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MP में हावी रही है टू पार्टी पॉलिटिक्स, प्रदेश में अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है 'थर्ड फ्रंट'

एमपी में थर्ड फ्रंट को कभी भी जनता का भरोसा हासिल नहीं हुआ. बहुजन समाज पार्टी ने कभी अपने शुरूआती दौर में थोड़ा दम दिखाया था, लेकिन बाद में वह भी प्रदेश की जनता का भरोसा जीतने में नाकामयाब ही रही.

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MP की पॉलिटिक्स में हावी रही है टू पार्टी पॉलिटिक्स
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Published : Oct 9, 2021, 11:03 PM IST

भोपाल। मध्यप्रदेश में टू पार्टी पॉलिटिक्स का ही बोलबाला रहा है. यहां पर कभी भी थर्ड फ्रंट को जनता का भरोसा हासिल नहीं हुआ. बहुजन समाज पार्टी ने कभी अपने शुरूआती दौर में थोड़ा दम दिखाया था, लेकिन बाद में वह भी प्रदेश की जनता का भरोसा जीतने में नाकामयाब ही रही. समाजवादी पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का भी कमोबेश यही हाल रहा है. स्थानीय दलों और पार्टियों के नेता मौका मिलने पर बीजेपी और कांग्रेस का दामन थाम लेते हैं. इसे देखकर कहा जा सकता है कि मप्र में थर्ड फ्रंट जैसी जोड़-तोड़ की राजनीति अपने अस्तित्व के संकट से जूक्ष रही है या लगभग खत्म हो चली है.

थर्ड फ्रंट का कोई जनाधार नहीं

राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार अजय बोकिल का कहना है कि मप्र में तीसरी शक्ति का जनाधार नहीं है. 1967 और 2018 में मिले खंडित जनादेश के चलते सत्ता स्थापित करने के लिए थर्ड फ्रंट का सहयोग तो लिया गया, लेकिन अब हालात बदल गए हैं. बोकिल मानते हैं कि तीसरी शक्ति के नाम जो लोग चुनकर आते हैं वो भाजपा या कांग्रेस से गए हुए लोग ही हैं जिनकी कोई वैचारिक निष्ठा नहीं है. ऐसे नेता जिनको टिकट नहीं मिलता है वे किसी दूसरी पार्टी से टिकट लेते हैं, कभी-कभार चुनाव जीत भी जाते हैं. इसलिए सत्ता को बनाने या बिगाड़ने में इनका कोई खास प्रभाव नहीं रहा है. बोकिल के अनुसार केवल 2018 के विधानसभा चुनाव में खंडित जनादेश में कांग्रेस की सरकार बसपा,सपा और निर्दलियों के समर्थन से बनी जो कि बाद में गिर गई. बोकिल कहते हैं कि हालांकि ये लोग कुछ इलाकों में वोट काटने की स्थिति में रहते हैं. आदिवासियों के बीच भी ये पार्टियां पैठ बनाने में नाकाम रही हैं. हालांकि जयस नाम का संगठन अब बसपा,सपा,गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के बाद आदिवासियों को जोड़ने की कोशिश कर रहा है.



गेम बिगाडने के काम में है थर्ड फ्रंट
एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक सजी थॉमस मानते हैं कि मप्र की राजनीति में थर्ड फ्रंट का कोई औचित्य नहीं है. चुनाव के समय थर्ड फ्रंट के नाम पर कई फ्रंट के नाम पर इकट्ठा हो जाती हैं , लेकिन इनका मकसद गेम चेंजर नहीं बल्कि गेम बिगाड़ने का होता है. थॉमस का मानना है कि थर्ड फ्रंट के नाम इक्ट्ठा हुए लोग हर बार बड़ी पार्टियों से कुछ हासिल करने के लिए मैदान में होते हैं, जनहित को लेकर इनके पास कोई विजन नहीं होता है. थॉमस भी मानते हैं कि मप्र में थर्ड फ्रंट नाम की कोई पॉलिटिकल ताकत मुख्य धारा में नहीं है.

