सागर। बुंदेलखंड का राई लोक नृत्य एक ऐसा लोक नृत्य है, जिसने बुंदेलखंड की संस्कृति को देश और दुनिया में पहचान दिलाई है, लेकिन बुंदेलखंड में ये लोक नृत्य काफी बदनाम है. राई लोक नृत्य को लोग देखना पसंद करते हैं और जहां मौका मिलता है, राई नृत्य का आनंद लेने से नहीं चूकते हैं. बुंदेलखंड की सभ्रांत समाज में इस नृत्य को सम्मान नहीं मिलता है. सांस्कृतिक मंच पर लोक नृत्य को बढ़-चढ़कर सम्मान दिया जाता है, लेकिन सामाजिक स्तर पर इस नृत्य को करने वाली नृत्यांगनाओं को सम्मान जनक दृष्टि से नहीं देखा जाता है. ऐसे ही नृत्य की जीवन पर्यंत सेवा के लिए ढलती उम्र में पंडित रामसहाय पांडे को पद्मश्री सम्मान (ramsahay panday awarded with padma shri) से नवाजा गया है.
कला के रूप में जहां रामसहाय पांडे को सम्मान मिला है, तो समाज में तिरस्कार भी मिला है. कई तरह के सम्मान से नवाजे गए रामसहाय पांडे पद्मश्री पुरस्कार से काफी उत्साहित हैं. उनकी चिंता राई लोक नृत्य के भविष्य को लेकर है और उनको डर है कि धीरे-धीरे देश और दुनिया में बुंदेलखंड की संस्कृति का परचम लहराने वाला ये लोक नृत्य विलुप्त हो जाएगा.
पद्मश्री रामसहाय पांडे ने की जीवन भर साधना
रामसहाय पांडे का जन्म 11 मार्च 1933 को एक गरीब ब्राह्मण परिवार (ramsahay panday birth place) के गांव मड़धार पठा में हुआ था. एक ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के बाद रामसहाय पांडे महज 11 साल की आयु में राई नृत्य में मृदंग बजाने में पारंगत हो गए थे. जबकि बुंदेलखंड में राई नृत्य को सम्मानजनक दृष्टि से नहीं देखा जाता था. ऐसे में उन्हें सामाजिक बहिष्कार सहना पड़ा और गांव छोड़कर सागर के नजदीक कनेरादेव में बस गए, जो अब सागर नगर निगम का आखिरी वार्ड है.
विदेशों में भी बजाया डंका
तमाम तिरस्कार और अपमान के बाद उन्होंने लोकनृत्य की साधना जारी रखी और उनके प्रयासों से सांस्कृतिक मंचों पर राई को सम्मान मिलना शुरू हुआ. उनकी कला की छटा ऐसी बिखरी कि देश की सरहदें पार कर राई लोकनृत्य दुनिया भर में मशहूर हुआ और बुंदेलखंड की अलग पहचान बनी. दुबई से लेकर जापान, जर्मनी, हंगरी और स्विट्जरलैंड जैसे देशों में राई लोकनृत्य ने अपनी अलग छाप छोड़ी.
राई लोकनृत्य का दूसरा पहलू सामाजिक तिरस्कार
राई लोकनृत्य ने दुनिया के कई सांस्कृतिक मंचों पर अपनी लोक कला का लोहा भले ही मनवाया हो, लेकिन जिस बुंदेलखंड में लोक नृत्य की उत्पत्ति हुई. वहां इसे ये सम्मान हासिल नहीं हो सका. आमतौर पर बुंदेलखंड के सामाजिक ताने-बाने में शादी और जन्मोत्सव के मौके पर रसूखदार लोगों द्वारा राई लोक नृत्य का आयोजन करवाया जाता है. इन समारोह में आने वाले लोग राई लोक नृत्य का आनंद लेते थे, लेकिन लोक नृत्य को करने वाली बेड़िया जाति की महिलाओं को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते हैं.
बेड़िया जाति की महिलाओं का हुआ शारीरिक शोषण
लोक नृत्य का एक दुखद पहलू ये है कि नृत्य को करने वाली बेड़िया जाति की महिलाओं को धीरे-धीरे इन्हीं रसूखदार लोगों ने वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेल दिया. एक तरफ जहां बेड़िया जाति की महिलाएं लंबा घुंघट डालकर अपने मनमोहक नृत्य से समा बांध देती थीं, दूसरी तरफ उन्हें शारीरिक शोषण का भी शिकार होना पड़ता था. आज भी ये दुखद पहलू उनके जीवन का अंग बन गया है.
