टीकमगढ़। 200 साल पहले देश पर अंग्रेजों की हुकूमत थी, उस समय रुद्र प्रताप सिंह टीकमगढ़ के महाराजा हुआ करते थे जो अंग्रेजों के अधीन शासन चलाते थे. एक दिन अंग्रेज अधिकारी डोनाल्ड ने राजा से बड़े अभिमान से कहा कि रेलगाड़ी बहुत तेज चलती है और उसकी रफ्तार का कोई मुकाबला नहीं कर सकता. उनकी इसी बात पर राजा ने बड़े फक्र से कहा यहां रेलगाड़ी का क्या मतलब उसके लिए तो हवा से बातें करने वाला हमारा घोड़ा हनुमंत बेग ही काफी है, लेकिन अंग्रेज को भी घोड़े की तेजी पर यकीन नहीं हुआ, फिर क्या राजा और अंग्रेज के बीच सशर्त एक रेस मंजूर हुई.
ललितपुर और दिल्ली रेल लाइन पर 26 मई 1853 में यह दौड़ चालू हुई थी. जिसमें राजा का घोड़ा रेलगाड़ी से 4 स्टेशनों तक हमेशा आगे-दौड़ता रहा और अंग्रेजों की रेलगाड़ी घोड़े के पीछे सांप की तरह रेंग कर चलती रही. आखिरकार हनुमत बेग जिरोंन, जाखलौन, करौंदा और धौर्रा स्टेशनों तक रेल गाड़ी से आगे-आगे दौड़ता रहा और इस जांबाज घोड़े ने अपने देश का नाम रोशन कर अंग्रेजों और उनकी रेलगाड़ी को करारी शिकस्त दी थी. अंग्रेज अधिकारी डोनाल्ड ने अपनी हार स्वीकारी और राजा से कहा, आपका घोड़ा वाकई दमदार है. जिसने हमारी तेज गति से चलने वाली रेलगाड़ी को पछाड़ दिया.
रेस जीतकर वापस आने के दौरान राजा ने इस घोड़े को जैसे ही आराम करने के लिए गणेशगंज गांव में लगाम खींचकर रोका तो उसकी अचानक मौत हो गई थी. जिसके चलते महाराजा को काफी दुख हुआ और उन्होंने हनुमंत बेग की याद में उसका एक मन्दिर भी बनवाया, जिला मुख्यालय से 4 किलोमीटर की दूरी पर ललितपुर टीकमगढ़ मार्ग पर ये मंदिर आज भी बना हुआ है.
गणेशगंज गांव के लोग इस घोड़े को किसी देवता से कम नहीं समझते हैं. यह मन्दिर पूरे देश में घोड़े का अनोखा मन्दिर है. जहां लोग इस मन्दिर को देखने और पराक्रमी घोड़े का दीदार करने दूर-दूर से आते हैं. साथ ही हर शुभ काम में घोडे़ से आशिर्वाद भी लेते हैं. अपने कारनामे से अंग्रेजों को दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर देने वाला यह घोड़ा सचमुच पराक्रमी था.