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13 में से 11 चुनाव हारकर भी ताल ठोक रही कांग्रेस, इस बार क्या होगा विदिशा सीट का अंजाम?

मध्यप्रदेश की विदिशा लोकसभा सीट देश की हाईप्रोफाइल सीटों में गिनी जाती है. इस सीट से बीजेपी सांसद सुषमा स्वराज ने इस बार चुनाव न लड़ने की बात कही है. ऐसे में इस बार इस सीट पर बीजेपी-कांग्रेस में जोरदार मुकाबला देखने को मिल सकता है.

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Published : Mar 21, 2019, 12:28 PM IST

विदिशा। इतिहास के पन्ने पलटो या धरती की कोख खंगालो, विदिशा की धरती में छिपा हीरा अपनी चमक से आपकी आंखें चौंधिया देगा और हर पन्ना यहां के वजूद की कहानी बयां करेगा, लेकिन सत्ता में भी इस माटी की हनक कम नहीं है, इस मिट्टी ने जिसे अपनाया, उसे फर्श से अर्श पर पहुंचाने में भी कोई कोताही नहीं की.

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विदिशा लोकसभा सीट मध्यप्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश में बीजेपी का अभेद्य किला माना जाता है. दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान यहां का नेतृत्व कर चुके हैं, जबकि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज अभी यहां का प्रतिनिधित्व कर रही हैं. 1967 से अस्तित्व में आई विदिशा सीट ज्यादातर समय बीजेपी के कब्जे में रही है. यही वजह है कि बीजेपी के लगभग हर बड़े नेता की इस सीट पर नजर रहती है.

विदिशा संसदीय सीट के इतिहास पर नजर डालें तो 1967 में इस सीट पर हुए पहले आम चुनाव में जनसंघ ने जीत दर्ज की थी. तब जनसंघ के एस शर्मा विदिशा के पहले सांसद बने थे. 1971 के चुनाव में जब पूरे देश में इंदिरा गांधी की लहर चल रही थी, तब भी जनसंघ के टिकट पर इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के संस्थापक रामनाथ गोयनका विदिशा से चुनाव जीते थे. तीसरी बार 1977 के चुनाव में यहां से जनसंघ के उम्मीदवार राघवजी ने जीत दर्ज की थी, लेकिन 1980 के चुनाव में विदिशा सीट बीजेपी के हाथ से निकल गयी और पहली बार कांग्रेस ने यहां जीत दर्ज की. तब कांग्रेस के प्रताप भानू शर्मा ने जनसंघ के प्रत्याशी राघवजी को हराया था. इसके बाद 1984 में प्रताप भानू शर्मा ने जीत का सिलसिला बरकरार रखा. हालांकि, ये जीत विदिशा में कांग्रेस की आखिरी जीत थी क्योंकि 1989 के आम चुनाव में राघवजी ने बदला चुकाते हुए प्रताप भानू शर्मा को हराया और बीजेपी की जीत का जो सिलसिला शुरु हुआ वह अब तक जारी है.

1991 के आम चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी ने विदिशा का प्रतिनिधित्व किया और जनता ने उन पर खूब प्यार लुटाया, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने इस सीट से इस्तीफा दे दिया और अपने उत्तराधिकारी के रुप में उस वक्त के उभरते नेता शिवराज सिंह को चुनाव लड़ाया. शिवराज ने भी इस सीट पर जबरदस्त जीत दर्ज की और अगले पांच चुनावों तक यह सिलसिला बरकरार रखा. शिवराज सिंह 2006 में जब प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तब विदिशा में हुए उपचुनाव में पार्टी ने रामपाल सिंह को प्रत्याशी बनाया और रामपाल ने भी यहां जीत दर्ज की, जबकि 2009 के चुनाव में दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री सुषमा स्वराज ने विदिशा से चुनाव लड़ा और प्रचंड बहुमत से जीत दर्ज की और 15वीं लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष भी रहीं. 2014 के चुनाव में भी सुषमा ने कांग्रेस प्रत्याशी लक्ष्मण सिंह को बड़े अंतर से मात दी थी और केंद्र की एनडीए सरकार में विदेश मंत्री बनीं.

ऐसे में इस सीट का सियासी इतिहास तो यही कहता है कि विदिशा में बीजेपी का एकतरफा दबदबा है. यहां हुए 13 चुनावों में से पार्टी को 11 बार जीत मिली है तो वहीं कांग्रेस 2 बार ही अपना खाता खोल पाई है. फिलहाल इस बार यहां की सांसद सुषमा स्वराज ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया है. जिससे उम्मीद की जा रही है कि विदिशा में बीजेपी की तरफ से नया चेहरा देखने को मिल सकता है. हालांकि, अब तक विदिशा में शानदार जीत दर्ज करने वाली बीजेपी के लिए इस बार यहां की परिस्थितियां थोड़ी बदलती दिख रही हैं. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने यहां अच्छा प्रदर्शन किया है. जिसके चलते कांग्रेस बीजेपी के इस गढ़ को भेदने का दावा कर रही है. ऐसे में बीजेपी को अपने इस गढ़ को बचाए रखना किसी चुनौती से कम नहीं है.

