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विलुप्ति की कगार पर पारंपरिक सैला नृत्य, आदिवासियों की नहीं सुन रही सरकार - Traditional tribal dance

आदिवासियों का पारंपरिक सैला नृत्य आज विलुप्ति की कगार पर है. आदिवासियों ने सरकार से मांग की है कि उनकी संस्कृति को बचाने के लिए सरकार को ठोेस कदम उठाने चाहिए.

traditional saila dance
पारंपरिक सैला नृत्य करते आदिवासी
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Published : Nov 28, 2019, 11:06 PM IST

Updated : Nov 28, 2019, 11:18 PM IST

मंडला। आदिवासी बाहुल्य मंडला में इन दिनों फसल आने की खुशी सभी के चेहरों पर साफ दिख रही है. चारों ओर खुशी का माहौल है और आदिवासी पारपंरिक नृत्य सैला पर जमकर थिरक रहे हैं. महीनों तक की गई मेहनत का फल मिलने के बाद की खुशी में आदिवासी नृत्य कर अपनी खुशी जाहिर करते हैं.इन दिनों किसान खरीफ की फसल काट रहा है, जबकि रबी सीजन के लिए फसल की बुवाई की जा रही है.

विलुप्ति की कगार पर पारंपरिक सैला नृत्य

ग्रामीणों की मानें तो सैला नृत्य से उनके देवता प्रसन्न होकर फसलों की रक्षा करते हैं. इन दिनों खेत खलिहानों में जहां तक नजर जाएगी, वहां तक रामतिल और सरसों की फसल लहरा रही है. खरीफ सीजन की फसल के स्वागत के लिए आदिवासी पारंपरिक वेशभूषा में सैला नृत्य से समां बांध रहे हैं और महिलाएं भी ताल से ताल मिला रही हैं.

traditional saila dance
फसल आने की खुशी

ईटीवी भारत के साथ साझा किया दर्द
पारंपरिक परिधान में डांस करते आदिवासियों के चेहरे भले ही खिले हुए हों लेकिन उनके दिल में ऐसा दर्द दफ्न है, जिसकी आवाज आज तक सियासतदानों के कानों तक नहीं पहुंची. इसी दर्द को सैला नृत्य करने वाले आदिवासियों ने ईटीवी भारत के साथ साझा किया और सरकार से अपनी संस्कृति को बचाने की गुहार लगाई.

traditional saila dance
पारंपरिक सैला नृत्य करते आदिवासी

आदिवासियों की मांग पर ध्यान नहीं
ठंड के मौसम में जब खरीफ की फसल काटी जाती है और रबी की फसल की बोवुआई की जाती है तब सैला नृत्य का आयोजन होता है. कटाई के बाद जिसके घर पहले फसल आती है सबसे पहले उसके यहां नृत्य का आयोजन होता है, जिसमें ग्रामीणों के साथ रिश्तेदार भी शामिल होते हैं और पारंपरिक नृत्य के जरिए समां बांधते हैं.
लेकिन अफसोस कि स्थानीय जनप्रतिनिधियों और सरकारी की उदासीनत के चलते आज सैला जैसी पारंपरिक नृत्य की विधा विलुप्ति की कगार पर है.

मंडला। आदिवासी बाहुल्य मंडला में इन दिनों फसल आने की खुशी सभी के चेहरों पर साफ दिख रही है. चारों ओर खुशी का माहौल है और आदिवासी पारपंरिक नृत्य सैला पर जमकर थिरक रहे हैं. महीनों तक की गई मेहनत का फल मिलने के बाद की खुशी में आदिवासी नृत्य कर अपनी खुशी जाहिर करते हैं.इन दिनों किसान खरीफ की फसल काट रहा है, जबकि रबी सीजन के लिए फसल की बुवाई की जा रही है.

