मंडला। दुनिया भर में फैल रहे कोरोना वायरस के संक्रमण के कारण अभी सभी स्कूल बंद हैं. हालांकि सरकारें इसके लिए कई वैकल्पिक व्यवस्थाओं जैसे 'डीजी लैब' 'मोहल्ला स्कूल', हमारी घर हमारा विद्यालय का बंदोबस्त किया है, इससे इस कोरोना संकट काल में फायदे भी हो रहे हैं. लेकिन कई बार सुदूर इलाकों में वहां के भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक कारणों से ये सुविधाएं नहीं पहुंच पाती हैं, जिसका खामयाजा बच्चों को उठाना पड़ रहा है. ऐसा ही कुछ हाल है मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य मंडला जिले के नैनपुर विकासखंड का, जहां लोगों के पास न तो मोबाइल है और न ही यहां की भौगोलिक स्थिति के कारण शिक्षक यहां पहुंच पाते हैं, ऐसे में परिजन बच्चों को अपने साथ काम कराने के लिए ले जाते हैं.
नैनपुर विकासखंड में स्कूलों की स्थिति
नैनपुर विकास खंड़ में स्कूलों की संख्या और वहां पढ़ने वाले बच्चों की बात करें तो विकास खंड में 270 प्राथमिक, 81 माध्यमिक,18 हाईस्कूल और 13 हायर सेकेंडरी स्कूल हैं, जिसमें पहली से पांचवीं तक 8357, छठवीं से आठवी कर 6749, नौवीं-दसवीं में 5633 और ग्वारहवीं और बाहरवीं में 3180 बच्चे रजिस्टर्ड हैं, यानि की विकासखंड में कुल 23,919 बच्चे स्कूलों में रजिस्टर्ड हैं, जिसमें से ज्यादातर ऐसे इलाकों से हैं जहां सरकार की इन स्कीम का कम ही असर हो रहा है.
मोहल्ला स्कूल में नहीं पहुंचे बच्चे
कोरोना के चलते स्कूलों में नए सत्र की शुरूआत नहीं हो पाई है और बच्चों की पढ़ाई का नुकसान न हो इसलिए सरकार डिजटल स्टडी के अलावा कई तरकीब अपना रही है, लेकिन ये सब स्कूल न खुलने से काफी हद तक बेअसर हैं. ग्रामीण इलाकों में जब शिक्षक पहुंचते हैं तो उन्हें बच्चे कभी खेत में परिजनों के साथ मिलते हैं, तो कहीं गाय बकरी चराते. ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षकों के सामने यह मुश्किल है कि मोहल्ला स्कूल में किसे पढ़ाएं. खानापूर्ति के लिए शिक्षकों को खेत में जाकर बच्चों को समझाइश देनी पड़ रही है. वहां भी कई बच्चे उनके पीछे पढ़ाई के लिए आ जाते हैं, तो कई बच्चे वहां से रफू चक्कर हो जाते हैं.
पालकों की मजबूरी, शिक्षकों की मुसीबत
नए शिक्षा सत्र की शुरूआत और खेती किसानी का आगाज दोनों एक साथ होता है. ऐसे में बच्चे स्कूल चले जाते हैं और पालक खेत में काम करने. लेकिन इस साल स्कूल खुले नहीं और बच्चे को घर पर अकेले रहने देना भी चिंता का विषय है. ऐसे में पालक बच्चों को अपने साथ खेत पर ले जा रहे हैं, जहां उनसे रोपाई करवा रहे या फिर मवेशियों चरवा रहे हैं.
गरीबी है पढ़ाई में बाधा
ग्रामीण क्षेत्रों में 100 में से 80 घरों में स्मार्ट फोन नहीं है और है भी तो वो पिता या घर के बड़े सदस्य के पास. वहीं इन इलाकों में हकीकत यह है कि टीवी बहुत से लोगों के लिए सपने से कम नहीं और रेडियो चलन से बाहर हो चुका है. ऐसे में ऑनलाइन पढ़ाई के बारे में ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को जानकारी ही नहीं है. वहीं कृषि के काम में लगे परिजनों को भी बच्चे संभालना मुश्किल हो रहा है. ऐसे में वो भी चाहते हैं की स्कूल खुले तो उनके बच्चे पढ़ पाएं.
हकीकत से दूर, अव्यवहारिक है वैकल्पिक व्यवस्था
ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली की समस्या बहुत आम है, वहीं स्कूल नहीं खुलने की दशा में सरकार या फिर शिक्षा विभाग के वैकल्पिक साधन भी हकीकत से परे हैं. संसाधनों से विहीन छात्र पढ़ाई शुरू नहीं कर पा रहे हैं, ऐसे में कस्बाई इलाकों या शहरों के बच्चों और इन आदिवासी पिछड़े इलाके के बच्चों के बीच खाई बनती जा रही है. दूसरी तरफ 'हमारा घर हमारा विद्यालय' में पालकों को जिम्मदारी संभालनी थी, लेकिन जब वे ही सुबह से खेत चले जा रहे तो ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों के पास खेल कूद और खेत में काम के अलावा कोई विकल्प नहीं हैं.
क्या कहते हैं शिक्षक और अधिकारी
जिले के नैनपुर विकासखण्ड में प्राथमिक से हायर सेकेंडरी तक के 382 सरकारी स्कूल हैं जहां 800 के करीब शिक्षक पढ़ाते हैं और करीब 24 हजार बच्चे इन स्कूलों में रजिस्टर्ड हैं. इन 382 सरकारी स्कूलों में ज्यादातर ऐसे इलाकों में हैं, जहां न तो नेटवर्क की सही से कनेक्टिविटी है और न ही यहां रोड जाल बिछ पाया है. ऐसे में नैनपुर विकासखण्ड के खंड शिक्षा अधिकारी भी मानते हैं की जब तक स्कूल में पढ़ाई नहीं होगी तब तक इन बच्चों में ग्रोथ मुश्किल है.
सरकार का स्कूल न खोलने का निर्णय कोरोना के लगातार आ रहे मामलों को देखते हुए तो सही है. क्योंकि बाल मन न तो शारीरिक दूरी को मानता, न ही सेनिटाइजर या मास्क से इत्तेफाक रखता. लेकिन कहीं न कहीं यह भी सच है कि मंडला जैसे आदिवासी जिलों में पढ़ाई का एक मात्र साधन स्कूलों में लगने वाली क्लास के अलावा और कुछ नहीं होता, ऐसे में निश्चित तौर पर आदिवासी अंचल के ये बच्चे कही न कहीं अन्य जिलों से पीछे हो रहे हैं.