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यहां 70 साल पहले था 'डाकुओं का अड्डा', जानें क्या हैं इसका कारण - Notorious bandits names

टीकमगढ़ जिले के महेबा गांव में दो किलोमीटर दूर स्थित पठारी जंगल पहाड़ी को 'डाकुओं के अड्डे' के नाम से जाना जाता है. जो करीब 70 साल पहले डाकुओं की शरण स्थली थी. जानें क्या हैं यहां का राज...

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डाकुओं की पहाड़ी
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Published : Oct 6, 2020, 3:17 PM IST

टीकमगढ़। बुंदेलखंड के पर्याय रहे डाकुओं का नाम सुनते ही सभी के जहन में एक डरावनी तस्वीर सामने आती है. मध्यप्रदेश के कई इलाकों में पहले डाकूओं का बसेरा देखा जाता था, जहां जाने से हर किसी की रूह कांप जाती थी. ऐसी एक जगह टीकमगढ़ जिले के महेबा ग्राम से दो किलोमीटर दूर में स्थित है, जिसे 'डाकुओं के अड्डे' नाम से जाना जाता है. ऐसा माना जाता है कि जिले के पठारी जंगल पहाड़ी में 70 से 80 साल पहले खूंखार डाकुओं का अड्डा हुआ करता था, ईटीवी भारत की टीम ने डाकूओं के अड्डे में जाकर वहां के स्थानीय लोगों से बातचीत की है.

डाकुओं की पहाड़ी

डाकुओं से मुठभेड़ में कई जवान हुए थे शहीद

दरअसल टीकमगढ़ जिले से 70 किलोमोटर की दूरी पर डाकुओं का अड्डा हुआ करता था. किसी जमाने में इस अड्डे पर जाने से पुलिस भी डरती थी, डाकुओं ने मुठभेड़ में कई पुलिस जवानों को शहीद कर दिया था. ये पहाड़ी महेवा गांव से 3 किलोमोटर की दूरी पर बनी है. जो उतरप्रदेश और मध्यप्रदेश की सीमा पर बनी हुई है, ये जंगल करीब 1700 एकड़ में फैली हुई है.

आज भी इस पठारी जंगल पहाड़ी पर अकेले कोई भी नहीं जाता है, ये काफी दुर्गम पहाड़ी है. जहां हमेशा खतरा बना रहता है. ये पहाड़ी करीब सात किलोमीटर ऊंचाई पर है, जिसमें काफी घना जंगल है, इस जगह जाने के लिए घनी झाड़ियों के बीच रास्ता बनाकर और जान जोखिम में डालकर जाना पड़ता है. इस पहाड़ी पर करीब 70 सालों से डाकुओं का अड्डा रहा है. कहा जाता है कि यहां डाकू महीनों-महीनों तक रूका करते थे और अपने असलहा, गोला बारूद रखते थे, क्योंकि ये पहाड़ी उनके लिए काफी सुरक्षित माना जाता था. आम इंसान तो छोड़िए यहां पुलिस भी नहीं जा सकती थी.

आखिर क्यों था यहां डाकुओं का बसेरा

पठार जंगल पहाड़ी पर डाकुओं को अपनी सुविधा अनुसार सभी चीजें आसानी से उपलब्ध हो जाती थी, साथ ही उन्हें यहां किसी भी तरह से पुलिस वालों का खतरा नहीं रहता था. जिसके कारण डाकुओं ने यहां अपना बसेरा बना लिया था. स्थानीय लोगों का कहना है कि इस पहाड़ी में डकैतों के लिए पानी की पर्याप्त सुविधा होती थी, जिसमें करीब सात तालाब थे, जिससे ये डकैत सैकड़ों की संख्या में यहां पर पनाह लेकर रहते थे. वहीं आसपास अपने घटनाओं को अंजाम देते थे.

डाकुओं की 50-50 की थी टोलियां

इस पहाड़ी पर चंबल के कुख्यात डकैत और बुंदेलखंड के बड़े से बड़े डकैत 50-50 की टोलियां बनाकर रहते थे. जिससे इस इलाके में काफी लूटमार और डाके पड़ते थे. लिधौरा, महेवा, नुना खरो इन गांवों में डाकू पहाड़ी से उतरकर आते थे और लूट-डकैत जैसी घटनाओं को अंजाम देते थे.

