मुरैना। कैलारस तहसील के रीजोनी गांव में जन्मे बहादुर सिंह 8 साल की उम्र में ही अनाथ हो गए, इसके बावजूद कड़ी मेहनत के जरिए वो 18 साल की ही उम्र में फौज में भर्ती हो गए. फौज में जाने के दो साल बाद जब वो पहली बार घर लौटे तो उनके पास अपना कहने के लिए कुछ भी नहीं था, सबकुछ उनके चचेरे भाइयों ने हड़प लिया था और उनकी छोटी बहन को भी किसी के हाथ बेच दिया था. सात चचेरे भाइयों में पुत्तू नाम का भाई उन्हें परेशान करने लगा, गांव में घूम-घूम कर बेइज्जत करता. कई बार मारने की भी प्लानिंग की, लेकिन सफल नहीं हो पाये. उसके बाद बहादुर सिंह ने पंचायत बुलाई और पंचायत से जमीन वापस दिलाने का आग्रह किया. पंचायत का कोई फायदा तो मिला नहीं, उल्टे चचेरे भाइयों ने बहादुर सिंह को बुरी तरह मारा-पीटा. तब कुछ ग्रामीणों ने उन्हें सलाह दी कि तुम्हे जिंदा रहना है तो गांव से निकल जाओ या फिर बीहड़ में कूद जाओ.
बीहड़ का खूंखार बागी मोहर सिंह गुर्जर! 600 अपहरण-400 हत्या के आरोपी को क्यों उठाना पड़ा था हथियार
डकैत माधो सिंह की गैंग में शामिल हुआ फौजी बहादुर सिंह
यही वो वक्त था जब एक फौजी को अपने ही भाइयों से बदला लेने के लिए बागी (ETV Bharat Special Dacoit Series) बनना पड़ा. तब बहादुर सिंह की उम्र 21 साल थी और सेना में करीब 3 साल तक नौकरी भी कर चुके थे. बहादुर सिंह की हर कोशिश बेकार गई और अंतत: बीहड़ का रुख करना ही पड़ा. कड़ी मशक्कत के बाद आखिरकार चंबल के सबसे खूंखार डकैत माधो सिंह ने अपनी गैंग में शामिल करने का फैसला कर लिया. गैंग में शामिल होने के बाद जल्द ही बहादुर सिंह डकैत माधो सिंह के सबसे खास हो गया. इसके पीछे एक वजह ये भी थी कि पूरी गैंग में सिर्फ बहादुर सिंह को ही सेमी ऑटोमैटिक राइफल चलाने का तजुर्बा था. मुठभेड़ के वक्त वह हमेशा सबसे आगे रहकर मोर्चा संभालता था. फिर जल्द ही लोगों की जुबान पर खूंखार डकैत माधो सिंह के साथ डकैत बहादुर सिंह का नाम आने लगा.
डकैत बहादुर सिंह ने दिनदहाड़े चचेरे भाई को गोलियों से भूना
भले ही बहादुर सिंह खूंखार डकैत बन गए थे, लेकिन उनका इंतकाम अभी अधूरा था. लंबे समय बाद एक दिन वह दोपहर के वक्त अपने गांव पहुंचे और आंगन में सो रहे चचेरे भाई पत्तू को उठाकर खेत में ले गए और उसे गोलियों से भून दिया. डकैत बहादुर सिंह के इंतकाम के साथ ही वह अपने इलाके में चर्चित हो गया. इसके साथ ही पुलिस के निशाने पर भी बहादुर सिंह आ गया और जल्द ही बहादुर सिंह गैंग में डकैती, अपहरण और लूटपाट की प्लानिंग का मास्टरमाइंड बन गया. लूटपाट के तौर-तरीके से लेकर आने-जाने का रास्ता तक वही तय करने लगा. एक दशक तक बीहड़ में आतंक मचाने वाले बहादुर को पुलिस कभी पकड़ नहीं पाई.
