मंडला। शहरों में दिवाली पर होने वाली आतिशबाजी, शोर-शराबा और रंगीन लाइटों से कोसों दूर होती है वनांचल में आदिवासियों की दिवाली, लेकिन ये दिवाली बहुत खास होती है. आदिवासी बाहुल्य जिला मंडला में सादगी के साथ दीपोत्सव का पर्व मनाया जाता है. यहां पटाखे, लाइट और फुलझड़ी अहम नहीं होतीं, कुछ अहम होता है तो वो है झाड़ू और गौवंश की पूजा.
ऐसे होती है दीवाली की तैयारी
जिले में बारिश के दौरान खराब हुए कच्चे घरों और आंगन की मिट्टी से छपाई की जाती है. इसके बाद इन्हें गाय के गोबर से लीप कर जंगल या पहाड़ियों से लाई गई सफेद छूही मिट्टी को पोता जाता है. महिलाएं जहां घर की सफाई और लिपाई-पोताई में व्यस्त रहती हैं. वहीं घर के सदस्य इन दिनों धान की कटाई से लेकर खेतों की जुताई और आने वाले सीजन की बुआई में व्यस्त रहते हैं.
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इन चीजों का है खास महत्व
आदिवासियों के लिए दिवाली के दिन से ज्यादा महत्व गोवर्धन पूजा का होती है. पूजा की तैयारियों के लिए ग्रामीण झाड़ू, बांस के बर्तन, गाय बैलों को बांधने के लिए नए रस्से के गिरमे, उनके साज-श्रृंगार की चीजें, उड़द की दाल खरीदते हैं.
दिवाली की रात देवों को जगाते हैं यादव समाज के लोग
दिवाली की रात को आदिवासियों के घरों पर वनस्पतियों की पत्तियों, मोर पंख और दूसरी चीजों से बने छाहुर की पूजा गांव के अहीर ग्राम देवता के चबूतरे पर जाकर करते हैं. इसके बाद घर-घर जाकर हर एक कमरे के अंदर मृदंग,थाली और शंख बजा कर देव को जगाने और बलाओं को भगाने की परंपरा का निर्वाह करते हैं.
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गौवंश पूजन का है महत्व
दिवाली के दूसरे दिन सभी गाय और बैलों को नदी-तालाब में ले जाकर नहलाया जाता है,उन्हें नए गिरमे से बांधा जाता है, और गेरू की मिट्टी से उनकी सींघों को सजाया जाता है. गांव के सभी मवेशियों को किसी मैदान जिसे गौठान कहा जाता है, वहां इकट्ठा किया जाता है और इनकी पूजा की जाती है. इस दिन ग्रामीण उपवास रखते हैं और पहले मवेशियों की पूजा फिर बाजार से लाई गई नईं झाड़ू और बांस के बर्तनों की पूजा की जाती हैं. ये पूजा कृषि से संबंधित पूजा है. इसके बाद कद्दू से बनी खिचड़ी और उड़द के दाल से बने बड़े, इन मवेशियों को खिलाने के बाद आदिवासी अपना उपवास तोड़ते हैं. गौठान से वापस आने पर गौवंश के चरण धोकर दीए रखे जाते हैं.
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सादगी से होता है सारा आयोजन
शहर की चकाचौंध से काफी इतर होता है आदिवासियों का दिवाली आयोजन, यहां लोग दिखावे की लाइटों के लिए लाखों खर्च नहीं करते, इनकी दिवाली 10 रुपए की पौनी या कपास की रुई, 20 रुपए के दीए, 20 रुपए की झाड़ू और 100 रुपए के बांस से बने बर्तन के अलावा उड़द की दाल से मन जाती है. धन तेरस और दिवाली के मौके पर शहरों में जहां लोग लाखों खर्च कर देते हैं, वहीं यहां आदिवासी समाज में एक-दूसरे को बुला कर भोजन कराया जाता है और हर घर का प्रत्येक सदस्य कहीं न कहीं खाने जरूर जाते हैं. घरों पर दर्जनों मेहमान खाना खाने आते हैं, जो इनकी सामाजिक एकता की विशेषता है.