ये भी पढ़ें- कोरोना के साथ बढ़ रहा टीबी का खतरा, जानें लक्षण और बचाव के उपाय

राजा का महल था डाकुओं की शरणस्थली

महेवा निवासी चतुरसिंह ठाकुर ने बताया कि डाकुओं ने यहां के महाराज चंपत राय के महल को अपना अड्डा बना लिया था, जिसमें सभी रहते थे. इस पहाड़ी पर करीब 500 साल पुराना खंडहर इमारतें हैं और वह अभी भी रुकने लायक स्थिति में हैं. किसी जमाने में इस पहाड़ी पर बस्ती हुआ करती थी, जिसमें इस पहाड़ी पर राजा पानी के लिए सात तालाब बनवाए थे. सबसे बड़ा तालाब रानी तालाब के नाम से जाना जाता था, जो काफी विशाल तालाब है.

ये भी पढ़ें- उपचुनाव में क्या है दिग्विजय सिंह की भूमिका, कमलनाथ से दूरी या परदे के पीछे अहम भूमिका !

डाकू यहां अपने साथियों को देते थे ट्रेनिंग

तालाब के आस-पास विशाल चट्टाने हैं, जिसमें ये डाकू छिपकर पुलिस से अपना बचाव करते थे और अपनी साथियों को ट्रेनिंग भी देते थे. सबसे ज्यादा डाकू यहां पर पानी की तलाश में गर्मियों के समय रहा करते थे. डाकू यहां रुकने और असलहा रखने के लिए राजा के खंडहर महलों का उपयोग करते थे.

पहाड़ी पर था दो राज्यों के डाकुओं का बसेरा

ये पहाड़ी उतरप्रदेश और मध्यप्रदेश के बॉर्डर पर होने के चलते दोनों राज्यों के डाकुओं की शरणास्थली के रूप में जानी जाती थी. साथ ही घटनाओं को अंजाम देकर ये डाकू इस पहाड़ी पर छिप जाते थे, जिन तक पुलिस नहीं पहुंच पाती थी. लोगों ने बताया कि जब कभी पुलिस इन डाकुओं को पकड़ने की कोशिश करते उन्हें मुंह की खानी पड़ती थी, जिसके कारण पुलिस कर्मियों ने भी यहां देखना बंद कर दिया. जिसके चलते यहां डाकुओं ने अपना अड्डा बना लिया.

कुख्यात डाकुओं के नाम

जानकारी के अनुसार इस पहाड़ी पर डकैत भगवान सिंह, धनसिंह, पूजा बब्बा, अंगद, ढीमर, मूरत सिंह बुन्देलखंड और चंबल के मलखान सिंह, जगदीश सिंह, मंगल सिंह जैसे तमाम डाकुओं ने यहां शरण ली थी. पठारी जंगल की पहाड़ी पर करीब हजार से ऊपर डाकुओं ने अपना अड्डा बना लिया था, जिसे आज सभी 'डाकुओं की पहाड़ी' के नाम से जानते हैं.

टीकमगढ़। बुंदेलखंड के पर्याय रहे डाकुओं का नाम सुनते ही सभी के जहन में एक डरावनी तस्वीर सामने आती है. मध्यप्रदेश के कई इलाकों में पहले डाकूओं का बसेरा देखा जाता था, जहां जाने से हर किसी की रूह कांप जाती थी. ऐसी एक जगह टीकमगढ़ जिले के महेबा ग्राम से दो किलोमीटर दूर में स्थित है, जिसे 'डाकुओं के अड्डे' नाम से जाना जाता है. ऐसा माना जाता है कि जिले के पठारी जंगल पहाड़ी में 70 से 80 साल पहले खूंखार डाकुओं का अड्डा हुआ करता था, ईटीवी भारत की टीम ने डाकूओं के अड्डे में जाकर वहां के स्थानीय लोगों से बातचीत की है.

डाकुओं की पहाड़ी

डाकुओं से मुठभेड़ में कई जवान हुए थे शहीद

दरअसल टीकमगढ़ जिले से 70 किलोमोटर की दूरी पर डाकुओं का अड्डा हुआ करता था. किसी जमाने में इस अड्डे पर जाने से पुलिस भी डरती थी, डाकुओं ने मुठभेड़ में कई पुलिस जवानों को शहीद कर दिया था. ये पहाड़ी महेवा गांव से 3 किलोमोटर की दूरी पर बनी है. जो उतरप्रदेश और मध्यप्रदेश की सीमा पर बनी हुई है, ये जंगल करीब 1700 एकड़ में फैली हुई है.