विलुप्ति की कगार पर पारंपरिक सैला नृत्य

ग्रामीणों की मानें तो सैला नृत्य से उनके देवता प्रसन्न होकर फसलों की रक्षा करते हैं. इन दिनों खेत खलिहानों में जहां तक नजर जाएगी, वहां तक रामतिल और सरसों की फसल लहरा रही है. खरीफ सीजन की फसल के स्वागत के लिए आदिवासी पारंपरिक वेशभूषा में सैला नृत्य से समां बांध रहे हैं और महिलाएं भी ताल से ताल मिला रही हैं.

traditional saila dance
फसल आने की खुशी

ईटीवी भारत के साथ साझा किया दर्द
पारंपरिक परिधान में डांस करते आदिवासियों के चेहरे भले ही खिले हुए हों लेकिन उनके दिल में ऐसा दर्द दफ्न है, जिसकी आवाज आज तक सियासतदानों के कानों तक नहीं पहुंची. इसी दर्द को सैला नृत्य करने वाले आदिवासियों ने ईटीवी भारत के साथ साझा किया और सरकार से अपनी संस्कृति को बचाने की गुहार लगाई.

traditional saila dance
पारंपरिक सैला नृत्य करते आदिवासी

आदिवासियों की मांग पर ध्यान नहीं
ठंड के मौसम में जब खरीफ की फसल काटी जाती है और रबी की फसल की बोवुआई की जाती है तब सैला नृत्य का आयोजन होता है. कटाई के बाद जिसके घर पहले फसल आती है सबसे पहले उसके यहां नृत्य का आयोजन होता है, जिसमें ग्रामीणों के साथ रिश्तेदार भी शामिल होते हैं और पारंपरिक नृत्य के जरिए समां बांधते हैं.
लेकिन अफसोस कि स्थानीय जनप्रतिनिधियों और सरकारी की उदासीनत के चलते आज सैला जैसी पारंपरिक नृत्य की विधा विलुप्ति की कगार पर है.

Intro:मण्डला जिले के वनांचल में रहने वाले प्रकृति पुत्र हर छोटी बड़ी खुशी के लिए प्रकृति का धन्यवाद देना नहीं भूलते माटी उन्हें अनाज देती हैं और मिट्टी के ये लाल उसका स्वागत नाच गा कर करते हैं जिसे ये 'सैला ' कहते हैं,नृत्य की यह खास कला खास मौसम में ही देखी जा सकती है।


Body:किसान अपनी बतर(खरीफ)की फसल काट रहा और उन्हारी(रबी) की फसल की बोआई कर रहा है प्रकृति भी पूरे अनुराग के साथ धरती का श्रंगार कर रही है,पीले फूलों से सरसों और हर तरफ रमतिला के साथ ही अरहर के फूलों की खुश्बू एक मदमाता सा अहसास दिला रही है वहीं दूर से आती हुई मिट्टी के मांदर (मृदंग),टिमकी,लकड़ी के चतकुले के साथ बाँसुरी की मीठी ताल और एक लय से गाते हुए वे आदिवासी जिन्होंने कभी किसी से कोई राग तान तो नहीं सीखा लेकिन मजाल की एक भी सुर या ताल इधर का उधर हो जाए।दूर दराज के जंगलों के बीच रहने जल,जंगल और जमीन पर निर्भर रहने वाले ये आदिवासी हर एक खुसी का इजहार भी प्रकृर्ति से ही करते हैं जैसे ही इनकी फसल आती है तो फसल के स्वागत के लिए पूरा गाँव उमड़ पड़ता है एक दूसरे को बधाई देने के लिए और माद्यम होता है सैला नृत्य,इन ग्रामीणों का मानना है कि सैला से इनके देवता प्रसन्न होते हैं और इनकी खेती की रक्षा करते हैं सैला का मतलब भी ये कुछ ऐसा ही बताते है।

