सतना। जिले की नागौद विधानसभा में आज भी कुपोषण सबसे बड़ा मुद्दा है. यहां के किसानों को बरगी बांध का पानी नहीं मिल पाया है. इसलिए वे ढंग से खेती नहीं कर पा रहे हैं. सतना की नागौद विधानसभा किसी फिल्म की कहानी जैसी है. इस विधानसभा के इतिहास को हम देखें तो हमें नागेंद्र सिंह और यादवेंद्र सिंह नाम के दो राजपूत नेताओं की वर्षों पुरानी प्रतिद्वंता नजर आती है. जिसमें नागेंद्र सिंह नागौद जीतते हुए नजर आते हैं. नागेंद्र सिंह इस विधानसभा क्षेत्र से पहली बार 1977 में विधानसभा के विधायक चुने गए थे. उसके बाद से अलग-अलग चुनाव में उन्होंने पांच बार इस विधानसभा क्षेत्र से जीत हासिल की है. अभी भी इस विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुनकर आए हैं.
नागेंद्र और रश्मि सिंह के बीच कड़ा मुकाबला: सतना जिले के नागौद से 14 प्रत्याशी मैदान में हैं. भाजपा ने नागेंद्र सिंह को प्रत्याशी बनाया है. वहीं कांग्रेस ने डॉ. रश्मि सिंह को मैदान में उतारा है. दोनों प्रत्याशियों को बीच कड़ा मुकाबला देखने को मिलेगा.
साल 2003 में उन्होंने यादवेंद्र सिंह को 12000 वोटों से हराया था. यादवेंद्र सिंह उस समय भी कांग्रेस की टिकट से यहां चुनाव लड़े थे. 2008 में उन्होंने एक बार फिर नागेंद्र सिंह ने यादवेंद्र सिंह को 7000 वोटों से हराया लेकिन 2013 में यादवेंद्र सिंह को मौका मिला और उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के गंगानेंद्र प्रताप सिंह को लगभग 10000 वोटों से हराया. वहीं 2018 में एक बार फिर यादवेंद्र सिंह और नागेंद्र सिंह चुनाव मैदान में थे. इस बार फिर नागेंद्र सिंह ने यादवेंद्र सिंह को 1000 वोटों से हरा दिया.
2023 के संभावित दावेदार: इस बार फिर नागेंद्र सिंह चुनाव मैदान में हो सकते हैं, लेकिन उनकी उम्र को देखते हुए ऐसा लग रहा है कि भारतीय जनता पार्टी गगनेंद्र सिंह को टिकट दे सकती है. गगनेंद्र सिंह जिला पंचायत के सदस्य हैं. वहीं कांग्रेस में भी यादवेंद्र सिंह के अलावा रश्मि सिंह तैयारी में है.
लाल पत्थर का कारोबार: इस विधानसभा के लगभग 200000 वोटरों में बड़ी तादाद ठाकुर वोटरों की है. वह नागौद विधानसभा में 40% से ज्यादा हैं. ठाकुरों के अलावा यहां ब्राह्मण वैश्य वोटर भी बड़ी संख्या में है. इस क्षेत्र में कोल आदिवासियों की तादाद भी बहुत ज्यादा है. यह ज्यादातर आदिवासी जंगली इलाकों में रहते हैं और उनकी स्थिति बहुत दयनीय और बुरी है. इस इलाके में लाल पत्थर पाया जाता है. जिसे छिपा बनती है और यही इस इलाके का पुराना रोजगार का जरिया है. गरीब आदिवासी इन्हीं पत्थरों को निकाल कर रोजगार प्राप्त करते हैं. यहां तक की राजनीति में अपना वर्चस्व रखने वाले बड़े नेता भी इसी कारोबार से जुड़े हुए हैं.
बरगी की नहर का इंतजार: सतना की दूसरी विधानसभाओं की तरह ही नागौर विधानसभा में भी सभी को बरगी बांध की नहर का इंतजार है. दरअसल जबलपुर के बरगी बांध की दक्षिण तट नहर सतना जा रही है, लेकिन इसे कटनी के पास एक बड़े पहाड़ के अंदर से गुजरा है. इसमें कई किलोमीटर लंबी एक सुरंग बनी है, जिसका काम रुका हुआ है. इसके चलते बरगी से यह पानी सतना नहीं जा पा रहा है. हर बार चुनाव में यहां के विधायक प्रत्याशी इस बात की घोषणा करते हैं, लेकिन वह पूरा नहीं होता. इसकी वजह से इस विधानसभा के आय का मुख्य स्रोत खेती पीछे रहा है. यहां ज्यादातर लोग खेती पर ही निर्भर हैं, लेकिन पानी नहीं होने की वजह से यहां हर साल सूखा पड़ता है.
कुपोषण का दाग: सतना के पास उचेहरा के परसमनिया पहाड़ के आदिवासियों की गरीबी पूरे मध्य प्रदेश की 13 लाख करोड़ की जीडीपी पर तमाचे जैसी है. मध्य प्रदेश के इस इलाके में अभी भी कुपोषण एक बड़ी समस्या है. यहां के आदिवासियों को पीने तक का पानी नसीब नहीं है. यह गंदा पानी पीते हैं. वहीं उनके पास भोजन के स्रोत पर्याप्त नहीं है. इसकी वजह से यहां सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे पाए जाते हैं, लेकिन कुपोषित बच्चों की आवाज विधानसभा चुनाव का मुद्दा नहीं बनती.
स्वास्थ्य और शिक्षा: नागौद विधानसभा में भी स्वास्थ्य और शिक्षा के हालात बहुत बुरे हैं. यहां पर एक महाविद्यालय है, लेकिन कोई भी तकनीकी विद्यालय नहीं है. जहां पर लोगों को तकनीकी शिक्षा मिल सके. जिससे भी रोजगार से जोड़ सके. यहां कोई भी आईटीआई पॉलिटेक्निक इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं है. बहुत पहले एक संस्कृत विद्यालय यहां खोला गया था, लेकिन वह भी लोगों को रोजगार देने की स्थिति में सफल नहीं रहा स्वास्थ्य के मामले में भी यह इलाका बुरी तरह से पिछड़ा हुआ है. यहां पर दूर-दूर तक डॉक्टर नहीं है. यहां तक की सतना में जब लोग बीमार होते हैं, तो उन्हें या तो रीवा लाना पड़ता है या फिर वह जबलपुर इलाज करवाने के लिए आते हैं.
राजनीतिक पार्टियों के मुद्दे और मैदानी हकीकत: सनातन के नाम पर राजनीति करने वाले लोगों को इन इलाकों में जाना चाहिए. जहां लोगों के पास खाने को नहीं है, पीने को पानी नहीं है. यहां धर्म राजनीति का मुद्दा नहीं है. इस विधानसभा के कुल आदिवासियों ने विकास देखा है, लेकिन इस विकास को देखने के लिए उन्हें अपने घरों से पलायन करना पड़ता है. वे दूसरे प्रदेशों में जाकर होते विकास को देखकर खुद को ठगा सा महसूस करते हैं.