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खूंखार डकैतों के सरेंडर की सच्ची कहानीः जानें गांधीवादी विचारकों ने 500 से अधिक डाकुओं का कैसे कराया समर्पण

मुरैना जिले की जौरा तहसील में गांधी सेवा आश्रम में डकैत सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है. इस सम्मेलन में समर्पण हुए डकैतों के साथ-साथ उनके परिवार और देश-विदेशी गांधीवादी विचारक शामिल होने वाले हैं. इस गांव में ही 14 अप्रैल 1972 को 500 से अधिक चंबल की खूंखार डाकू समर्पण के लिए तैयार हुए.

c50 Years of Bandit Surrender in Chambal
चंबल डकैत समर्पण की कहानी
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Published : Apr 13, 2022, 9:15 PM IST

ग्वालियर/मुरैना। देश के सबसे बड़े चम्बल में बागी समर्पण को 50 साल पूरे हो चुके हैं. 50 साल पूरे होने की उपलक्ष्य में मुरैना जिले की जौरा तहसील में गांधी सेवा आश्रम में डकैत सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है. इस सम्मेलन में समर्पण हुए डकैतों के साथ-साथ उनके परिवार और देश-विदेशी गांधीवादी विचारक शामिल होने वाले हैं. देश के सबसे बड़े सौभाग्य समर्पण को 50 साल पूरे होने पर आज ईटीवी भारत उस गांव के ग्राउंड जीरो पर पहुंचा, जहां 500 से अधिक चंबल के सबसे खूंखार डाकू समर्पण के लिए तैयार हुए. (50 Years of Bandit Surrender in Chambal)

चंबल डकैत समर्पण की कहानी

14 अप्रैल 1972 में हुआ था आत्मसमर्पणः मुरैना जिले की जौरा तहसील से 15 किलोमीटर दूर जंगलों में धौरेरा गांव बसा है. इस गांव में ही 14 अप्रैल 1972 को 500 से अधिक चंबल की खूंखार डाकू समर्पण के लिए तैयार हुए. इसी धौरेरा गांव में चंबल के सबसे खूंखार डकैत चार दिन तक रहे. उसके बाद जयप्रकाश नारायण, प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक डॉ. सुब्बाराव ने डकैतों की बीच समर्पण करने की बातचीत की. उसके बाद व समर्पण के लिए राजी हो गये. (morena dhaurera village surrender story)

गांव में पहुंची 20-20 डकैतों की टोलीः धौरेरा गांव के बुजुर्ग तुलसीराम पटेल ने ईटीवी भारत को बताया कि जब गांव में बागियों का समर्पण हुआ था, उस समय उनकी उम्र 12 से 14 साल की थी. 14 अप्रैल 1972 को किसी को नहीं पता कि गांव में चंबल के सबसे खूंखार बागी आने वाले हैं. इसी गांव से उनके समर्पण की कहानी शुरू होगी. शाम के वक्त गांव में 20-20 की टोली से डकैतों का आना शुरू हुआ. धीरे-धीरे दो-तीन दिनों में 500 से अधिक डकैतों की टोली गांव में पहुंच चुकी थी. गांव के दो पक्के मकानों में से एक को खूंखार माधो सिंह और दूसरे को डकैत मोहर सिंह के गिरोह ने अपना ठिकाना बना लिया. (dacoits in mp)

रोज डाकुओं से मुलाकात करते थे गांधीवादी विचारकः धौरेरा गांव के बुजुर्ग तुलसीराम पटेल ने बताया कि 3 दिन के अंदर गांव में डकैत की संख्या इतनी हो गई थी कि गांव में जगह कम पड़ने लगी. इस वजह से गांव वालों को भी परेशानी होने लगी, लेकिन गांव में डकैतों ने पूरी मदद की. किसी भी गांव के साथ कोई बुरा बर्ताव नहीं किया गया. जौरा तहसील से गांव में पानी के टैंकर आते थे. बड़े-बड़े टेंट लगकर यहां डाकुओं के लिए खाना बनता था. एक खूंखार डाकू से मुलाकात करने के लिए रोज गांधीवादी विचारक डॉक्टर सुब्बाराव और जयप्रकाश नारायण आते थे. (jp narayan and sn subbarao in morena)