सैला का अर्थ--वैसे तो सैला आदिवाशियों के पारंपरिक नृत्य की विधा है लेकिन 'सै ' का मतलब स्थानीय भाषा मे खुशहाली और 'ला' का मतलब है लाना,और सैला का मतलब गोंडी भाषा मे बढ़ोत्तरी होता है और यही कारण है कि इस नृत्य का काफी महत्व है।

कब होता है सैला--ठंड के मौषम में जब खरीफ की फसल काटी जाती है और रबी की फसल की बोआई की जाती है इस नृत्य का आयोजन तभी होता है,जिसके घर पर पहले फसल आती है उसके घर पहले सैला का आयोजन होता है जिसमें ग्रामीणों के साथ नाते रिश्तेदार शामिल होते हैं और फिर सामूहिक नृत्य का आयोजन पारम्परिक वेशभूषा और वाद्य यंत्रों के साथ होता है,जिसके बाद हर किसान के घर यही सिलसिला चलता है।

वाद्ययंत्र--मिट्टी की खोल में दोनों तरफ चमड़े से मढ़ी हुई और चमड़े की ही रस्सी से कसी हुई मृदंग जिसे मांदर कहा जाता है इसके बिना सैला नृत्य की कल्पना ही नहीं कि जा सकती वहीं इतने ही जरूरी होते हैं चतकुला, टिमकी,पैर में लोहे के बने पैजन और बाँसुरी के साथ ही हारमोनियम।

नृत्य की शुरुआत--सबसे पहले आदिवासी एक जगह इक्कट्ठे होकर पारम्परिक वस्त्र पहनते हैं और अपने वाद्ययंत्रों की एक स्थान पर रख कर पूजा करते हैं जिसके बाद सर पर पगड़ी बांधी जाती है और वाद्ययंत्रों को धीरे धीरे बजाना प्रारंभ किया जाता है और आहिस्ता आहिस्ता आदिवाशियों की थिरकन रफ्तार पकड़ती है और पूरे जोश के साथ झूम झूम कर अलग अलग तरह के पथ से सैला नृत्य मानव पिरामिड पर जाकर समाप्त होता है जिसमे एक के ऊपर एक चढ़ कर ये आदिवासी नृत्य करते हैं।एक बार प्रारम्भ हुआ सैला नृत्य कम से कम एक घण्टे चलता है जिसके बाद फिर कुछ देर आराम कर इसकी फिर से शुरुआत होती है।


Conclusion:आदिवाशियों को भोला भाला माना जाता है क्योंकि इनके मन मे छल प्रपंच नहीं देखा जाता और यही कारण है कि इनका यह पारम्परिक नृत्य आज महज अधिकारियों और नेताओं के मन बहलाव का साधन मात्र रह गया है,आलम यह है कि किसी आयोजन में इन आदिवाशियों की कला को प्रदर्शित करने बुला तो लिया जाता है लेकिन इस पारम्परिक धरोहर को सहेजने की दिशा में कोई मदद आज तक नहीं दी गयी,ये अपने वाद्ययंत्रों से लेकर साज श्रंगार और वेशभूषा के सारे सामन खुद खरीदते हैं और इन्हें गाड़ियां भेज कर न के बराबर पारिश्रमिक देकर गाँव से शहर तक बुलवा लिया जाता है,और कुछ तालियों और फ़ोटो शेषन के बाद गाँव भेज कर तब तक भुला दिया जाता है जब तक कि कोई दूसरा आयोजन न हो,इन ग्रामीणों की पीड़ा स्वजातीय जनप्रतिनिधियों से इस लिए है क्योंकि अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित इस जिले से सैला जैसी पारम्परिक नृत्य विधा आज समाप्ति की ओर है।

बाईट--रूप सिंह भगत(हाफ स्वेटर में है)
देव् सिंह पार्ट( कुर्ता और पीली पगड़ी,सफेद मूछ)

पीटूसी अलग अलग स्थान पर उपयोग की जा सकती हैं।
Last Updated : Nov 28, 2019, 11:18 PM IST
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