रायसेन। देश में सांची एक ऐसी जगह है जो इतिहास के प्रेमियों के साथ-साथ प्रकृति प्रेमियों के लिए भी महत्वपूर्ण है. सांची केवल बौद्ध धर्म को समर्पित नहीं है यहां जैन और हिन्दू धर्म से सम्बंधित साक्ष्य भी मौजूद हैं. यहां मौर्य और गुप्तों के समय के व्यापारिक मार्ग में स्थित होने के कारण इसकी महत्ता बहुत थी और आज भी है. सांची अपने आंचल में बहुत सारा इतिहास समेटे हुए है. सांची को किसी भी परिचय की आवश्यकता नहीं है. यह भारत का सबसे महत्वपूर्ण स्थानों में से एक के रूप में पहले से अंकित है. सांची से भारत को राष्ट्रीय चिन्ह भी मिला है. नोटों पर भी सांची का स्तूप को अंकित किया गया है. यह जगह बौद्ध धर्म के बारे में बताती है कि सांची एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है. जिसमें असंख्य बौद्ध संरचनाएं, स्तंभ और मठ देखने को मिलते हैं. इन स्मारकों में से अधिकतर तीसरी और 12 वीं शताब्दी के बीच के युग की तारीख देखने को मिलती है, और सांची यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत स्थलों के अंतर्गत शामिल है.
विदेशों से पहुंचते हैं पर्यटक
सांची का स्तूप, सम्राट अशोक महान ने तीसरी शती, ई.पू. में बनवाया था. इसका केंद्र एक सामान्य अद्र्धगोलाकार, ईंट निर्मित ढांचा था, जो कि बुद्ध के कुछ अवशेषों पर बना था. इसके शिखर पर एक छत्र था, जो कि स्मारक को दिये गये सम्मान का प्रतीक था. सांची स्मारकों की भव्यता तो आकर्षण का केंद्र है, यहां का शांत वातावरण हर आने वाले को महात्मा बुद्ध के शांति के संदेश समझने में मदद करती है. यहां देश से ही नहीं बल्कि विदेशों से लोग पहुंचते हैं. भ्रमण के बाद बहुत खुश नजर आते है.
उल्टे कटोरे जैसी आकृति हैं सांची स्तूप
सांची स्तूप में स्तूप क्रमांक एक सबसे बड़ा स्तूप है. इस स्तूप का निर्माण सम्राट अशोक ने करवाया था. इस स्तूप का आकार उल्टे कटोरे की जैसा है. इसके शिखर पर तीन छत्र लगे हुए हैं जो कि महानता को दर्शाता है. यह स्तूप गौतम बुद्ध के सम्मान में बनाया गया. इस स्तूप में प्रस्तर की परत और रेलिंग लगाने का कार्य शुंग वंश के राजाओं ने किया. इस स्तूप में चार द्वार बने हुए है जिनका निर्माण सातवाहन राजाओं ने करवाया था. इन द्वारों पर जातक और अलबेसंतर की कथाएं को दर्शाया गया है.
अन्य नामों से जाना जाता है सांची स्तूप
इस स्तूप की पूर्व दिशा में स्तूप क्रमांक तीन है जो बिल्कुल साधारण है. सांची में कुल मिलाकर बड़े छोटे 40 स्तूप हैं. सांची में स्तूपों का निर्माण तीसरी ईसा पूर्व से बारहवी शताब्दी तक चलता रहा. सांची को काकनाय, बेदिसगिरि, चैतियागिरि आदि नामों से जाना जाता था. सांची में एक पहाड़ी पर स्थित है जहां चैत्य, विहार, स्तूप और मंदिरों को देखा जा सकता है. यह हैरानी का विषय है कि भारत के सबसे पुराने मंदिरों में से कुछ मंदिर यहां है. स्तूपों का निर्माण सांची में ही क्यों इसके पीछे कुछ कारण है, जिसमें एक कारण सम्राट अशोक की पत्नी महादेवी सांची से ही थी और उनकी इच्छानुसार यह स्तूप सांची में बनाए गए है. एक कारण यह हो सकता है कि मौर्यकाल में विदिशा एक समृद्ध और व्यापारिक नगर था और उसके निकट यह स्थान बौद्ध भिक्षुओं की साधना के लिए अनुकूल थी. इन सबसे अलग सर्वमान्य तथ्य यह है कि कलिंग युद्ध की भयानक मारकाट के बाद अशोक ने कभी न युद्ध करने का निर्णय लिया. इस युद्ध अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया. उन्होंने पूरे भारत में स्तूपों का निर्माण कराया जिनमें से सांची भी एक था.