आज भी इस पठारी जंगल पहाड़ी पर अकेले कोई भी नहीं जाता है, ये काफी दुर्गम पहाड़ी है. जहां हमेशा खतरा बना रहता है. ये पहाड़ी करीब सात किलोमीटर ऊंचाई पर है, जिसमें काफी घना जंगल है, इस जगह जाने के लिए घनी झाड़ियों के बीच रास्ता बनाकर और जान जोखिम में डालकर जाना पड़ता है. इस पहाड़ी पर करीब 70 सालों से डाकुओं का अड्डा रहा है. कहा जाता है कि यहां डाकू महीनों-महीनों तक रूका करते थे और अपने असलहा, गोला बारूद रखते थे, क्योंकि ये पहाड़ी उनके लिए काफी सुरक्षित माना जाता था. आम इंसान तो छोड़िए यहां पुलिस भी नहीं जा सकती थी.

आखिर क्यों था यहां डाकुओं का बसेरा

पठार जंगल पहाड़ी पर डाकुओं को अपनी सुविधा अनुसार सभी चीजें आसानी से उपलब्ध हो जाती थी, साथ ही उन्हें यहां किसी भी तरह से पुलिस वालों का खतरा नहीं रहता था. जिसके कारण डाकुओं ने यहां अपना बसेरा बना लिया था. स्थानीय लोगों का कहना है कि इस पहाड़ी में डकैतों के लिए पानी की पर्याप्त सुविधा होती थी, जिसमें करीब सात तालाब थे, जिससे ये डकैत सैकड़ों की संख्या में यहां पर पनाह लेकर रहते थे. वहीं आसपास अपने घटनाओं को अंजाम देते थे.

डाकुओं की 50-50 की थी टोलियां

इस पहाड़ी पर चंबल के कुख्यात डकैत और बुंदेलखंड के बड़े से बड़े डकैत 50-50 की टोलियां बनाकर रहते थे. जिससे इस इलाके में काफी लूटमार और डाके पड़ते थे. लिधौरा, महेवा, नुना खरो इन गांवों में डाकू पहाड़ी से उतरकर आते थे और लूट-डकैत जैसी घटनाओं को अंजाम देते थे.

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राजा का महल था डाकुओं की शरणस्थली

महेवा निवासी चतुरसिंह ठाकुर ने बताया कि डाकुओं ने यहां के महाराज चंपत राय के महल को अपना अड्डा बना लिया था, जिसमें सभी रहते थे. इस पहाड़ी पर करीब 500 साल पुराना खंडहर इमारतें हैं और वह अभी भी रुकने लायक स्थिति में हैं. किसी जमाने में इस पहाड़ी पर बस्ती हुआ करती थी, जिसमें इस पहाड़ी पर राजा पानी के लिए सात तालाब बनवाए थे. सबसे बड़ा तालाब रानी तालाब के नाम से जाना जाता था, जो काफी विशाल तालाब है.

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डाकू यहां अपने साथियों को देते थे ट्रेनिंग

तालाब के आस-पास विशाल चट्टाने हैं, जिसमें ये डाकू छिपकर पुलिस से अपना बचाव करते थे और अपनी साथियों को ट्रेनिंग भी देते थे. सबसे ज्यादा डाकू यहां पर पानी की तलाश में गर्मियों के समय रहा करते थे. डाकू यहां रुकने और असलहा रखने के लिए राजा के खंडहर महलों का उपयोग करते थे.

पहाड़ी पर था दो राज्यों के डाकुओं का बसेरा

ये पहाड़ी उतरप्रदेश और मध्यप्रदेश के बॉर्डर पर होने के चलते दोनों राज्यों के डाकुओं की शरणास्थली के रूप में जानी जाती थी. साथ ही घटनाओं को अंजाम देकर ये डाकू इस पहाड़ी पर छिप जाते थे, जिन तक पुलिस नहीं पहुंच पाती थी. लोगों ने बताया कि जब कभी पुलिस इन डाकुओं को पकड़ने की कोशिश करते उन्हें मुंह की खानी पड़ती थी, जिसके कारण पुलिस कर्मियों ने भी यहां देखना बंद कर दिया. जिसके चलते यहां डाकुओं ने अपना अड्डा बना लिया.

कुख्यात डाकुओं के नाम

जानकारी के अनुसार इस पहाड़ी पर डकैत भगवान सिंह, धनसिंह, पूजा बब्बा, अंगद, ढीमर, मूरत सिंह बुन्देलखंड और चंबल के मलखान सिंह, जगदीश सिंह, मंगल सिंह जैसे तमाम डाकुओं ने यहां शरण ली थी. पठारी जंगल की पहाड़ी पर करीब हजार से ऊपर डाकुओं ने अपना अड्डा बना लिया था, जिसे आज सभी 'डाकुओं की पहाड़ी' के नाम से जानते हैं.

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