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विलुप्त हो रहा आदिवासी महिलाओं का पारम्परिक नृत्य 'रीना', सिर्फ बुजुर्ग महिलाओं तक सीमित

मंडला जिले के आदिवासी अंचल की पहचान रहा पारम्परिक नृत्य 'रीना' लगभग विलुप्त होता जा रहा है.नई पीढ़ी अब इससे काफी दूर जा चुकी है. केवल बुजुर्ग महिलाएं ही इसका दामन थामे हुए हैं.

Traditional dance 'Reena' is losing its identity
पारम्परिक नृत्य 'रीना' खो रहा अपनी पहचान
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Published : Dec 18, 2019, 3:07 PM IST

Updated : Dec 18, 2019, 7:56 PM IST

मंडला। जिले कि आदिवासी महिलाओं द्वारा किए जाने वाला पारम्परिक नृत्य 'रीना' अब अपने अस्तित्व के आखिरी पड़ाव पर है. नई पीढ़ी अब इससे काफी दूर जा चुकी है. केवल वो बुजुर्ग महिलाएं ही इसका दामन थामे हुए हैं, जो टेलीविजन और इंटरनेट की दुनिया के लिहाज से पिछड़ी मानी जाती हैं.

पारम्परिक नृत्य 'रीना' खो रहा अपनी पहचान

एक दौर वो भी था जब गांव के किसी भी परिवार में खुशियों का कोई भी मौका होता तो एक तरफ जहां पुरुष 'कर्मा' और 'सैला' की धुन पर नाचते थे, तो वहीं महिलाएं पारम्परिक परिधान और लाल रंग के लिबाज में सांझ से लेकर भोर का तारा उगने तक 'रीना' की मधुर तान छेड़ते और तालियों की ताल संग नृत्य करती थी.रीना के गीतों में धार्मिक कहानियों, खेत बाड़ी की बातें, जंगल से जुड़े अनुभव होते हैं. वहीं महिलाएं बताती हैं कि उन्होंने किसी से सीखा तो नहीं, लेकिन पुराने दौर में महिलाओं के मनोरंजन का बस यहीं एक साधन हुआ करता था. खासकर जब पुरुष फसल को जंगली जानवरों से बचाने रात में खेतों की रखवाली करने जाते थे.

आदिवासियों की इस समाप्त हो रही परम्परा को बचाने के लिए, जिले के मोहगांव विकास खंड में प्रभारी बीओ के पद पर कार्यरत रूप सिंह भगत अपने स्तर पर प्रयास कर रहे हैं. वहीं आदिवासियों के लिए आरक्षित मंडला जिले के जनप्रतिनिधियों और शासन-प्रशासन को भी इसके लिए आगे आना होगा, नहीं तो ये सदियों की परंपरा महज सरकारी कार्यक्रमों में नुमाइस का साधन बन कर रह जाएगी.

मंडला। जिले कि आदिवासी महिलाओं द्वारा किए जाने वाला पारम्परिक नृत्य 'रीना' अब अपने अस्तित्व के आखिरी पड़ाव पर है. नई पीढ़ी अब इससे काफी दूर जा चुकी है. केवल वो बुजुर्ग महिलाएं ही इसका दामन थामे हुए हैं, जो टेलीविजन और इंटरनेट की दुनिया के लिहाज से पिछड़ी मानी जाती हैं.

पारम्परिक नृत्य 'रीना' खो रहा अपनी पहचान

एक दौर वो भी था जब गांव के किसी भी परिवार में खुशियों का कोई भी मौका होता तो एक तरफ जहां पुरुष 'कर्मा' और 'सैला' की धुन पर नाचते थे, तो वहीं महिलाएं पारम्परिक परिधान और लाल रंग के लिबाज में सांझ से लेकर भोर का तारा उगने तक 'रीना' की मधुर तान छेड़ते और तालियों की ताल संग नृत्य करती थी.रीना के गीतों में धार्मिक कहानियों, खेत बाड़ी की बातें, जंगल से जुड़े अनुभव होते हैं. वहीं महिलाएं बताती हैं कि उन्होंने किसी से सीखा तो नहीं, लेकिन पुराने दौर में महिलाओं के मनोरंजन का बस यहीं एक साधन हुआ करता था. खासकर जब पुरुष फसल को जंगली जानवरों से बचाने रात में खेतों की रखवाली करने जाते थे.