चुनाव नतीजों पर भी बेअसर

मप्र में तीसरा मोर्चा या छोटे दल चुनाव परिणाम पर कोई खास असर नहीं डाल पाते हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा,सपा के साथ सपाक्स, जय युवा आदिवासी संगठन (जयस) और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने भी बीजेपी औऱ कांग्रेस दोनों के लिए थोड़ी दिक्कतें जरूर पैदा कीं. उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे क्षेत्रों में बसपा और सपा का अच्छा खासा असर है वहीं गोंड़वाना गणतंत्र पार्टी का महाकौशल रीजन में असर है. गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने 2003 के चुनाव में तीन सीटों पर चुनाव भी जीता था.


लगातार गिरती गई बसपा की सियासी साख

1991 में बसपा के भीम सिंह मप्र के रीवा से कांग्रेंस और बीजेपी के उम्मीदवारों को हराकर लोकसभा पहुंचे थे. वहीं 1996 में रीवा से ही बुद्दसेन पटेल और सतना से सुखलाल कुशवाहा मप्र की दो सीटों से लोकसभा पहुंचे थे. 2018 के विधानसभा चुनाव में 230 सीटों पर बसपा चुनाव मैदान में थी. पिछले 25 सालों से मप्र विधानसभा में प्रतिनिधित्व कर रही है बावजूद 1993 के चुनाव में बसपा के 11 विधायक चुनकर आए थे ,जबकि 2013 के विधानसभा चुनाव में यह संख्या 4 ही रह गई और 2018 में पार्टी दो सीटों पर ही सिमट गई. बसपा से रामबाई और संजीव कुशवाहा ही 2 विधायक हैं. हालांकि राज्य की 15 फीसदी अनुसूचित जातियों में बसपा का आज भी खासा प्रभाव दिखाई देता है, लेकिन अब यह वोट में कंवर्ट नहीं होता है.


गोंडवाना गणतंत्र पार्टी की स्थिति
गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने 2003 में 80 सीटों पर चुनाव लड़ा था और जीतीं 3 . 2008 में पार्टी दो टुकड़ों में बंट गई। इस दौरान गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने 86 सीट पर और गोंडवाना मुक्ति सेना में 92 सीट पर चुनाव लड़ा था. 2013 के चुनाव में भारतीय गोंडवाना पार्टी 31,गोंडवाना गणतंत्र पार्टी 64 और गोंड़वाना मुक्ति सेना 6 सीटों पर मैदान में उतरी थी और वहीं 2018 में जीजीपी ने 76 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन पहले जैसी सफलता भी हासिल नहीं कर सकीं.

मप्र में ये है सपा की स्थिति
समाजवादी पार्टी मप्र में 1993 में पहली बार 1 सीट जीती थी. 1998 में यह आंकड़ा बढ़कर 4 हो गया जबकि 2003 में सपा 7 सीटें जीतने में कामयाब रही. 2013 में पार्टी ने प्रदेश में 164 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन एक भी सीट नहीं जीत पाई. 2018 में 50 सीटों पर चुनाव लड़ कर 1 सीट राजेश शुक्ला ने जीत दर्ज की थी. हालांकि कुछ समय तक बुंदेलखंड, विंध्य और महाकौशल में सपा का असर जरूर रहा है.

आदिवासी समाज में जयस की पैठ
जय आदिवासी युवा शक्ति(जयस) ने पहली बार 2018 के विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमाई, जिसमें जयस के अध्यक्ष डॉ. हीरालाल अलावा ने एक सीट जीतकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी. 2018 के चुनाव में जयस ने मालवा-निमाड़ की 28 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे. प्रदेश की राजनीति में लंबे समय से बीजेपी और कांग्रेस का ही कब्जा रहा है. तीसरे फ्रंट के नाम पर इनसे ही अलग हुए कुछ नेताओं ने कुछ समय से लिए अपनी उपस्थिति भले ही दर्ज कराई हो, लेकिन प्रदेश की राजनीति मुख्य रूप से टू पार्टी पॉलिटिक्स के इर्दगिर्द ही घूमती रही है जिसमें थर्ड फ्रंट जैसी किसी ताकत की उपस्थिति बहुत कम रह गई है.

