और विचारों को महत्व दिया था. फिर भी, वे तत्वमीमांसा और जीवन के बाद की उनकी अवधारणा पर विश्वास नहीं करते थे. गांधीजी ने अस्पृश्यता का विरोध पर तर्क के आधार पर किया था.

हालांकि, ये भी सच है कि जहां तर्क अनुतीर्ण हो जाते थे, वहां गांधी विश्वास का सहारा लेते थे. वह यह मानते थे कि हर व्यक्ति में ईश्वर का तत्व मौजूद है. उनकी सोच यह थी कि सृजनकर्ता ने अच्छे का प्रतिनिधित्व किया, वह सब लोगों को अच्छाई की ओर ले जाएगा. उन्हें सच्चाई पर अटूट भरोसा था. सच पर उन्हें पक्का भरोसा था. वे यह विश्वास करते थे कि सच का रास्ता अहिंसा के मार्ग से होकर ही गुजरता है.

ये भी पढ़ें: गांधी की नजरों में क्या था आजादी का मतलब ?

धार्मिक ग्रंथों और संतों के प्रति गांधी का असीम सम्मान था. वह मानते थे कि इनमें लिखी गई बातें और दर्शन हमारी पीढ़ियों के अनुभव के उत्पाद हैं. इसके बावजूद वैसे विचार जो तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतर सका, गांधी ने उन्हें खारिज कर दिया. इसलिए उन्होंने कहा था कि यदि वेद में अस्पृश्यता को मंजूरी दी है, तो वह उसकी भी निंदा करने से पीछे नहीं हटेंगे.

जीवन के प्रति गांधी का समग्र दृष्टिकोण था. वह जीवन के अलगाव में यकीन नहीं करते थे. यही वजह थी कि गांधी अर्थशास्त्र में भी नैतिकता को एक तत्व मानते थे. जबकि माना जाता है कि अर्थशास्त्र एक विज्ञान है. गांधी का कहना था कि बिना नैतिकता के अर्थशात्र दुनिया के लिए नुकसान हो सकता है.

इसी तरह, उन्होंने राजनीति और आध्यात्मिकता के बीच भी संबंध को स्थापित किया. उन्होंने किसी भी सार्वजनिक पद को स्वीकार नहीं किया, लेकिन उन्हें राजनीतिक मुद्दों में बहुत रुचि थी. वह राजनीति में मानवीयता के उच्च मूल्यों के प्रति समर्पित थे.

ऐसा इसलिए था क्योंकि उनके पास जीवन के प्रति समग्र दृष्टिकोण था, गांधी ने किसी को उसकी शिक्षा, आर्थिक स्थिति, त्वचा के रंग, जाति या पंथ के आधार पर मूल्यांकन नहीं किया. वह हमेशा हरेक मनुष्य को एक इकाई मानते थे. यही वजह थी कि वह लोगों के हृदय को छू लेते थे. जो कोई भी उनसे मिलने आता था, वह उसे पूरी तन्मयता से सुनते थे. यह उन राजनेताओं से विपरीत था, जो दूसरों के बजाए अपनी बात बोलने में ही यकीन करते थे. एक राजनीतिज्ञ हमेशा अपने प्रभावशाली भाषण से दूसरों को प्रभावित करता है. गांधी इसके ठीक विपरीत थे. उन्होंने कभी अपना भाषण तैयार नहीं किया. न ही सार्वजनिक तौर पर भाषण देते समय कुछ नोट्स लिखकर जाते थे. वह आशु भाषण जैसा होता था.

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जिस तरह उन्होंने हर व्यक्ति के साथ समान व्यवहार किया, उतना ही महत्व वह हरेक काम को देते थे. उनके लिए कोई काम छोटा या कोई काम बड़ा नहीं था. गांधी रस्किन की पुस्तक 'अनटू द लास्ट' से बहुत अधिक प्रभावित थे. गांधी ने जीवन के कुछ बड़े फैसले अपनी कुछ पसंदीदा पुस्तकों से प्रभावित होकर लिया. उन्हीं में से एक फैसला डरबन शहर छोड़ने का था. वहां से वह दूर दराज के इलाके फिनिक्स में चले गए. शहर की जीवन शैली त्यागकर वह वहां रह रहे मजदूरों के बीच काम करने लगे.

जब उन्होंने अहमदाबाद के साबरमती से अपने आश्रम को वर्धा के पास सेवाग्राम में स्थानांतरित कर दिया, तब उन्होंने अपने सहकर्मियों को पास के गांव जाकर स्वच्छता के कार्य करने की सलाह दी थी. लेकिन इस सलाह से पहले खुद उन्होंने शौचालयों की सफाई शुरू की. गांधी पहले खुद ही साधारण सी धोती पहनकर रहने लगे, उसके बाद ही आश्रम के सहयोगियों को साधारण कपड़े पहनने की सलाह दी. ग्रामोदय संघ शुरू करने से पहले, उन्होंने हस्तनिर्मित कागज और कलम का उपयोग करना शुरू कर दिया था.

गांधी जो दूसरों को कहते थे, सबसे पहले वह खुद ही उसे करते थे. यही उनकी महानता थी. यही उनके जीवन का संदेश था.

(लेखक- नचिकेता देसाई. नचिकेता महादेव देसाई के पोते हैं. महादेव देसाई गांधी के सचिव थे)

आलेख में लिखे विचार लेखक के निजी हैं. इनसे ईटीवी भारत का कोई संबंध नहीं है.

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Last Updated : Oct 1, 2019, 7:04 AM IST
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