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कांग्रेस का अभेद गढ़ रही है छिंदवाड़ा सीट, नकुलनाथ बचा पाएंगे पिता की विरासत?

छिंदवाड़ा लोकसभा सीट कांग्रेस का वो अभेद किला है जिस पर बीजेपी कभी फतह हासिल नहीं कर पाया. आजादी के बाद से हमेशा से ही इस सीट पर कांग्रेस का दवदबा रहा है. 1997 के उपचुनाव में इस सीट पर कमल खिला जरूर था लेकिन बीजेपी इस जीत को कायम नहीं रख सकी.

छिंदवाड़ा लोकसभा सीट।
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Published : Mar 29, 2019, 12:31 PM IST

छिंदवाड़ा। मध्यप्रदेश की छिंदवाड़ा लोकसभा सीट को कांग्रेस का अभेद किला माना जाता है, जिसे भेदने की बीजेपी भरसक कोशिश करती है. आज़ादी के बाद से अब तक केवल एक ही बार बीजेपी यहां कमल खिलाने में कामयाब हो सकी है, वो भी उपचुनाव के दौरान. इस सीट पर हमेशा से कांग्रेस का कब्जा रहा है जो कमलनाथ के बाद से और मजबूत हो गया. इसीलिए कहा जाता है कि छिंदवाड़ा में कमलनाथ, कमल के नाथ नहीं दुश्मन हैं.

देश को आजादी मिलने के बाद से अब तक एक मौके को छोड़कर छिंदवाड़ा सीट पर कांग्रेस काबिज रही है. 1952 से लेकर 1996 तक बीजेपी सहित कई दलों ने इस सीट को हथियाने की कोशिश की, लेकिन कोई भी प्रत्याशी यहां से कांग्रेस को हिला नहीं सका. हांलाकि 1997 में हुए उपचुनाव में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा ने कमलनाथ को हार का स्वाद चखाया था.

छिंदवाड़ा लोकसभा सीट।

छिंदवाड़ा सीट पर कमल तो खिला लेकिन एक साल के अंदर ही कमल का राज खत्म हो गया, तब से अब तक इस सीट पर कमलनाथ का राज है.

छिंदवाड़ा लोकसभा सीट चौरई, अमरवाड़ा, परासिया, जुन्नारदेव, सौंसर और पांढुर्ना समेत कुल 7 विधानसभा सीटों से मिलकर बनी है, जिसमें से एक सीट एससी-एसटी वर्ग के लिए आरक्षित है. आदिवासी बाहुल्य होने की वजह से यहां आदिवासी मतदाताओं की संख्या ज्यादा है.

राजनीतिक समीकरण

सन् 1952 में छिंदवाड़ा में हुए पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के रायचंद भाई शाह ने जीत हासिल की थी. उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी पन्ना लाल भार्गव को 34,255 वोटों से हराया था. 1957 और 1962 के चुनावों में भी कांग्रेस ने छिंदवाड़ा सीट पर जीत दर्ज की. 1967, 1971 और 1977 के चुनावों में जीत हासिल कर कांग्रेस के गार्गी शंकर मिश्र इस सीट से लगातार तीन बार सांसद बने. 1980 के चुनाव में कमलनाथ पहली बार चुनावी रण में उतरे. देश में तब इंदिरा लहर थी, इंदिरा गांधी ने छिंदवाड़ा की जनता से कमलनाथ को उनके तीसरे बेटे के रूप में परिचय कराया.

इंदिरा के इस तीसरे बेटे ने छिंदवाड़ा में जनता पार्टी के प्रतुलचंद द्विवेदी को 70,131 वोटों से हराकर इस सीट पर कांग्रेस का दबदबा कायम रखा. कमलनाथ की यह जीत 1984, 1989, 1991 के आम चुनाव में भी कायम रही. 1996 में कांग्रेस ने यहां से कमलनाथ की पत्नी अल्कानाथ को चुनावी रण में उतारा. अल्कानाथ ने भाजपा के चौधरी चंद्रभान सिंह को शिकस्त दी. लेकिन, उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और 1997 में हुए उपचुनाव में कमलनाथ सुंदरलाल पटवा से सियासी बाजी हार गए. सुंदरलाल पटवा ने कमलनाथ को 37680 वोटों से मात दी.

लेकिन, 1999 में ही कमलनाथ ने वापसी कर और 2004, 2009, 2014 के चुनावों में उनका दम देखने को मिला. यहां तक कि 2014 में उठी मोदी लहर भी कमलनाथ के राज को खत्म नहीं कर पाई. 2014 में कमलनाथ ने भाजपा के चौधरी चंद्रभान सिंह को शिकस्त दी थी. सूबे के मुखिया बनने के बाद कमलनाथ ने छिंदवाड़ा सीट की विरासत अपने बेटे नकुलनाथ को सौंपी है. इस सीट पर अपना दबदबा बनाए रखने के लिए कमलनाथ जिले के आदिवासी इलाकों में सम्मेलन और सभाएं कर रहे हैं. वहीं दूसरी ओर बीजेपी भी इस सीट पर किंगमेकर माने जाने वाले आदिवासी वोट बैंक को हथियाने की जुगत में लगी हुई है. अब इस बात का पता तो लोकसभा चुनाव के रिजल्ट के बाद ही चलेगा कि छिंदवाड़ा में कांग्रेस की विरासत कायम रहती है या फिर कांग्रेस के इस किले को भेदने में बीजेपी कामयाब होती है.

