विदिशा। मिट्टी की कच्ची दीवारें, दीवारों पर लकड़ी के सहारे टिकी खपरैल की छत, उज्ज्वला योजना की सफलता या असफलता जो भी कहा जाए, उसकी गवाही देती गैस स्टोव के बिल्कुल पास बने मिट्टी के चूल्हे में दिख रही ताजी राख. ये उस शख्स की जिंदगी की दुश्वारियां हैं, जिसे आज की राजनीति में सबसे ज्यादा चर्चा हासिल है. हम बात कर रहे हैं चौकीदार की और जो दृश्य आपको दिखाया वो एक चौकीदार का घर है. हां, अंतर इतना है कि ये किसी सियासी चौकीदार का नहीं, बल्कि असल चौकीदार के घर का दृश्य है.
ये दृश्य है प्रदेश की विदिशा तहसील के हसुआ गांव में रहने वाले एक चौकीदार रामलाल के घर का. लेकिन, एक चौकीदार की ज़िंदगी की दुश्वारियां इतने पर ही खत्म नहीं होतीं, इस घर को थोड़ा और गौर से देखेंगे तो आपको घर के आंगन में टंगे टाट के पर्दे, रामलाल की ज़िंदगी का अंधेरा मिटाने की अधूरी कोशिश करता छत पर लगा एलईडी बल्ब, लकड़ी की चौखट पर रखी सूखी रोटियां और उन पर भिनभिना रही मक्खियां, शायद आप इन रोटियों को छुएं भी न, लेकिन दुनियावी मुश्किलों से अनजान कच्चे आंगन में खेलते ये मासूम भूख लगने पर बेहिचक इन्हें खा जाएंगे. रामलाल कहते हैं कि देश में चल रही 'मैं हूं चौकीदार' की सियासत एक छलावा है. वे सियासत के चौकीदारों को एक दिन के लिए उनके जैसी ज़िंदगी गुजारने की बात कहते हैं.
विदिशा तहसील में तैनात रामलाल ये भी बताते हैं कि उन्हें अपनी इस नौकरी के लिए पहले दो हजार रुपये मिलते थे, सरकार बदली तो चार हजार रुपये मिलने लगे, लेकिन ये रुपये उनके परिवार का बोझ उठाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. वहीं सोंठिया गांव के रहने वाले एक चौकीदार के बेटे घनश्याम का कहना है कि उन्हें अपने पिता की मदद के लिए मजदूरी करनी होती है, तब जाकर उनके परिवार का गुज़ारा होता है.
चौकीदार परिवारों का ये दर्द खुद-ब-खुद बयां कर देता है कि सियासी जगत में चर्चा पा रहा ये वर्ग, असल ज़िंदगी में बरसों से हुक्मरानों की उपेक्षा झेल रहा है. 'चौकीदार चोर है' सुनकर तो इस वर्ग को दर्द होता ही होगा, लेकिन गर्व से किया जा रहा 'मैं चौकीदार हूं' का उद्घोष भी उसके जख्मों पर नमक ही छिड़कता है.