672 डाकुओं ने किया समर्पणः डाकुओं और जेपी नारायण में लंबी बातचीत चलती थी. इस गांव में पुलिस पर पाबंदी लगा दी थी. डकैतों का साफ कहना था कि कोई भी पुलिस वाला वर्दी में नहीं दिखाई देना चाहिए. इन शर्तों पर ही यह सभी एकजुट हुए थे. चंबल के इन खूंखार डकैतों और गांधीवादी विचारक सुब्बा राव जयप्रकाश नारायण के बीच बातचीत के बाद तय हुआ कि सभी जौरा में स्थित गांधी प्रतिमा के सामने हथियार डालेंगे. उसके बाद 672 डकैतों ने गांधी प्रतिमा के सामने समर्पण किया. (500 bandit surrender)

डाकुओं ने क्यों चुना धरौरा गांवः श्याम लाल पटेल ने बताया कि डकैतों ने धौरेरा गांव का चयन किया, क्योंकि यह गांव जौरा तहसील से 15 किलोमीटर दूर पगारा बांध के बिल्कुल नीचे है. इस गांव से पूरा जंगल लगा हुआ है. इसके साथ ही उस समय इस गांव में आने के लिए रास्ता नहीं था. पगडंडी के सहारे गांव में प्रवेश होता था. डकैतों के समर्पण के बाद यह गांव पूरे देश भर में चर्चित हो गया. डकैत समर्पण के बाद सरकार के कई जनप्रतिनिधि और प्रशासन इस गांव में पहुंचा. उन्होंने इस गांव के लिए बिजली और सड़कों की व्यवस्था की. (50 years of bandit surrender mp)

तीन दिन तक गांव में रहे खुंखार डकैतः श्याम लाल पटेल ने बताया कि देश के सबसे बड़े डकैत समर्पण की कहानी को हम आज भी अपने बच्चों को सुनाते हैं. इस गांव के लिए यह सबसे अलग कहानी है. इसी गांव में पिछले चार दिनों तक चंबल की सबसे खूंखार डकैत माधो सिंह, मलखान सिंह, माखन सिंह, मोहर सिंह, नाथू सिंह सहित कई खूंखार डाकू यहां तीन दिन तक रहे. इसी धौरेरा गांव में सभी खूंखार डाकू ने चर्चा की और उसके बाद आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार हुए.

चंबल में दस्यु समर्पण के 50 साल : डकैतों की पीढ़ियां समाज में कैसे क्रांतिकारी बदलाव ला रही हैं, पढ़ें.. ETV BHARAT की SPECIAL REPORT

धौरेरा गांव के बुजुर्गों ने बताया कि गांव की यादें चिरस्थाई हैं. यह गांव चंबल के खूंखार डकैतों और सरकार के बीच की कड़ी बना था. इस गांव की मदद से ही खूंखार डकैत हिंसा को छोड़कर अहिंसा के पथ पर चलने के लिए तैयार हुए. यही वजह है कि डकैतों के समर्पण के बाद देश के सबसे प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक डॉ. सुब्बाराव ने इस गांव का नाम शांति नगर रख दिया था. इसके बाद से ही गांव को शांति नगर के नाम से पुकारा जाने लगा.

ग्वालियर/मुरैना। देश के सबसे बड़े चम्बल में बागी समर्पण को 50 साल पूरे हो चुके हैं. 50 साल पूरे होने की उपलक्ष्य में मुरैना जिले की जौरा तहसील में गांधी सेवा आश्रम में डकैत सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है. इस सम्मेलन में समर्पण हुए डकैतों के साथ-साथ उनके परिवार और देश-विदेशी गांधीवादी विचारक शामिल होने वाले हैं. देश के सबसे बड़े सौभाग्य समर्पण को 50 साल पूरे होने पर आज ईटीवी भारत उस गांव के ग्राउंड जीरो पर पहुंचा, जहां 500 से अधिक चंबल के सबसे खूंखार डाकू समर्पण के लिए तैयार हुए. (50 Years of Bandit Surrender in Chambal)

चंबल डकैत समर्पण की कहानी

14 अप्रैल 1972 में हुआ था आत्मसमर्पणः मुरैना जिले की जौरा तहसील से 15 किलोमीटर दूर जंगलों में धौरेरा गांव बसा है. इस गांव में ही 14 अप्रैल 1972 को 500 से अधिक चंबल की खूंखार डाकू समर्पण के लिए तैयार हुए. इसी धौरेरा गांव में चंबल के सबसे खूंखार डकैत चार दिन तक रहे. उसके बाद जयप्रकाश नारायण, प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक डॉ. सुब्बाराव ने डकैतों की बीच समर्पण करने की बातचीत की. उसके बाद व समर्पण के लिए राजी हो गये. (morena dhaurera village surrender story)

