टीकमगढ़। शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का बाकी यही निशां होगा. वतन के लिए मरने वालों की निशानियां ही हैं जो हमें वतन के लिए उनके जज्बे का एहसास कराती हैं. साथ ही ये निशानियां हमें तारीख में दर्ज उन दास्तानों से भी रू-ब-रू कराती हैं, जो हमारे दिलों में दबे देशभक्ति के एहसासों को जिंदा करती हैं. लेकिन, भारत मां के वीर सपूतों की कुछ निशानियां ऐसी भी हैं, जिन पर चढ़ी वक्त की धुंध को हटाने की जरूरत न तो हुक्मरानों ने समझी न ही उनकी नुमाइंदगी करते लाटसाहबों ने.
ये दर्द तब और बढ़ जाता है जब बात हो भारत माता के सबसे बहादुर सपूतों में से एक चंद्रशेखर आज़ाद की. टीकमगढ़ में सातार नदी के किनारे बने इस आश्रम के ज़र्रे-ज़र्रे में आज़ाद की यादें बसी हैं. काकोरी कांड के बाद करीब डेढ़ साल तक अज्ञातवास में रहे चंद्रशेखर आज़ाद ने इसी जगह पर एक संत रामदास पुजारी के रूप में वक्त काटा था. इस दौरान उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों की रणनीति भी इसी जगह बनती थी.
बताया जाता है कि आश्रम के पास बने हनुमान मंदिर और एक छोटे कुएं का निर्माण भी चंद्रशेखर आज़ाद ने खुद किया था. इस आश्रम से दो किलोमीटर दूर मौजूद पत्थरों की ओट में छिपी जगह और भी खास है, क्योंकि निर्जन इलाके में बनी यही गुफा आज़ाद और उनके साथियों का वो ठिकाना थी, जहां जंग-ए-आज़ादी से जुड़े मसलों पर चर्चा होती थी, रणनीति बनती थी. आजाद से जुड़ी ये निशानियां अब महज निशानियां बनकर रह गयी हैं. हुक्मरानों की नजरों में होकर भी यह ऐतिहासिक जगह उपेक्षा का शिकार है. जो जगह पर्यटन के साथ-साथ देशभक्ति की भी अलख जगा सकती थी, वो उपेक्षा का शिकार है.
हां आजाद की याद में यहां एक छोटा सा म्यूज्यिम जरूर बना हुआ है, जिसमें रखे अस्थि कलश देश के लिये उनके बलिदान की कहानी याद दिलाते हैं. वहीं खुले आसमान में मूंछों को अमेठते चंद्रशेखर आजाद की रौबदार आदमकद प्रतिमा, जिसका उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था, हर हिंदुस्तानी को याद दिलाती है कि आज़ाद, आज़ाद थे, आज़ाद रहे और अगर दोबारा इस धरती पर आएंगे तो आज़ाद रहेंगे.