मंडला। एक समय था जब मण्डला जिले में कोदो-कुटकी की बंपर पैदावार होती थी. आदिवासी समाज का ये मुख्य आहार हुआ करता था. लेकिन आधुनिकता की होड़ में अब ये विलुप्ती की कगार पर है. शासन-प्रशासन के साथ ही लोगों ने इसकी कदर नहीं की और व्यापारियों ने इसे कौड़ियों के दाम खरीदा. नतीजा ये हुआ कि अब लोगों ने इसकी खेती करना ही बंद कर दिया है. किसानों का कहना है कि घाटे का सौदा आखिर कब तक करते रहें.
आईयूसीएन के रेड लिस्ट में शुमार
शुगर फ्री चावल के तौर पर पहचाने जाने वाले कोदो को अब लोग भूलने लगे हैं. लिहाज ये अनाज आईयूसीएन के रेड लिस्ट में शुमार हो गया है. कोदो मुख्य रूप से उष्णकटिबंधीय अफ्रीका में उगाया जाने वाला अनाज है. एक अनुमान के मुताबिक तीन हजार साल पहले इसे भारत लाया गया. दक्षिणी भारत में, इसे कोद्रा कहा जाता है और साल में एक बार उगाया जाता है. वहीं सदियों से इसे मंडला के आदिवासी क्षेत्रों में उगाया जाता रहा है. लेकिन अब धीरे-धीरे किसानों का इस फसल से मोह भंग हो रहा है. हालांकि कुछ सामाजिक संगठन किसानों को इसकी खेती के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं.
क्या कहते हैं जिम्मेदार
हालांकि शासन-प्रशासन का इस तरफ अब ध्यान गया है. कृषि विभाग के उपसंचालक एसएस मरावी का कहना है कोदो-कुटकी की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए लगातार काम किया जा रहा है. प्रदेश सरकार भी स्व-सहायता समूहों के जरिए कोदो-कुटकी से बने कई उत्पाद तैयार कर इनकी पहुंच मार्केट तक बनाने की कोशिश कर रही है. हालांकि अभी तक किए गए इंतजाम पर्याप्त साबित नहीं हुए हैं.
वहीं विधायक अशोक मर्शकोले का भी कहना है कि कोदो-कुटकी मंडला के आदिवासी समाज की पहचान रही है. लोगों में इसकी डिमांड भी है. लिहाजा समर्थन मूल्य जैसी व्यवस्थाएं मुहैया कराकर इस खेती को प्रोत्साहन देने की जरूरत है.
कोदो भारत का एक प्राचीन अन्न है. जिसे 'ऋषि अन्न' माना जाता था. इसके दाने में 8.3 फीसदी प्रोटीन, 1.4 फीसदी वसा और 65.9 फीसदी कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है. कोदो-कुटकी शुगर और किडनी से संबंधित रोगों के लिए बहुत फायदेमंद है. लेकिन इसकी पैदावार लगातार घट रही. उचित लाभ नहीं मिलने पर आदिवासी किसान इसकी खेती नहीं करना चाहते. इसलिए सरकार को इस तरफ ध्यान देना जरूरी है. जिससे इस गुणकारी अनाज के उत्पादन को बढ़ाया जा सके.