मुरैना। चुनाव के दौरान विपक्ष को मात देने और आदिवासी वोटर्स को साधने के लिए नेता एक से बढ़कर लुभावने वादे करते हैं, लेकिन चुनाव गुजरते ही वो उन्हें दूध से मक्खी की तरह निकालकर दूर कर देते हैं. जब-जब चुनाव हुये हैं खुद को आदिवासियों का हमदर्द बताने इन नेताओं ने एक से बढ़कर एक चुनावी घोषणाएं की. लेकिन चुनाव जीतते ही खुद सत्ता सुख में लग गए और आदिवासिों को हाशिये पर डाल दिया. मुरैना में आज भी आदिवासी मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं.
सरकारी योजनाएं की किरण अभी तक उन तक नहीं पहुंची है. मुरैना के आदिवासी बाहुल्य पहाड़गढ़ में हालात बेहद बुरे हैं. रोजगार नहीं होने के चलते लोग दूसरे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. लिहाजा दर्जनों गांव सूने पड़े हैं. भले ही प्रदेश को कुपोषण मुक्त बनाने के लिए सरकार योजनाओं का ढिंढोरा पीट रही हो. लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयां कर रही है. प्रधानमंत्री आवास योजना के अलावा आदिवासियों महिलाओं को कुपोषण योजना के तहत मिलने वाली राशि तक नहीं मिलती.
सरकारी ऑफिसों के चक्कर लगाते-लगाते थक जाने के बाद अब आदिवासियों ने आदिम जाति कल्याण विभाग सहित कलेक्टर से मदद की गुहार लगाई है. उन्हें एक बार फिर आश्वसान देकर वापस लौटा तो दिया गया है. अब देखना होगा कि शासन प्रशासन का कोई नुमाइंदा आदिवासियों के पास पहुंचकर उका दुख दर्द खत्म करता है या फिर आश्वासन एक बार फिर झुनझुना साबित होगा.