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बेबसी, गरीबी और नाउम्मीदी,'चौकीदार चोर है' बनाम 'मैं चौकीदार हूं' की जंग में कहां है असली चौकीदार?

आज सियासी गलियारों में चौकीदार वर्ग का नाम जोर-शोर से चल रहा है. राजनीति को पीछे छोड़ देश के असली चौकीदारों की परिस्थितियों से रूबरू होकर इस चौकीदार शब्द के सही मायने समझ आते हैं.

देश के असली चौकीदार।
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Published : Mar 25, 2019, 8:02 PM IST

विदिशा। मिट्टी की कच्ची दीवारें, दीवारों पर लकड़ी के सहारे टिकी खपरैल की छत, उज्ज्वला योजना की सफलता या असफलता जो भी कहा जाए, उसकी गवाही देती गैस स्टोव के बिल्कुल पास बने मिट्टी के चूल्हे में दिख रही ताजी राख. ये उस शख्स की जिंदगी की दुश्वारियां हैं, जिसे आज की राजनीति में सबसे ज्यादा चर्चा हासिल है. हम बात कर रहे हैं चौकीदार की और जो दृश्य आपको दिखाया वो एक चौकीदार का घर है. हां, अंतर इतना है कि ये किसी सियासी चौकीदार का नहीं, बल्कि असल चौकीदार के घर का दृश्य है.

देश के असली चौकीदार।

ये दृश्य है प्रदेश की विदिशा तहसील के हसुआ गांव में रहने वाले एक चौकीदार रामलाल के घर का. लेकिन, एक चौकीदार की ज़िंदगी की दुश्वारियां इतने पर ही खत्म नहीं होतीं, इस घर को थोड़ा और गौर से देखेंगे तो आपको घर के आंगन में टंगे टाट के पर्दे, रामलाल की ज़िंदगी का अंधेरा मिटाने की अधूरी कोशिश करता छत पर लगा एलईडी बल्ब, लकड़ी की चौखट पर रखी सूखी रोटियां और उन पर भिनभिना रही मक्खियां, शायद आप इन रोटियों को छुएं भी न, लेकिन दुनियावी मुश्किलों से अनजान कच्चे आंगन में खेलते ये मासूम भूख लगने पर बेहिचक इन्हें खा जाएंगे. रामलाल कहते हैं कि देश में चल रही 'मैं हूं चौकीदार' की सियासत एक छलावा है. वे सियासत के चौकीदारों को एक दिन के लिए उनके जैसी ज़िंदगी गुजारने की बात कहते हैं.

विदिशा तहसील में तैनात रामलाल ये भी बताते हैं कि उन्हें अपनी इस नौकरी के लिए पहले दो हजार रुपये मिलते थे, सरकार बदली तो चार हजार रुपये मिलने लगे, लेकिन ये रुपये उनके परिवार का बोझ उठाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. वहीं सोंठिया गांव के रहने वाले एक चौकीदार के बेटे घनश्याम का कहना है कि उन्हें अपने पिता की मदद के लिए मजदूरी करनी होती है, तब जाकर उनके परिवार का गुज़ारा होता है.

चौकीदार परिवारों का ये दर्द खुद-ब-खुद बयां कर देता है कि सियासी जगत में चर्चा पा रहा ये वर्ग, असल ज़िंदगी में बरसों से हुक्मरानों की उपेक्षा झेल रहा है. 'चौकीदार चोर है' सुनकर तो इस वर्ग को दर्द होता ही होगा, लेकिन गर्व से किया जा रहा 'मैं चौकीदार हूं' का उद्घोष भी उसके जख्मों पर नमक ही छिड़कता है.

विदिशा। मिट्टी की कच्ची दीवारें, दीवारों पर लकड़ी के सहारे टिकी खपरैल की छत, उज्ज्वला योजना की सफलता या असफलता जो भी कहा जाए, उसकी गवाही देती गैस स्टोव के बिल्कुल पास बने मिट्टी के चूल्हे में दिख रही ताजी राख. ये उस शख्स की जिंदगी की दुश्वारियां हैं, जिसे आज की राजनीति में सबसे ज्यादा चर्चा हासिल है. हम बात कर रहे हैं चौकीदार की और जो दृश्य आपको दिखाया वो एक चौकीदार का घर है. हां, अंतर इतना है कि ये किसी सियासी चौकीदार का नहीं, बल्कि असल चौकीदार के घर का दृश्य है.

देश के असली चौकीदार।

ये दृश्य है प्रदेश की विदिशा तहसील के हसुआ गांव में रहने वाले एक चौकीदार रामलाल के घर का. लेकिन, एक चौकीदार की ज़िंदगी की दुश्वारियां इतने पर ही खत्म नहीं होतीं, इस घर को थोड़ा और गौर से देखेंगे तो आपको घर के आंगन में टंगे टाट के पर्दे, रामलाल की ज़िंदगी का अंधेरा मिटाने की अधूरी कोशिश करता छत पर लगा एलईडी बल्ब, लकड़ी की चौखट पर रखी सूखी रोटियां और उन पर भिनभिना रही मक्खियां, शायद आप इन रोटियों को छुएं भी न, लेकिन दुनियावी मुश्किलों से अनजान कच्चे आंगन में खेलते ये मासूम भूख लगने पर बेहिचक इन्हें खा जाएंगे. रामलाल कहते हैं कि देश में चल रही 'मैं हूं चौकीदार' की सियासत एक छलावा है. वे सियासत के चौकीदारों को एक दिन के लिए उनके जैसी ज़िंदगी गुजारने की बात कहते हैं.