छिंदवाड़ा। मध्यप्रदेश की छिंदवाड़ा लोकसभा सीट को कांग्रेस का अभेद किला माना जाता है, जिसे भेदने की बीजेपी भरसक कोशिश करती है. आज़ादी के बाद से अब तक केवल एक ही बार बीजेपी यहां कमल खिलाने में कामयाब हो सकी है, वो भी उपचुनाव के दौरान. इस सीट पर हमेशा से कांग्रेस का कब्जा रहा है जो कमलनाथ के बाद से और मजबूत हो गया. इसीलिए कहा जाता है कि छिंदवाड़ा में कमलनाथ, कमल के नाथ नहीं दुश्मन हैं.

देश को आजादी मिलने के बाद से अब तक एक मौके को छोड़कर छिंदवाड़ा सीट पर कांग्रेस काबिज रही है. 1952 से लेकर 1996 तक बीजेपी सहित कई दलों ने इस सीट को हथियाने की कोशिश की, लेकिन कोई भी प्रत्याशी यहां से कांग्रेस को हिला नहीं सका. हांलाकि 1997 में हुए उपचुनाव में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा ने कमलनाथ को हार का स्वाद चखाया था.

छिंदवाड़ा लोकसभा सीट।

छिंदवाड़ा सीट पर कमल तो खिला लेकिन एक साल के अंदर ही कमल का राज खत्म हो गया, तब से अब तक इस सीट पर कमलनाथ का राज है.

छिंदवाड़ा लोकसभा सीट चौरई, अमरवाड़ा, परासिया, जुन्नारदेव, सौंसर और पांढुर्ना समेत कुल 7 विधानसभा सीटों से मिलकर बनी है, जिसमें से एक सीट एससी-एसटी वर्ग के लिए आरक्षित है. आदिवासी बाहुल्य होने की वजह से यहां आदिवासी मतदाताओं की संख्या ज्यादा है.

राजनीतिक समीकरण

सन् 1952 में छिंदवाड़ा में हुए पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के रायचंद भाई शाह ने जीत हासिल की थी. उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी पन्ना लाल भार्गव को 34,255 वोटों से हराया था. 1957 और 1962 के चुनावों में भी कांग्रेस ने छिंदवाड़ा सीट पर जीत दर्ज की. 1967, 1971 और 1977 के चुनावों में जीत हासिल कर कांग्रेस के गार्गी शंकर मिश्र इस सीट से लगातार तीन बार सांसद बने. 1980 के चुनाव में कमलनाथ पहली बार चुनावी रण में उतरे. देश में तब इंदिरा लहर थी, इंदिरा गांधी ने छिंदवाड़ा की जनता से कमलनाथ को उनके तीसरे बेटे के रूप में परिचय कराया.

इंदिरा के इस तीसरे बेटे ने छिंदवाड़ा में जनता पार्टी के प्रतुलचंद द्विवेदी को 70,131 वोटों से हराकर इस सीट पर कांग्रेस का दबदबा कायम रखा. कमलनाथ की यह जीत 1984, 1989, 1991 के आम चुनाव में भी कायम रही. 1996 में कांग्रेस ने यहां से कमलनाथ की पत्नी अल्कानाथ को चुनावी रण में उतारा. अल्कानाथ ने भाजपा के चौधरी चंद्रभान सिंह को शिकस्त दी. लेकिन, उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और 1997 में हुए उपचुनाव में कमलनाथ सुंदरलाल पटवा से सियासी बाजी हार गए. सुंदरलाल पटवा ने कमलनाथ को 37680 वोटों से मात दी.

लेकिन, 1999 में ही कमलनाथ ने वापसी कर और 2004, 2009, 2014 के चुनावों में उनका दम देखने को मिला. यहां तक कि 2014 में उठी मोदी लहर भी कमलनाथ के राज को खत्म नहीं कर पाई. 2014 में कमलनाथ ने भाजपा के चौधरी चंद्रभान सिंह को शिकस्त दी थी. सूबे के मुखिया बनने के बाद कमलनाथ ने छिंदवाड़ा सीट की विरासत अपने बेटे नकुलनाथ को सौंपी है. इस सीट पर अपना दबदबा बनाए रखने के लिए कमलनाथ जिले के आदिवासी इलाकों में सम्मेलन और सभाएं कर रहे हैं. वहीं दूसरी ओर बीजेपी भी इस सीट पर किंगमेकर माने जाने वाले आदिवासी वोट बैंक को हथियाने की जुगत में लगी हुई है. अब इस बात का पता तो लोकसभा चुनाव के रिजल्ट के बाद ही चलेगा कि छिंदवाड़ा में कांग्रेस की विरासत कायम रहती है या फिर कांग्रेस के इस किले को भेदने में बीजेपी कामयाब होती है.

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