झाबुआ। अब पानी में फ्लोराइड की जांच झाबुआ में हो पाएगी, वह भी मुफ्त. यहीं नहीं, यदि किसी में फ्लोरोसीस के लक्षण हैं तो उसका भी पता आसानी से चल जाएगा. इसके लिए समाजसेवी एवं उद्योगपति बृजेंद्र शर्मा ने कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के तहत जिला प्रशासन को साढ़े तीन लाख रुपए का आयन मीटर प्रदान किया. राष्ट्रीय फ्लोरोसिस निवारण एवं नियंत्रण कार्यक्रम के तहत इस आयन मीटर को जिला फ्लोरोसिस लैब में स्थापित किया गया है.
अब आसानी से होगी फ्लोराइड की जांच: दरअसल झाबुआ जिले के अधिकांश गांवों में फ्लोराइड की समस्या है. हालांकि लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग द्वारा प्रभावित गांवों में शुद्ध पेयजल की आपूर्ति के नल जल योजना का संचालन किया जा रहा है. इसके बावजूद ग्रामीण फ्लोराइड प्रभावित हैंडपंप के पानी का उपयोग करने से परहेज नहीं करते. लिहाजा कई ग्रामीण फ्लोरोसिस की समस्या से जूझ रहे हैं. इसके बावजूद जांच के लिए अलग से कोई इंतजाम नहीं थे. जब इस समस्या की तरफ समाजसेवी बृजेंद्र शर्मा का ध्यान गया तो उन्होंने अपनी तरफ से आयन मीटर उपलब्ध कराने का निर्णय ले लिया. साढ़े 3 लाख का यह आयन मीटर उन्होंने प्रशासन को सौंपा है. इसके जरिए अब आसानी से पानी में फ्लोराइड की जांच हो पाएगी. वहीं यदि किसी में फ्लोरोसिस के लक्षण हैं तो इसी मशीन से यूरीन टेस्ट के जरिए उसका भी पता चल जाएगा.
कोरोना काल में दी थी एंबुलेंस: समाजसेवी बृजेंद्र शर्मा कोरोना काल में भी मदद के लिए आगे आए थे. उन्होंने उस वक्त 27 लाख रुपए की बेसिक लाइफ सपोर्ट सिस्टम वाली एंबुलेंस प्रदान की थी. इसमें वेंटीलेटर, दो ऑक्सीजन सिलेंडर, विल स्ट्रेचर सहित अन्य कई सारी सुविधाएं हैं. ये एंबुलेंस न केवल कोरोना काल में मरीजों की जान बचाने में उपयोगी साबित हुई, बल्कि आज भी इमरजेंसी में जिला अस्पताल में इसी एंबुलेंस का उपयोग किया जाता है.
फ्लोराइडयुक्त पदार्थों से निर्मित हैं झाबुआ की चट्टानें: फ्लोराइड पर गहन अध्ययन कर चुके प्रोफेसर एसएस सिकरवार के अनुसार, झाबुआ की भौगोलिक संरचना के अध्ययन से पता चला है कि यहां की चट्टानें फ्लोराइडयुक्त पदार्थों से निर्मित हैं, जो कि झाबुआ क्षेत्र में फ्लोरोसिस का सबसे बड़ा प्राकृतिक कारण है. इन चट्टानों से फ्लोराइड जलस्रोतों में घुल-मिल जाता है और जब इन जलस्रोतों का उपयोग पीने के पानी में होता है तो फ्लोराइड मानव शरीर में पहुंच जाता है. जब इस तरह के पानी का उपयोग 6 माह से अधिक समय तक पीने के लिये किया जाता है तो फ्लोरोसिस होने की सम्भावनाएं निरन्तर बढ़ती जाती हैं.
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2 तरह का होता है फ्लोरोसिस:
- जब पीने के पानी में 1.5 से 3 पीपीएम तक फ्लोराइड की मात्रा होती है तो इससे डेंटल फ्लोरोसिस होता है. इसकी प्रारम्भिक अवस्था में दांतों पर पीली रेखाएं दिखाई देती हैं, जो निरन्तर बढ़ने लगती हैं और धीरे-धीरे यह पीले धब्बों में परिवर्तित होने लगती हैं. बाद में यह धब्बे गहरे भूरे काले रंग के गड्ढों में परिवर्तित होने लगते हैं और अन्त में दांतों का टूटना शुरू हो जाता है.
- यदि पीने के पानी में 3 से 10 पीपीएम तक की मात्रायुक्त फ्लोराइड का सेवन कई वर्षों तक निरन्तर करते हैं तो स्केलेटल फ्लोरोसिस या अस्थि फ्लोरोसिस हो जाता है. इसके कारण अस्थियां बाधित होती हैं और शरीर के अंगों को साधारण तरीके से मोड़ नहीं सकते. सबसे अधिक प्रभावित होने वाले अंग हाथ, पैर व गर्दन वाले हिस्से होते हैं. कई बार तो यह इतना गम्भीर हो जाता है कि रोगी स्वयं चल फिर भी नहीं सकता, अस्थियों में भी अत्यधिक दर्द होता है.
जिले में सामान्य से अधिक है फ्लोराइड की मात्रा: फ्लोराइड पर शोध कर चुके शहीद चंद्रशेखर आजाद पीजी कॉलेज के प्रोफेसर एसएस सिकरवार के अनुसार, झाबुआ जिले में फ्लोराइड की मात्रा 1.24 पीपीएम से 7.38 पीपीएम तक पाई गई है जो सामान्य (1.5 पीपीएम) से बहुत ज्यादा है. जिला पंचायत सीईओ अमन वैष्णव के अनुसार, समाजसेवी बृजेंद्र शर्मा द्वारा जो आयन मीटर प्रदान किया गया है वह फ्लोराइड और फ्लोरोसिस दोनों की जांच में मददगार साबित होगा. प्रशासन इसके लिए उनका आभारी है.