विदिशा। इतिहास के पन्ने पलटो या धरती की कोख खंगालो, विदिशा की धरती में छिपा हीरा अपनी चमक से आपकी आंखें चौंधिया देगा और हर पन्ना यहां के वजूद की कहानी बयां करेगा, लेकिन सत्ता में भी इस माटी की हनक कम नहीं है, इस मिट्टी ने जिसे अपनाया, उसे फर्श से अर्श पर पहुंचाने में भी कोई कोताही नहीं की.

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विदिशा लोकसभा सीट मध्यप्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश में बीजेपी का अभेद्य किला माना जाता है. दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान यहां का नेतृत्व कर चुके हैं, जबकि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज अभी यहां का प्रतिनिधित्व कर रही हैं. 1967 से अस्तित्व में आई विदिशा सीट ज्यादातर समय बीजेपी के कब्जे में रही है. यही वजह है कि बीजेपी के लगभग हर बड़े नेता की इस सीट पर नजर रहती है.

विदिशा संसदीय सीट के इतिहास पर नजर डालें तो 1967 में इस सीट पर हुए पहले आम चुनाव में जनसंघ ने जीत दर्ज की थी. तब जनसंघ के एस शर्मा विदिशा के पहले सांसद बने थे. 1971 के चुनाव में जब पूरे देश में इंदिरा गांधी की लहर चल रही थी, तब भी जनसंघ के टिकट पर इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के संस्थापक रामनाथ गोयनका विदिशा से चुनाव जीते थे. तीसरी बार 1977 के चुनाव में यहां से जनसंघ के उम्मीदवार राघवजी ने जीत दर्ज की थी, लेकिन 1980 के चुनाव में विदिशा सीट बीजेपी के हाथ से निकल गयी और पहली बार कांग्रेस ने यहां जीत दर्ज की. तब कांग्रेस के प्रताप भानू शर्मा ने जनसंघ के प्रत्याशी राघवजी को हराया था. इसके बाद 1984 में प्रताप भानू शर्मा ने जीत का सिलसिला बरकरार रखा. हालांकि, ये जीत विदिशा में कांग्रेस की आखिरी जीत थी क्योंकि 1989 के आम चुनाव में राघवजी ने बदला चुकाते हुए प्रताप भानू शर्मा को हराया और बीजेपी की जीत का जो सिलसिला शुरु हुआ वह अब तक जारी है.

1991 के आम चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी ने विदिशा का प्रतिनिधित्व किया और जनता ने उन पर खूब प्यार लुटाया, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने इस सीट से इस्तीफा दे दिया और अपने उत्तराधिकारी के रुप में उस वक्त के उभरते नेता शिवराज सिंह को चुनाव लड़ाया. शिवराज ने भी इस सीट पर जबरदस्त जीत दर्ज की और अगले पांच चुनावों तक यह सिलसिला बरकरार रखा. शिवराज सिंह 2006 में जब प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तब विदिशा में हुए उपचुनाव में पार्टी ने रामपाल सिंह को प्रत्याशी बनाया और रामपाल ने भी यहां जीत दर्ज की, जबकि 2009 के चुनाव में दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री सुषमा स्वराज ने विदिशा से चुनाव लड़ा और प्रचंड बहुमत से जीत दर्ज की और 15वीं लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष भी रहीं. 2014 के चुनाव में भी सुषमा ने कांग्रेस प्रत्याशी लक्ष्मण सिंह को बड़े अंतर से मात दी थी और केंद्र की एनडीए सरकार में विदेश मंत्री बनीं.

ऐसे में इस सीट का सियासी इतिहास तो यही कहता है कि विदिशा में बीजेपी का एकतरफा दबदबा है. यहां हुए 13 चुनावों में से पार्टी को 11 बार जीत मिली है तो वहीं कांग्रेस 2 बार ही अपना खाता खोल पाई है. फिलहाल इस बार यहां की सांसद सुषमा स्वराज ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया है. जिससे उम्मीद की जा रही है कि विदिशा में बीजेपी की तरफ से नया चेहरा देखने को मिल सकता है. हालांकि, अब तक विदिशा में शानदार जीत दर्ज करने वाली बीजेपी के लिए इस बार यहां की परिस्थितियां थोड़ी बदलती दिख रही हैं. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने यहां अच्छा प्रदर्शन किया है. जिसके चलते कांग्रेस बीजेपी के इस गढ़ को भेदने का दावा कर रही है. ऐसे में बीजेपी को अपने इस गढ़ को बचाए रखना किसी चुनौती से कम नहीं है.

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