बुद्ध के दो शिष्यों की रखी है अस्थिकलश
भगवान बुद्ध के दो शिष्यों सारिपुत्र और महामुगल्यान के अस्थिकलश असुरक्षा के भय से पूरे वर्ष अंधेरी कोठरी में कैद रहते हैं. ये अंधेरी कोठरी स्तूप में बने तलघर में है. वर्ष 1952 में सांची के इस मंदिर में सुरक्षा की दृष्टि से तलघर बनाकर इन कलशों को रखा गया था. इनकी सुरक्षा को लेकर महाबोधि सोसायटी इतनी डरी हुई है कि इन अस्थि कलशों को वर्ष में एक बार नवंबर के आखिरी रविवार को धातु पूजन के दौरान निकाला जाता है. तलघर की एक चाबी महाबोधि सोसाइटी और दूसरी चाबी जिला प्रशासन के पास रहती है. बहुत संघर्ष के बाद ब्रिटेन से वापस लाई गई सारिपुत्र और महामुगल्यान की अस्थियों की सुरक्षा के लिए यह खास इंतजाम किए गए थे. लेकिन तलघर की सीढ़ियों और उसके अंदर न तो रोशनी की व्यवस्था है और न ही साल भर वहां सफाई की जाती है.
ब्रिटिश इतिहासकार कनिंघम और मैसी के हाथ लग गई थी अस्थियां
इतिहासकारों के अनुसार गौतम बुद्ध के परम शिष्य सारिपुत्र और महामुगल्यान का निधन सांची में हुआ था. तब उनके शिष्यों ने दोनों की अस्थियों को संदूक में बंदकर एक संदूक सांची के स्तूप में और दूसरा संदूक सतधारा के स्तूप में रख दिया था. ये दोनों संदूक 1851 में ब्रिटिश इतिहासकार कनिंघम और मैसी के हाथ लग गए थे, वे इन अस्थियों को ब्रिटेन ले गए थे. जहां विक्टोरिया एंड एल्बर्ट म्यूजियम में इनको रखा गया था. 1939 में महाबोधि सोसाइटी और भारत ने ब्रिटिश शासन से अस्थियां वापस करने की मांग की. जिस पर विचार के बाद ब्रिटिश सरकार ने 24 फरवरी 1947 को अस्थियां श्रीलंका भेजीं. इसके बाद 1952 में ये अस्थियां भारत में पहले कोलकाता और फिर सांची लाई गईं. जहां 1952 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के उपस्थिति में बौद्ध मंदिर के तलघर में रखी गईं थी. इससे पहले अस्थियों को म्यांमार, नेपाल, लद्दाख आदि जगहों पर दर्शनों के लिए ले जाया गया था.
बहुत बड़ी है प्रेरणा
इंदौर से घूमने आए कवि प्रभु त्रिवेदी ने बताया पर्यटक ने सांची आंनद दायक है. हदय को अच्छा लगा कि इतने वर्षों पहले अपने पुराने लोग हमारे लिए ये धरोहर छोड़ कर गए हैं. ये आने वाली पीढ़ी के लिए बहुत बड़ी प्रेरणा है. लेकिन आस पास जितना जंगल था अब नहीं है. कही कही कांक्रीट हो गया है. बड़े-बड़े मॉल्स बन गए है. हम तो यहां कहना चाहते हैं कि पर्यावरण के किये दादा का बरगद मरा पापा का नीम सड़क निकल कर कर गई. पीढ़ी तीन यतिन हमें पर्यावरण जल्द संरक्षण की ओर ध्यान देने की आवश्कता है. वैसे तो सभी पर्यटक देखने को आते हैं हम लोग भी देखने आए है जितना हमे प्रसन्ता है उस समय के काम खंड को लेकर मन मे ओशद भी है स्तूप सांची के प्रवेश द्वार पर मूर्तिया है. जिन के मस्तिष्क नहीं है. उस समय के निर्दयी क्रूर हिंसक व्यक्तियों ने उड़ा दिए आदि वो होते तो आज ओर प्रसन्ता होती लेक़िन यहां की साफ सफाई यहां की व्यवस्था प्रशासनिक ढ़ाचा ओर पर्यटको को देख कर मन प्रफुल्लित हो गया.
बताया जाता है भगवान बुद्ध के द्वारा यहां तपस्या की गई शांति ज्ञान का पाठ पढ़ाया गया था. जिस से यह जगह आम जगह जैसी नहीं है. तपस्या के प्रभाव से आज तक यहां भूकंप नहीं आया है और नहीं कभी आकाशीय बिजली गिरी यहां आने वाले पर्यटक यहां शांति सुकून महसूस करते हैं.