भोपाल। मध्यप्रदेश में टू पार्टी पॉलिटिक्स का ही बोलबाला रहा है. यहां पर कभी भी थर्ड फ्रंट को जनता का भरोसा हासिल नहीं हुआ. बहुजन समाज पार्टी ने कभी अपने शुरूआती दौर में थोड़ा दम दिखाया था, लेकिन बाद में वह भी प्रदेश की जनता का भरोसा जीतने में नाकामयाब ही रही. समाजवादी पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का भी कमोबेश यही हाल रहा है. स्थानीय दलों और पार्टियों के नेता मौका मिलने पर बीजेपी और कांग्रेस का दामन थाम लेते हैं. इसे देखकर कहा जा सकता है कि मप्र में थर्ड फ्रंट जैसी जोड़-तोड़ की राजनीति अपने अस्तित्व के संकट से जूक्ष रही है या लगभग खत्म हो चली है.

थर्ड फ्रंट का कोई जनाधार नहीं

राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार अजय बोकिल का कहना है कि मप्र में तीसरी शक्ति का जनाधार नहीं है. 1967 और 2018 में मिले खंडित जनादेश के चलते सत्ता स्थापित करने के लिए थर्ड फ्रंट का सहयोग तो लिया गया, लेकिन अब हालात बदल गए हैं. बोकिल मानते हैं कि तीसरी शक्ति के नाम जो लोग चुनकर आते हैं वो भाजपा या कांग्रेस से गए हुए लोग ही हैं जिनकी कोई वैचारिक निष्ठा नहीं है. ऐसे नेता जिनको टिकट नहीं मिलता है वे किसी दूसरी पार्टी से टिकट लेते हैं, कभी-कभार चुनाव जीत भी जाते हैं. इसलिए सत्ता को बनाने या बिगाड़ने में इनका कोई खास प्रभाव नहीं रहा है. बोकिल के अनुसार केवल 2018 के विधानसभा चुनाव में खंडित जनादेश में कांग्रेस की सरकार बसपा,सपा और निर्दलियों के समर्थन से बनी जो कि बाद में गिर गई. बोकिल कहते हैं कि हालांकि ये लोग कुछ इलाकों में वोट काटने की स्थिति में रहते हैं. आदिवासियों के बीच भी ये पार्टियां पैठ बनाने में नाकाम रही हैं. हालांकि जयस नाम का संगठन अब बसपा,सपा,गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के बाद आदिवासियों को जोड़ने की कोशिश कर रहा है.



गेम बिगाडने के काम में है थर्ड फ्रंट
एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक सजी थॉमस मानते हैं कि मप्र की राजनीति में थर्ड फ्रंट का कोई औचित्य नहीं है. चुनाव के समय थर्ड फ्रंट के नाम पर कई फ्रंट के नाम पर इकट्ठा हो जाती हैं , लेकिन इनका मकसद गेम चेंजर नहीं बल्कि गेम बिगाड़ने का होता है. थॉमस का मानना है कि थर्ड फ्रंट के नाम इक्ट्ठा हुए लोग हर बार बड़ी पार्टियों से कुछ हासिल करने के लिए मैदान में होते हैं, जनहित को लेकर इनके पास कोई विजन नहीं होता है. थॉमस भी मानते हैं कि मप्र में थर्ड फ्रंट नाम की कोई पॉलिटिकल ताकत मुख्य धारा में नहीं है.