गांव में पहुंची 20-20 डकैतों की टोलीः धौरेरा गांव के बुजुर्ग तुलसीराम पटेल ने ईटीवी भारत को बताया कि जब गांव में बागियों का समर्पण हुआ था, उस समय उनकी उम्र 12 से 14 साल की थी. 14 अप्रैल 1972 को किसी को नहीं पता कि गांव में चंबल के सबसे खूंखार बागी आने वाले हैं. इसी गांव से उनके समर्पण की कहानी शुरू होगी. शाम के वक्त गांव में 20-20 की टोली से डकैतों का आना शुरू हुआ. धीरे-धीरे दो-तीन दिनों में 500 से अधिक डकैतों की टोली गांव में पहुंच चुकी थी. गांव के दो पक्के मकानों में से एक को खूंखार माधो सिंह और दूसरे को डकैत मोहर सिंह के गिरोह ने अपना ठिकाना बना लिया. (dacoits in mp)

रोज डाकुओं से मुलाकात करते थे गांधीवादी विचारकः धौरेरा गांव के बुजुर्ग तुलसीराम पटेल ने बताया कि 3 दिन के अंदर गांव में डकैत की संख्या इतनी हो गई थी कि गांव में जगह कम पड़ने लगी. इस वजह से गांव वालों को भी परेशानी होने लगी, लेकिन गांव में डकैतों ने पूरी मदद की. किसी भी गांव के साथ कोई बुरा बर्ताव नहीं किया गया. जौरा तहसील से गांव में पानी के टैंकर आते थे. बड़े-बड़े टेंट लगकर यहां डाकुओं के लिए खाना बनता था. एक खूंखार डाकू से मुलाकात करने के लिए रोज गांधीवादी विचारक डॉक्टर सुब्बाराव और जयप्रकाश नारायण आते थे. (jp narayan and sn subbarao in morena)

672 डाकुओं ने किया समर्पणः डाकुओं और जेपी नारायण में लंबी बातचीत चलती थी. इस गांव में पुलिस पर पाबंदी लगा दी थी. डकैतों का साफ कहना था कि कोई भी पुलिस वाला वर्दी में नहीं दिखाई देना चाहिए. इन शर्तों पर ही यह सभी एकजुट हुए थे. चंबल के इन खूंखार डकैतों और गांधीवादी विचारक सुब्बा राव जयप्रकाश नारायण के बीच बातचीत के बाद तय हुआ कि सभी जौरा में स्थित गांधी प्रतिमा के सामने हथियार डालेंगे. उसके बाद 672 डकैतों ने गांधी प्रतिमा के सामने समर्पण किया. (500 bandit surrender)

डाकुओं ने क्यों चुना धरौरा गांवः श्याम लाल पटेल ने बताया कि डकैतों ने धौरेरा गांव का चयन किया, क्योंकि यह गांव जौरा तहसील से 15 किलोमीटर दूर पगारा बांध के बिल्कुल नीचे है. इस गांव से पूरा जंगल लगा हुआ है. इसके साथ ही उस समय इस गांव में आने के लिए रास्ता नहीं था. पगडंडी के सहारे गांव में प्रवेश होता था. डकैतों के समर्पण के बाद यह गांव पूरे देश भर में चर्चित हो गया. डकैत समर्पण के बाद सरकार के कई जनप्रतिनिधि और प्रशासन इस गांव में पहुंचा. उन्होंने इस गांव के लिए बिजली और सड़कों की व्यवस्था की. (50 years of bandit surrender mp)

तीन दिन तक गांव में रहे खुंखार डकैतः श्याम लाल पटेल ने बताया कि देश के सबसे बड़े डकैत समर्पण की कहानी को हम आज भी अपने बच्चों को सुनाते हैं. इस गांव के लिए यह सबसे अलग कहानी है. इसी गांव में पिछले चार दिनों तक चंबल की सबसे खूंखार डकैत माधो सिंह, मलखान सिंह, माखन सिंह, मोहर सिंह, नाथू सिंह सहित कई खूंखार डाकू यहां तीन दिन तक रहे. इसी धौरेरा गांव में सभी खूंखार डाकू ने चर्चा की और उसके बाद आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार हुए.

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धौरेरा गांव के बुजुर्गों ने बताया कि गांव की यादें चिरस्थाई हैं. यह गांव चंबल के खूंखार डकैतों और सरकार के बीच की कड़ी बना था. इस गांव की मदद से ही खूंखार डकैत हिंसा को छोड़कर अहिंसा के पथ पर चलने के लिए तैयार हुए. यही वजह है कि डकैतों के समर्पण के बाद देश के सबसे प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक डॉ. सुब्बाराव ने इस गांव का नाम शांति नगर रख दिया था. इसके बाद से ही गांव को शांति नगर के नाम से पुकारा जाने लगा.

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