राई के भविष्य को लेकर चिंतित हैं रामसहाय पांडे
अपनी जीवन पर्यंत साधना के बूते राई लोक नृत्य को दुनिया भर में मशहूर करने वाले पंडित रामसहाय पांडे के संघर्ष को कई सम्मान मिले हैं. उम्र के 94 साल पूरे होने पर उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री से भी नवाजा गया है, लेकिन उनकी एक बड़ी चिंता है कि यह लोकनृत्य विलुप्त न हो जाए. इसको कैसे भी बचाया जाए.
25% लोगों में बचा लोक नृत्य
रामसहाय पांडे का कहना है कि आज की स्थिति में सिर्फ 25% राई लोक नृत्य बचा है और 75% खत्म हो चुका है. एक समय था कि जब झंडा तुड़वाने की परंपरा थी, जो आज पूरी तरह से खत्म हो चुकी है. राजधानी भोपाल में नवाबों के दौर में भी ये परंपरा लागू थी. अर्जुन सिंह जब मुख्यमंत्री थे और साहित्यकार अशोक बाजपेई थे. तब मैंने भारत भवन में यह परंपरा शुरू कराई थी. यह पूरी तरह से खत्म हो चुकी है, तेजी से बदल रहे युग में मुझे राई नृत्य के विलुप्त होने की चिंता सता रही है. इस अवसर पर पद्मश्री पुरस्कार हासिल करने वाले पंडित रामसहाय पांडे ने ईटीवी भारत से खास बातचीत की.
प्रधानमंत्री का आभार- सारे बुंदेलखंड को दिया सम्मान
पद्मश्री पुरस्कार हासिल करने वाले पंडित रामसहाय पांडे का कहना है कि इस सम्मान से नवाजे जाने पर वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शुक्रिया अदा करते हैं. उनकी इस कला साधना को मध्य प्रदेश सरकार सहित देश की कई सरकारों और अब केंद्र सरकार ने सम्मानित किया है. उन्हें मध्य प्रदेश सरकार ने शिखर सम्मान, तुलसी सम्मान और नृत्य शिरोमणि जैसे सम्मान से नवाजा है. इसके अलावा पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा उन्हें टैगोर अवॉर्ड भी दिया गया है. आज जब पद्मश्री अवार्ड से उन्हें सम्मानित किया गया है, तो यह पूरे बुंदेलखंड का सम्मान है और 11 साल की उम्र से शुरू हुई उनकी इस साधना को 94 साल की उम्र में सबसे बड़े सम्मान से नवाजा गया है.
जिंदगी भर लड़ी लड़ाई
पंडित रामसहाय पांडे ने 11 वर्ष की उम्र में राई लोक नृत्य में मृदंग बजाना शुरू कर दिया था. रामसहाय पांडे बताते हैं कि जब वह राई लोक नृत्य में मृदंग बजाने लगे, तो लोगों ने उन्हें ब्राह्मण मानने से इनकार कर दिया और उनकी शादी में भी कई तरह की दिक्कतें आईं. उन्होंने कहा कि मेरा ये कहना है कि एक तरफ हमारी फिल्में हैं, जिनमें आप देख सकते हैं कि किस तरह के नृत्य होते हैं और दूसरी तरफ राई लोक नृत्य है. जिसमें महिलाएं लंबा घुंघट डालकर पूरे शरीर को ढककर आठ 8 घंटे तक नृत्य साधना करती हैं. इस दौरान न उन्हें कोई छू सकता है और न उनसे कोई बदतमीजी कर सकता है.
उन्होंने कहा कि जहां तक उनके व्यक्तिगत जीवन की बात है, वह क्या करना चाहती है और कैसे जीना चाहती है. इसके लिए सबको स्वतंत्रता है. मैंने जीवन भर राई लोक नृत्य के लिए लड़ाई लड़ी. विदिशा जिले में एक महंत ने राई लोक नृत्य का विरोध किया, तब मैंने उनको समझाया कि यह लोक नृत्य असलियत में ईश्वर की साधना है. इसमें भगवान की लीला है. तब वह मेरी बात से संतुष्ट हुए और उन्होंने खुद राई नृत्य को देखा जीवन भर ऐसी कई स्थिति जगह-जगह बनी.