नई दिल्ली : तीस साल पहले कश्मीर से अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडितों का पलायान हुआ. इस बीच कितनी ही सरकारें बदलीं, कितने मौसम आए गए, पीढ़ियां तक बदल गईं, लेकिन कश्मीरी पंडितों की घर वापसी और न्याय के लिए लड़ाई जारी है.
पलायन की कहानी किसी से छिपी नहीं है. सन् 1989-1990 में जो हुआ, उसका उल्लेख करते-करते तीस साल बीत गए, लेकिन इस पीड़ित समुदाय के लिए कुछ नहीं बदला है. जो बदल रहा है उससे इस सुमदाय के अस्तित्व, संस्कृति, रीति-रिवाज, भाषा, मंदिर और अन्य धार्मिक स्थल धीरे-धीरे समय चक्र के व्यूह में लुप्त होने के कगार पर है.
जनवरी का महीना पूरी दुनिया में नए साल के लिए एक उम्मीद ले कर आता है, लेकिन कश्मीरी पंडितों के लिए यह महीना दुख, दर्द और निराशा से भरा है. 19 जनवरी प्रतीक बन चुका है उस त्रासदी का, जो कश्मीर में 1990 में घटित हुई. जिहादी इस्लामिक ताकतों ने कश्मीरी पंडितों पर ऐसा कहर ढाया कि उनके लिए सिर्फ तीन ही विकल्प थे- धर्म बदलो, मरो या पलायन करो.
आतंकवादियों ने सैकड़ों अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतार दिया था. कई महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म कर उनकी हत्या कर दी गई. उन दिनों कितने ही लोगों की आए दिन अपहरण कर मार-पीट की जाती थी.
पंडितों के घरों पर पत्थरबाजी, मंदिरों पर हमले लगातार हो रहे थे. घाटी में उस समय कश्मीरी पंडितों की मदद के लिए कोई नहीं था, न तो पुलिस, न प्रशासन, न कोई नेता और न ही कोई मानवाधिकार के लोग.
उस समय हालात इतने खराब थे कि अस्पतालों में भी समुदाय के लोगों के साथ भेदभाव हो रहा था. सड़कों पर चलना तक मुश्किल हो गया था. कश्मीरी पंडितों के साथ सड़क से लेकर स्कूल-कॉलेज, दफ्तरों में प्रताड़ना हो रही थी- मानसिक, शारीरिक और सांस्कृतिक.
19 जनवरी, 1990 की रात को अगर उस समय के नवनियुक्त राज्यपाल जगमोहन ने घाटी में सेना नहीं बुलाई होती, तो कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम व महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म और ज्यादा होता.
उस रात पूरी घाटी में मस्जिदों से लाउडस्पीकरों से एलान हो रहा था कि 'काफिरों को मारो, हमें कश्मीर चाहिए पंडित महिलाओं के साथ न कि पंडित पुरुषों के साथ, यहां सिर्फ निजामे मुस्तफा चलेगा...' लाखों की तादाद में कश्मीरी मुस्लमान सड़कों पर मौत के तांडव की तैयारी कर रहे थे. अंत में सेना कश्मीरी पंडितों के बचाव में आई. न कोई पुलिसवाला, न नेता और न ही सिविल सोसाइटी के लोग.
लाखों की तादाद में पीड़ित कश्मीरी हिंदू समुदाय के लोग जम्मू, दिल्ली और देश के अन्य शहरों में काफी दयनीय स्थिति में जीने लगे, लेकिन किसी सिविल सोसाइटी ने उनकी पीड़ा पर कुछ नहीं किया.
उस समय की केंद्र सरकार ने भी कश्मीरी पंडितों के पलायन या उनके साथ हुई बर्बरता पर कुछ नहीं किया.
कश्मीरी पंडितों के मुताबिक, 300 से ज्यादा लोगों को 1989-1990 में मारा गया. इसके बाद भी पंडितों का नरसंहार जारी रहा. 26 जनवरी 1998 में वंदहामा में 24, 2003 में नदिमर्ग गांव में 23 कश्मीरी पंडितों का कत्ल किया गया.
तीस साल बीत जाने के बाद भी कश्मीरी पंडितों के खिलाफ हुए किसी भी केस में आज तक कोई कार्रवाई नहीं की गई. हैरानी की बात यह कि सैकड़ों मामलों में तो पुलिस ने एफआईआर तक दर्ज नहीं की.
पलायन के बाद, कश्मीरी पंडितों के घरों की लूटापट की. कई मकान जलाए गए. कितने ही पंडितों के मकानों, बाग-बगीचों पर कब्जे किए गए. कई मंदिरों को तोड़ा गया और जमीन भी हड़पी गई. इन सब घटनाओं का आज तक पुलिस में केस दर्ज नहीं हुआ.
भय, उत्पीड़न, प्रताड़ना से ग्रस्त कश्मीरी पंडितों के समुदाय के लिए किसी ने आज तक कोई आवाज नहीं उठाई है. किसी भी सिविल सोसाइटी के लोग या नेता ने पंडितों को न्याय देने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है.
न्यायाधीश नीलकंठ गंजू, टेलिकॉम इंजीनियर बालकृष्ण गंजू, दूरदर्शन निदेशक लसाकोल, नेता टिकालाल टपलू जैसे इस समुदाय के कई प्रतिष्ठित नाम थे, जिनको मौत के घाट उतार दिया गया था और आज तक इन सबके केस में कुछ नहीं हुआ.
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इनके अलावा कई ऐसे नाम हैं, जिनके खिलाफ बर्बरता की गई, लेकिन आज तक कार्रवाई क्या केस तक दर्ज नहीं हुआ. गिरजा गंजू या फिर सरला भट्ट जिनका अपहरण कर सामूहिक दुष्कर्म किया गया और फिर लकड़ी चीरने की मशीन से जिंदा चीर दिया गया. ऐसे सैकड़ों हत्याएं की गईं, जिनमें न्याय आज तक नहीं हुआ.
कश्मीर के बड़े नेता फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, यहां तक कि दिवंगत मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कभी भी कश्मीरी पंडितों को न्याय दिलाने की बात नहीं की.
जब पंडितों पर हमले हो रहे थे, तब फारूक अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे, जब घाटी से पंडितों का पलायन हुआ, तब मुफ्ती मोहम्मद सईद देश के गृहमंत्री थे, लेकिन किसी ने पंडितों को बचाने या न्याय दिलाने की न तो बात की और ना ही कोई कदम उठाया.
यह इस समुदाय का दुर्भाग्य ही है कि उनके पलायन को लेकर न तो कोई न्यायिक आयोग, या फिर एसआईटी या साधारण सी जांच ही की गई हो.
कश्मीरी पंडितों को आज भी न्याय का इंतजार है. साल 2020 एक नए युग की शुरुआत है. तीन दशक बीत जाने के बाद आज भी इस समुदाय के लिए घरवापसी की राह आसान नहीं है, लेकिन उम्मीद जरूर जगी है.