अपराध से मन भर गया तो बीहड़ से निकलने का मन बनाया
सन 1962 से 1972 तक खूंखार डकैत माधो सिंह गैंग की अगुवाई करने वाले बहादुर सिंह (Fauji Bahadur Singh made dangerous rebel of Chambal) का मन जल्द ही लूट, हत्या, अपहरण, डकैती से भर गया और बीहड़ से निकलने का मन हुआ. जब बहादुर सिंह माधो सिंह गैंग में शामिल हुए थे, तब गैंग में सिर्फ 11 सदस्य थे. जल्द ही माधो सिंह गैंग में 150 से ज्यादा सदस्य हो गए. जब बहादुर का मन बीहड़ छोड़ने का हुआ तो उन्होंने डाकू माधो सिंह से बात की तो माधो सिंह ने भी बीहड़ से निकलने की इच्छा जताई. पर अभी उनके पास कोई ऐसा रास्ता नहीं था कि वो बीहड़ से निकल सकें और जल्दबाजी उनकी जान ले सकती थी. 70 के दशक में चंबल में खूंखार डाकुओं की पुलिस को तलाश रहती थी, तब लगभग 50 से अधिक सक्रिय गैंग थे, जिनके आतंक से बीहड़ भी कांप रहा था.
बापू के दोस्त एसएन सुब्बाराव ने चंबल में रोपा शांति का बीज
60-70 के दशक में ग्वालियर-चंबल अंचल खूंखार डकैतों की बंदूकों से गूंज रहा था, हर तरफ लूट, हत्या, डकैती और अपहरण की घटनाएं हो रही थी. उस समय महात्मा गांधी के साथी रहे डॉक्टर एसएन सुब्बाराव उर्फ भाईजी ने पहली बार 1962 में जौरा में चंबल के हालातों का बारीकी से विश्लेषण किया, फिर उसके समाधान के लिए चंबल को ही अपनी कर्मभूमि बना लिए. एसएन सुब्बाराव डकैतों से विचार-विमर्श शुरू किये और उन्हें समाज की मुख्यधारा में वापस लौटने के लिए प्रेरित करने लगे. उनसे प्रभावित होकर माधो सिंह गैंग भी सशर्त समर्पण के लिए तैयार हो गई. माधो सिंह और बहादुर सिंह ने अपनी गैंग के साथ 1972 में जयप्रकाश नारायण की मौजूदगी में जौरा स्थित गांधी आश्रम में महात्मा गांधी की तस्वीर के सामने हथियार डाल दिया और यहीं से नौजवान डकैत बहादुर सिंह गांधी के दिखाए रास्ते पर निकल पड़ा.
जेल से छूटने के बाद डकैत बहादुर सिंह बन गये गांधी भक्त
जेल से रिहा होने के बाद सभी डकैत अपने-अपने घर चले गए, लेकिन डकैत बहादुर सिंह जौरा स्थित गांधी सेवा आश्रम में लौट गए. उसके बाद बहादुर सिंह गांधी के भक्त बन गये. बहादुर सिंह आश्रम में चरखे पर कपास से सूत कातते हैं, कभी गांधी भजन सुनाते हैं. रोजाना सुबह शाम गांधी प्रतिमा के सामने बैठकर ध्यान लगाते हैं. साथ ही आश्रम की साफ सफाई का विशेष ध्यान रखते हैं. कर्मचारी बताते हैं कि बहादुर सिंह चंबल के बीहड़ों में जितना खूंखार थे, वह आज उतने ही शांत हैं. वे यहां पर सारा काम करते हैं किसानों को वर्मी कंपोस्ट के बारे में बताते हैं, कई किसानों को प्रशिक्षित भी किये हैं. बहादुर सिंह ने बताया कि उनकी उम्र लगभग 70 साल है और वह इस आश्रम को छोड़कर कहीं भी नहीं जाना चाहते हैं. उनका कहना है कि इस आश्रम के जरिए ही वह शांति की राह पर लौट पाये थे.