विदिशा तहसील में तैनात रामलाल ये भी बताते हैं कि उन्हें अपनी इस नौकरी के लिए पहले दो हजार रुपये मिलते थे, सरकार बदली तो चार हजार रुपये मिलने लगे, लेकिन ये रुपये उनके परिवार का बोझ उठाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. वहीं सोंठिया गांव के रहने वाले एक चौकीदार के बेटे घनश्याम का कहना है कि उन्हें अपने पिता की मदद के लिए मजदूरी करनी होती है, तब जाकर उनके परिवार का गुज़ारा होता है.

चौकीदार परिवारों का ये दर्द खुद-ब-खुद बयां कर देता है कि सियासी जगत में चर्चा पा रहा ये वर्ग, असल ज़िंदगी में बरसों से हुक्मरानों की उपेक्षा झेल रहा है. 'चौकीदार चोर है' सुनकर तो इस वर्ग को दर्द होता ही होगा, लेकिन गर्व से किया जा रहा 'मैं चौकीदार हूं' का उद्घोष भी उसके जख्मों पर नमक ही छिड़कता है.

Intro:20 मार्च को भले ही देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश भर के चौकीदारों को संबोधित कर चौकीदारों का उत्साह बढ़ाया गया हो पर असल चोकीदारो की जमीनी हक़ीक़ते कुछ और ही बया करती है यह आईना दिखाती है उन लग्जरी चौकीदारों को जो में हूँ चौकीदार सोसल मिडिया से लेकर जमीन तक छाए हुए हैं ।
31 मार्च को उन चौकीदारों का सम्बोधन किया जाएगा जो सोसल मिडिया का सक्रिय हैं ।



Body:हमने भी असल चौकीदार का हाल जानने की कोशिश की आखिर कैंसे होता है जमीनी चौकीदार का जीवन बसर
जिले के ग्राम हसुआ में 45 साल के रामलाल विदिशा तहसील में चौकीदारी करते है घर मे 6 सदस्य है घर चलाने वाले एक मात्र रामलाल है इन्हें भाजपा सरकार में 1500 से 2000 का वेतन मिलता था सरकार बदलते ही इनका वेतन 4000 हो गया पर आज के दौर के हिसाब से 4000 में इनका घर चलना मुश्किल होता है मुकाबले उन चौकीदारों के जो अपने आपको में हूँ चौकीदार कह रहे हैं ।
रामलाल बताते हैं जो नेता अपने आपको चौकीदार बता रहे है वो एक छलावा कर रहे हैं असल चौकीदार हम है जो गांव में जीवन यापन कर रहे हैं वेतन तो चार हजार रुपये का है पर तहसील के साँथ मैदान ओर अधिकारियों के घर भी नोकरी करना पड़ती है रामलाल कहते हैं जो लोग अपने आपको चौकीदार कह रहे हैं एक बार एक दिन के लिए वो चौकीदारों की जिंदगी में आकर देखे तो पता चलेगा चौकीदारी क्या होती हैं ।




Conclusion:वहीं दूसरे ग्राम सोंठिया में व्रद्ध चौकीदार के पुत्र घनश्याम अपने पिता के साँथ चौकीदारी में हाथ बटाते है घनश्याम कहते हैं समय मिलता है तो मजदूरी कर अपना ओर अपने परिवार का जीबन यापन करते हैं आज के दौर में चार हजार वेतन से क्या होता है ।

सोसल मीडिया से लेकर जमीन पर भले ही लग्जरी चौकीदार हो पर आज असल चौकीदार के पास साइकिल से लगाकर अच्छे घर भी मौजूद नही है घरो की दीवार दरख़्त चुकी है तो कबेलू वाली छते असल जिंदगी व्या कर रही हैं । सरकार की योजनाओं से गैस की टंकी तो मिली पर उस टंकी को भरबाने के लिए पैसा नही है सूखी रोटी से जीवन यापन करने को असल चौकीदार मजबूर हैं

यह किसी एक जिले की कहानी नही बल्कि देश के दूर दराज ग्रामीण अंचलों के हर दूसरे चौकीदारों की यही काहानी है अच्छा होता में हूँ चौकीदार मुहिम उन असल चौकीदारों की ज़िंदगी पर सियास्तदार नज़रे इनायत करते तो शायद इनकी जिंदगी बदल सकती यह चौकीदार दर्द की जगह गर्व से कहते में हूँ चौकीदार
नवेद खान विदिशा





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