आदिवासियों की इस समाप्त हो रही परम्परा को बचाने के लिए, जिले के मोहगांव विकास खंड में प्रभारी बीओ के पद पर कार्यरत रूप सिंह भगत अपने स्तर पर प्रयास कर रहे हैं. वहीं आदिवासियों के लिए आरक्षित मंडला जिले के जनप्रतिनिधियों और शासन-प्रशासन को भी इसके लिए आगे आना होगा, नहीं तो ये सदियों की परंपरा महज सरकारी कार्यक्रमों में नुमाइस का साधन बन कर रह जाएगी.

Intro:मण्डला जिले के आदिवासी अंचल की पहचान ग्रामीण महिलाओं का पारम्परिक नृत्य 'रीना' लगभग विलुप्त हो चला है एक जमाना था जब सारे गाँव की आदिवासी महिलाएं उनके पति जब जंगली जानवरों से खेत को बचाने के लिए जाते थे या कोई खुसी का मौका होता था तब सारी रात रीना की मधुर ध्वनियों के साथ ही ताली की ताल सुनाई देती थी।


Body:आदिवाशियों महिलाओं के द्वारा किया जाने वाला पारम्परिक नृत्य 'रीना' अब अपने अस्तित्व के आखिरी पड़ाव पर है नई पीढ़ी अब इससे काफी दूर जा चुकी है केवल वे बुजुर्ग महिलाएं ही इसका दामन थामे हुए हैं जो टेलीविजन और इंटरनेट की दुनिया के लिहाज से पिछड़ी मानी जाती हैं लेकिन एक दौर वह भी था जब गाँव के किसी भी परिवार में खुशियों का कोई भी मौका होता तो एक तरफ जहाँ पुरुष 'कर्मा' और 'सैला' की धुन में नाचते रहते तो वहीं महिलाएं पारम्परिक परिधान और लाल रंग के लिबाज में सांझ के धुंधलके से लेकर भोर का तारा उगने तक 'रीना' की मधुर तान छेड़ती और तालियों की ताल संग नृत्य करतीं,यह नृत्य कब शुरू होता और कब खत्म होता है आज भी कोई जान नहीं पाया क्योंकि इसमें ऐसे गीतों को गाया जाता है जो ननद अपनी भाभी से ठिठोली करते हुए कुछ कहती है या फिर देवर की भाभी शिकायत करती है या फिर रीना के गीतों में धार्मिक कहानियों, खेत बाड़ी की बातें,जंगल से जुड़े अनुभव होते हैं महिलाएं बताती हैं कि उन्होंने किसी से सीखा तो नहीं लेकिन पुराने दौर में महिलाओं के मनोरंजन का बस यही एक साधन था खास कर जब पुरुष फसल को जंगली जानवरों से बचाने रात में खेतों की रखवाली करने जाते थे।


Conclusion:आदिवाशियों की इस समाप्त हो रही परम्परा को बचाने जिले के मोहगांव विकास खंड में प्रभारी बीओ के पद पर कार्यरत रूप सिंह भगत जो इसी जाती से आते है अपने स्तर पर प्रयास कर रहे हैं लेकिन आदिवाशियों के लिए आरक्षित मण्डला जिले के जनप्रतिनिधियों और शासन प्रशासन को भी इसके लिए आगे आना होगा वरना यह सदियों की परंपरा महज सरकारी कार्यक्रमों में नुमाइस का साधन बन कर रह जाएगी।

बाईट--रामबती भगत, ग्रामीण महिला
बाईट--चम्पा बाई,ग्रामीण महिला
बाईट--रूप सिंह भगत, बीओ मोहगांव
Last Updated : Dec 18, 2019, 7:56 PM IST
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