चुनाव नतीजों पर भी बेअसर

मप्र में तीसरा मोर्चा या छोटे दल चुनाव परिणाम पर कोई खास असर नहीं डाल पाते हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा,सपा के साथ सपाक्स, जय युवा आदिवासी संगठन (जयस) और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने भी बीजेपी औऱ कांग्रेस दोनों के लिए थोड़ी दिक्कतें जरूर पैदा कीं. उत्तरप्रदेश की सीमा से लगे क्षेत्रों में बसपा और सपा का अच्छा खासा असर है वहीं गोंड़वाना गणतंत्र पार्टी का महाकौशल रीजन में असर है. गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने 2003 के चुनाव में तीन सीटों पर चुनाव भी जीता था.


लगातार गिरती गई बसपा की सियासी साख

1991 में बसपा के भीम सिंह मप्र के रीवा से कांग्रेंस और बीजेपी के उम्मीदवारों को हराकर लोकसभा पहुंचे थे. वहीं 1996 में रीवा से ही बुद्दसेन पटेल और सतना से सुखलाल कुशवाहा मप्र की दो सीटों से लोकसभा पहुंचे थे. 2018 के विधानसभा चुनाव में 230 सीटों पर बसपा चुनाव मैदान में थी. पिछले 25 सालों से मप्र विधानसभा में प्रतिनिधित्व कर रही है बावजूद 1993 के चुनाव में बसपा के 11 विधायक चुनकर आए थे ,जबकि 2013 के विधानसभा चुनाव में यह संख्या 4 ही रह गई और 2018 में पार्टी दो सीटों पर ही सिमट गई. बसपा से रामबाई और संजीव कुशवाहा ही 2 विधायक हैं. हालांकि राज्य की 15 फीसदी अनुसूचित जातियों में बसपा का आज भी खासा प्रभाव दिखाई देता है, लेकिन अब यह वोट में कंवर्ट नहीं होता है.


गोंडवाना गणतंत्र पार्टी की स्थिति
गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने 2003 में 80 सीटों पर चुनाव लड़ा था और जीतीं 3 . 2008 में पार्टी दो टुकड़ों में बंट गई। इस दौरान गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने 86 सीट पर और गोंडवाना मुक्ति सेना में 92 सीट पर चुनाव लड़ा था. 2013 के चुनाव में भारतीय गोंडवाना पार्टी 31,गोंडवाना गणतंत्र पार्टी 64 और गोंड़वाना मुक्ति सेना 6 सीटों पर मैदान में उतरी थी और वहीं 2018 में जीजीपी ने 76 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन पहले जैसी सफलता भी हासिल नहीं कर सकीं.

मप्र में ये है सपा की स्थिति
समाजवादी पार्टी मप्र में 1993 में पहली बार 1 सीट जीती थी. 1998 में यह आंकड़ा बढ़कर 4 हो गया जबकि 2003 में सपा 7 सीटें जीतने में कामयाब रही. 2013 में पार्टी ने प्रदेश में 164 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन एक भी सीट नहीं जीत पाई. 2018 में 50 सीटों पर चुनाव लड़ कर 1 सीट राजेश शुक्ला ने जीत दर्ज की थी. हालांकि कुछ समय तक बुंदेलखंड, विंध्य और महाकौशल में सपा का असर जरूर रहा है.

आदिवासी समाज में जयस की पैठ
जय आदिवासी युवा शक्ति(जयस) ने पहली बार 2018 के विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमाई, जिसमें जयस के अध्यक्ष डॉ. हीरालाल अलावा ने एक सीट जीतकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी. 2018 के चुनाव में जयस ने मालवा-निमाड़ की 28 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे. प्रदेश की राजनीति में लंबे समय से बीजेपी और कांग्रेस का ही कब्जा रहा है. तीसरे फ्रंट के नाम पर इनसे ही अलग हुए कुछ नेताओं ने कुछ समय से लिए अपनी उपस्थिति भले ही दर्ज कराई हो, लेकिन प्रदेश की राजनीति मुख्य रूप से टू पार्टी पॉलिटिक्स के इर्दगिर्द ही घूमती रही है जिसमें थर्ड फ्रंट जैसी किसी ताकत की उपस्थिति बहुत कम रह गई है.

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