शहडोल। देवउठनी एकादशी के साथ ही विवाह के शुभ मुहूर्त शुरू हो जाते हैं. कोरोना काल के 2 साल के बाद इस बार शुभ मुहूर्त शुरू होते ही विवाह की लंबी कतार लगी. अकसर आपने देखा होगा कि शादी-विवाह में बांस का इस्तेमाल होता है, इसे बेहद खास भी माना जाता है. इतना ही नहीं कहा जाता है कि बांस के बिना विवाह ही संभव नहीं है. आखिर बांस को जलाया क्यों नहीं जाता है, और बांस का किस-किस तरह से उपयोग होता है. इन सभी सवालों को लेकर ईटीवी भारत ने परंपरागत धर्मगुरु पंडित सूर्यकांत शुक्ला से बातचीत की.
विवाह के शुभ मुहूर्त
परंपरागत धर्मगुरु पंडित सूर्यकांत शुक्ला कहते हैं कि पिछले 2 साल से देखा जाए तो कोरोना की वजह से विवाह बहुत कम हुए हैं, जो कुछ हुए भी तो बहुत कम संख्या में कोरोना गाइडलाइन का पालन करते हुए. देवसइनी एकादशी से देवउठनी एकादशी के बीच में विवाह के शुभ मुहूर्त नहीं होते हैं. इस कारण से पिछले 4 महीने में कोई विवाह नहीं हुआ. 20 नवंबर से बहुत ही शुभ मुहूर्त प्रारंभ हो जाएंगे. देवउठनी एकादशी से देवशयनी एकादशी के बीच में कई शुभ मुहूर्त होते हैं. इस तरह से अन्य वर्ष के जो विवाह कार्य रुके हुए हैं वह भी इस वर्ष हो रहे हैं, जिसके चलते देवउठनी एकादशी से देवशयनी एकादशी के बीच शादियों की भरमार है.
विवाह में बांस का महत्व
परंपरागत धर्मगुरु पंडित सूर्यकांत शुक्ला बांस का महत्व बताते हुए कहते हैं कि बांस से बनी वस्तुओं का उपयोग तो वैसे सोलह संस्कारों में ही प्रधान माना जाता है. जन्म से लेकर विवाह और फिर मरण यह सारे संस्कार प्रमुख कहलाते हैं. कहा भी गया है, 'जन्म, विवाह, मरण गत होई, जहां जस लिखा तहां तस होई।'
अर्थात जब बच्चे का जन्म होता है तो आपने देखा होगा किस तरह से सूपा में उसे रखा जाता है, और वो सूपा बांस का बना होता है. जिसे अत्यंत पवित्र और पावन माना गया है. बांस का जो सूपा बनाया जाता है उसे अत्यंत पावन और पवित्र माना गया है. उसमें रखने से उस बच्चे के वंश में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है. धर्म-शास्त्रों के अनुसार, बांस वंश वृद्धि का प्रतीक माना गया है.
विवाह में आपने देखा होगा कि प्रारंभ में ही मंडप का उल्लेख है कि मंडप बनाया जाए और मंडप तो बांस से ही बनाए जाते हैं. मतलब वंश के वृद्धि का कार्य प्रारंभ होता है, एक दांपत्य जीवन प्रारंभ होता है, उसमें शुभ सूचक बांस को मानकर वहां स्थापित किया जाता है, उसे देवताओं के रूप में पूजा जाता है. बांस के पात्रों की प्रधानता है, शुक्लइया से लेकर के जब आप देखेंगे कि लावा परछाई की एक रस्म होती है, रिवाज होता है, उसमें छोटे-छोटे सूप बनाए जाते हैं जो वंशकार समाज से लेकर के लाई आदि रखकर के ब्राह्मण मंत्र वाचन करते हैं और उनका प्रयोग होता है. उस वंशकार समाज के लाए हुए बांस के पात्र पर पकवान रखे जाते हैं, उन्हें अत्यंत पवित्र और पावन माना जाता है. वह पकवान कन्या पक्ष के व्यक्ति के द्वारा वर पक्ष को भेंट में दिया जाता है. सामान्य भाषा में उसे झांपी कहते हैं.
इसी प्रकार से बांस के अनेकों प्रकार के प्रयोग में जैसे बांस का छिटवा है. माता पार्वती ने भगवान भोलेनाथ को वर के रूप में पाने के लिए बांस के छिटवे का दान किया था, और हरतालिका तीज की कथा में उसका स्पष्ट उल्लेख और वर्णन भी है. बांस के पात्र को अत्यंत शुभ मानते हुए उसके पात्र के बिना उसके स्पर्श के कोई दैवीय कार्य विशेष शुभ नहीं माने जाते हैं.
बांस को क्यों नहीं जलाया जाता
परंपरागत धर्मगुरु पंडित सूर्यकांत शुक्ला कहते हैं कि बांस को जलाया नहीं जाता है, शास्त्रीय दृष्टि, वास्तु शास्त्र, धर्म-शास्त्र और अन्य पुराणों की मानें तो उसमें बांस वंश का स्वरूप माना गया है. जब माताएं गर्भ धारण करके शिशु को जन्म देती है तो जो नाडा होता है, उसे बांस के वृक्ष के बीच में गड़ाया जाता है, ताकि उसका वंश वृद्धि होता रहे.
जब मृत्यु होती है तो स्नेही भी बांस की बनाई जाती है. आपने देखा होगा कि उसमें भी सभी लकड़ियों को जला दिया जाता है, लेकिन बास को वंश स्वरूप मानकर उसे वहीं छोड़ दिया जाता है, और किनारे रख देते हैं. इसलिए बांस का हिंदू विवाह में या यूं कहें के हिंदू के सोलह संस्कारों में जन्म से लेकर के मृत्यु के बीच में यह अत्यंत ही शुभ और पावन है, और उनसे बने हुए बर्तन बहुत ही शुभ माने गए हैं.
इस सीजन वंशकार समाज को उम्मीद
जिस तरह से इस बार के शुभ मुहूर्त में काफी ज्यादा शादियां हैं. पिछले 2 साल कोरोना की वजह से रुकी हुई शादियां भी इस बार हो रही हैं. जिसे देखते हुए बांस के बर्तन बनाने वाले वंशकार समाज को काफी उम्मीदें हैं. इसलिए उनकी तैयारी भी काफी अच्छी है. उन्होंने पहले से ही कई सारे बांस की वस्तुएं बना कर रख ली हैं. उनका कहना है कि 2 साल तो काफी कष्ट भरे गुजरे, लेकिन अब जब अच्छी-खासी शादियां हो रही हैं तो उम्मीद है कि सामानों की बिक्री जमकर होगी.